रिश्तों की पूँजी
रिश्ते मनुष्य की धन-सम्पत्ति की तरह बहुत ही मूल्यवान होते हैं। उन्हें यत्नपूर्वक सहेजकर रखना पड़ता है। धन को यदि बैंक में जमा करवा दो तो वह बढ़ता रहता है। उसी प्रकार रिश्तों की जमा पूँजी भी तभी बढ़ती है, जब मनुष्य उनकी कद्र करता है, उन सबके साथ वह समानता का व्यवहार करता है और उन्हें यथोचित मान-सम्मान देता है।
वह सम्पत्ति जो अपने या किसी परिवारी जन के नाम पर हो तो वास्तव में अपनी होती है। यदि बेनामी सम्पत्ति हो और उसके विषय में यदि किसी को पता न हो तो कोई गारण्टी नहीं होती कि वह अपनी रहेगी भी या नहीं। ऐसा भी हो सकता है कि जिसके नाम पर वह सम्पत्ति है वही कल को धोखा दे जाए और वह अपने हाथ से निकल जाए।
उसी तरह रिश्ते भी होते हैं, वे तभी तक अपने होते हैं जब तक उनकी पहचान होती है। यानि कि माता, पिता भाई, बहन, चाचा, बेटा, बेटी, मित्र आदि कोई भी नाम उनका हो सकता है। यदि उनकी पहचान खोने लगो तो उनके खो जाने का डर भी हमेशा बना रहता हैं।
यहाँ एक बात ध्यान देने योग्य है कि जिन्दगी के बैंक में जब प्रेम और सौहार्द का बैलेंस कम होने लगता है तभी सुख और रिश्तों के चैक बाउंस होते हैं। मनुष्य सदा अपने रिश्तेदारों से ही सुशोभित होता है। किसी भी ख़ुशी या गम में यदि अपनों का साथ न हो तो जीवन नीरस हो जाता है। उनके बिना मनुष्य का अस्तित्व शून्य जैसा हो जाता है।
मनुष्य का रिश्ता ऐसा होना चाहिए जिस पर उसे नाज हो। उन पर उसे सदा मान और भरोसा होना चाहिए। रिश्ता वही होता अपना होता है जो सदा अपनेपन की अहसास देता हो। सुख या दुःख में साथ
निभाने वाले रिश्ते शीघ्र ही सिमटकर रह जाते हैं, उनमें दूरी अधिक होता है, सम्बन्ध केवल दिखावे भर के होते हैं। उनमें उतनी गर्माहट नहीं होती जितनी किसी एक रिश्ते में होनी चाहिए।
मनुष्य का यह जीवन और रिश्ते दोनों मौसम की तरह होते हैं कभी सर्द और कभी गर्म। पेड़-पौधों को यदि समय पर खाद और पानी देते रहो तो वे अपने समय पर हमें छाया तथा फल देते हैं। यदि उनको नजरअंदाज कर दो तो वे पनपते ही नहीँ हैं, मुरझा जाते हैं।
ऐसे ही पतझड़ के मौसम में जब पेड़ों के पत्ते सूख जाते हैं और वे ठूँठ होकर बदसूरत दिखाई देने लगते हैं तब प्रकृति भी नीरस लगने लगती है।
उसी प्रकार मनुष्य के जीवन में जब अहं रूपी पतझड़ आ जाता है तब रिश्ते मुरझा जाते हैं यानी उनमें दूरियाँ बढ़ जाती हैं। वे मनुष्य को बोझ की तरह लगने लगते हैं। मनुष्य की पहुँच से दूर होकर वे उसे संसार सागर में हिचकोले खाने के लिए अकेला छोड़ देते हैं। जब उसे इस सब की होश आती है तो वह स्वयं को बिल्कुल अकेला पाता है।
अच्छे रिश्ते उन्हें ही कहा जा सकता है जो हमेशा हवा की तरह खामोशी से मनुष्य की जीवनीशक्ति की तरह उसके आसपास रहें, जिनके बिना मानो उसका जीना ही दुश्वार हो जाए।
एक सार की बात बताना चाहती हूँ कि धनवान व्यक्ति वह नहीं होता जिसकी तिजोरी सदा नोटों या सोने-चाँदी के आभूषणों से भरी रहे अथवा ईश्वर की कृपा से वह बहुत ही सुख-सुविधाओं का भोग करता हो।
मेरे विचार में उसी व्यक्ति को हम धनी कह सकते हैं जिसकी तिजोरी धन के बजाय सच्चे रिश्तों की पूँजी से भरी हुई होती है। दूसरे शब्दों में मनुष्य के रिश्ते जितने अधिक मजबूत होते हैं उतना ही वह भौतिक रूप से शक्तिशाली बन जाता है।
अपने रिश्तों की पूँजी को व्यर्थ ही अपने अहं के कारण गंवाना नहीं चाहिए अपितु उन्हें अपने साथ लेकर चलते रहना चाहिए।
चन्द्र प्रभा सूद