कृतप्रतिज्ञ मनुष्य
मनुष्य अपने जीवन में यदि कुछ भी करने की ठान ले, तो वह कर गुजरता हैं। लोग उसे कितना हतोत्साहित या निराश क्यों न करें, वह अपनी ही धुन में मस्त रहता है। यदि मनुष्य की लगन सच्ची है, तो फिर उसे किसी की आलोचना या प्रशंसा से कोई अन्तर नहीं पड़ता। ऐसे व्यक्तियों को आम जन सिरफिरा कहते हैं, क्योंकि वे उनके ईमानदार और सच्चे यत्न को समझ ही नहीं पाते।
इसी प्रकार नेक कार्य करने की दृढ़ प्रतिज्ञा करने वाले मनुष्य के लिए कुछ भी कठिन नहीं होता। यदि व्यक्ति किसी काम को करने के लिए अपनी सामर्थ्य से जुट जाए, तो उसके रास्ते में आने वाली सारी मुश्किलें आसान हो जाती हैं। वह उन कठिनाइयों को तिनके की तरह तुच्छ समझता हुआ, आगे बढ़ता चला जाता है। पीछे मुड़कर देखना ऐसे व्यक्ति के स्वभाव में ही नहीं होता।
निम्न श्लोक में कृतप्रतिज्ञ व्यक्ति के लिए कहा गया है-
अङ्गणवेदी वसुधा कुल्या
जलधि: स्थली च पातालम्।
वाल्मिक: च सुमेरू:
कृतप्रतिज्ञाम्पस्य धीरस्य॥
अर्थात् कृतप्रतिज्ञ पुरुष के लिए सम्पूर्ण धरती घर के आँगन के समान होती है। अथाह सागर छोटी-सी नहर की तरह बन जाता है, पाताल लोक बगीचे जैसा दिखने लगता है और सुमेरू पर्वत चींटियों द्वारा बिल के बाहर रखी गई मिट्टी के समान हो जाता है।
कवि के कहने का तात्पर्य यह है कि कृतप्रतिज्ञ व्यक्ति के लिए सारी पृथ्वी उसके घर का आँगन है। हमारी संस्कृति में 'वसुधैव कुटुम्बकम्' यानी सारा संसार ही हमारा घर है। यहाँ कवि के द्वारा इसी भाव को उकेरा गया है। ऐसे विचार रखने वाले मनुष्य के लिए कोई भी प्राय नहीं होता। वह सभी को अपना मानता है। सारी धरा को घर का आँगन कहने का अर्थ ही यही है कि उसके घर-आँगन में बिना भेद-भाव के सबके लिए स्थान है।
सबके विषय में सोचने वाले के लिए विशाल सागर एक छोटी-सी नदी के समान हो जाता है। समुद्र की विशालता उस व्यक्ति के व्यक्तित्व के समक्ष गौण हो जाती है। पाताल लोक उसे बगीचे की तरह दिखाई देता है। यानी धरती और पाताल उसके लिए कोई मायने नहीं रखते। वह कहीं भी अपने दृढ़ संकल्प के कारण जा सकता है। उनकी दूरी उसके मार्ग में बाधक नहीं बनती।
विशाल सुमेरू पर्वत उसके लिए ऐसा होता है, मानो चींटियों ने मिट्टी निकाल कर एक तरफ रख दी हो और उस मिट्टी ने पर्वत का रूप ले लिया हो। सुमेरू पर्वत उसके मार्ग की बाधा नहीं बनता, अपितु वह उसे सरलता से पार कर जाता है। यह श्लोक मनुष्य की दृढ़ इच्छाशक्ति का प्रतीक है। यदि मनुष्य की संकल्प शक्ति प्रबल हो, तो सागर की गहराई, पाताल लोक का भय अथवा पृथ्वी का विस्तार आदि उसके मजबूत इरादों को डिगा नहीं सकते।
ऐसे कृत संकल्प मनुष्य के लिए सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड के जीव उसके अपने होते हैं। वे उसका अपना परिवार होते हैं। वह आकाश और पाताल सर्वत्र अपनी पैठ बनाए रखता है। उसे किसी से भी भय नहीं लगता। समुद्र तो मानो उसके लिए एक छोटी-सी नदी है, जिसे वह सरलता से पार कर सकता है। जहाँ चाहे, जब चाहे वह आवागमन कर सकता है। वह पर्वतों का सीन चीरकर, वहाँ से जनमानस के लिए मार्ग बना सकता है।
ये सभी कार्य उस व्यक्ति के लिए बाँए हाथ का खेल हैं, जो दृढ़प्रतिज्ञ है। वह व्यक्ति अपने मन सहित सभी इन्द्रियों को वश में करके, केवल अपने निर्धारित लक्ष्य का ही अनुसन्धान करता है। वह अपने इस उद्देश्य में सफल भी हो जाता है। समाज की दृष्टि में ऐसा वह मनुष्य माननीय बन जाता है। सभी लोग उसका अनुकरण करने का प्रयास करते हैं। यानी वह दिग्दर्शक बन जाता है।
चन्द्र प्रभा सूद