पति-पत्नी का रिश्ता
युवक और युवती जब वयस्क हो जाते हैं, तब योग्य बनकर अपने पैरों पर खड़े होते हैं, उस समय वे घर-परिवार के दायित्वों को बखूबी सम्हालने के योग्य बन जाते हैं। उनके माता-पिता उन दोनों को विवाह के बन्धन में बाँधना चाहते हैं। तब वे अपने सुपुत्र अथवा सुपुत्री के लिए योग्य वर या वधु की खोज आरम्भ कर देते हैं। दोनों नवयुवा विवाह के सूत्र में बँधकर, मिल-जुलकर अपनी गृहस्थी की गाड़ी को चलाने लगते हैं। युवाओं और घर-परिवार के सदस्यों के लिए आज एक बहुत ही सुखद अहसास होता है।
विवाह नाम है विश्वास का, समर्पण का। प्रेम की इस गली में दो की कोई गुँजाइश नहीं होती। दोनों एकजान बनकर रहते हैं तो जीवन चलाना सरल होता है अन्यथा जीवन दुरूह हो जाता है। माता-पिता के घर में जन्म लेने वाली रानी बेटी, उसे छोड़कर किसी दूसरे घर की शोभा या रानी बन जाती है। पुरुष भी अनजान स्त्री को अपना सर्वस्व सौंपकर सारी आयु उसका होकर रह जाता है। भारतीय संस्कृति में विवाह और परिवार की यह परिकल्पना कितनी मधुर है व अनुकरणीय है। यहाँ एक जन्म का नहीं अपितु सात जन्मों के लिए नाता जोड़ा जाता है।
पति-पत्नी का यह रिश्ता खून का नहीं होता, अपितु एक नवनिर्मित सम्बन्ध होता है। बहुत से लोगों ने पहले कभी एक दूसरे को देखा भी नहीं होता। अब सारी जिन्दगी एक-दूसरे के साथ निभाते हैं। पहले अपरिचित होते हुए भी धीरे धीरे इनका परस्पर परिचय बढ़ता है। एक-दूसरे को समझते- समझते कब इनकी नोकझोंक झगड़े में बदल जाती है, पता ही नहीं चलता। कभी-कभार बोलचाल बन्द होने से इनमें अबोलापन आ जाता है। कभी जिद, कभी अहं का भाव और फिर रूठने-मनाने का सिलसिला चल पड़ता है। धीरे-धीरे उनमें प्रेम का पौधा खिलने लगता है। तब एकजीवता और तृप्ति का भाव उन्हें बाँधकर रखता है। परिवार बढ़ने के उपरान्त बच्चे प्राथमिकता बन जाते हैं और बाकी जब गौन हो जाता है।
वैवाहिक जीवन को परिपक्व होने में समय लगता है। धीरे-धीरे जीवन में मधुरता आती है। कहते हैं अचार जैसे जैसे पुराना होता जाता है, उसका स्वाद बढ़ता जाता है। या पुराना होता चावल अघिक मूल्यवान हो जाता है। उसी प्रकार समय बीतते-बीतते उनका सम्बन्ध अधिक प्रगाढ़ होता जाता है। उस समय एक-दूसरे को जानने-परखने की समझ उनमें पनपने लगती है। उन दोनों के खान-पान या व्यवहार में कितनी भी विविधता क्यों न हो पर दोनों दो शरीर और एक जान बन जाते हैं। उनकी यही समझ उन्हें जोड़कर रखती है।
पति-पत्नी जब एक दूसरे को अच्छी प्रकार जानने-समझने लगते हैं, तो उनमें प्रेम का पौधा पुष्पित और पल्लवित होने लगता है। रिश्ते के मजबूत होने के कारण वे एक-दूसरे के बिना अपने जीवन की कल्पना भी नहीं कर पाते। यानी एक- दूसरे के बिना उन्हें कुछ भी अच्छा ही नहीं लगता। यही वह अवस्था होती है जब वे दोनों दक-दूसरे के मन की बात बिना कहे ही समझ जाते हैं। जिसे हम टेलीपैथी कहते हैं। आसपास रह रहे हों या कहीं दूर , वे दोनों आपसी सूझबूझ के साथ अपने जीवन की गाड़ी को बिना धक्का लगाए सुगमता से खींचकर ले जाते हैं।
युवावस्था मान-मनौव्वल में और दायित्वों को निभाने में व्यतीत हो जाती है। आयु धीरे-धीरे बढ़ने लगती है, उम्र के उस पड़ाव में दोनों ही एक-दूसरे पर अधिक आश्रित होने लग जाते हैं। घर-परिवार और बच्चों के बीच रहते हुए भी एक-दूसरे के बिना उन दोनों को खालीपन महसूस होने लगता है। ऐसे समय में एक-दूसरे का साथ छूटने के भय मन में सताने लगता है। दोनों यह सोचने लगते हैं कि एक-दूसरे के वियोग में कैसे जी पाएँगे? यानी पत्नी पहले विदा हो गई तो पति 'कैसे जिऊँगा' इस विषय में सोचकर घबराने लगता है। पत्नी यह सोचकर आशंकित होती है कि पति उससे पहले दुनिया से कुच कर गया तो वह 'कैसे जी पाएगी'।
उन दोनों के मनों में उमड़ते-घुमड़ते ये प्रश्न उनके स्वतन्त्र अस्तित्व को भूला देते हैं। कितना आश्चर्यजनक है इस दुनिया का दस्तूर कि कहाँ के दो अजनबी लोग किस मोड़ पर आकर खड़े हो जाते हैं? आपस में तकरार करते दो युवा कब एक होकर मृत्यु के पथ के पथिक बन जाते हैं, पता ही नहीं चलता? अपने बीच पनप रही प्रेम और विश्वास की यह डोर कब टूट जाएगी, इस भय से वे ग्रसित रहते हैं?
ऐसे ही जीवन की गाड़ी पटरी पर चलती रहती है। फिर एक दिन उन दो प्रेमी अजनबियों के जाने का समय यानी परस्पर वियोग का समय आ जाता है। पीछे वाले बस उनकी प्रेम कहानियाँ याद रखते हैं।
चन्द्र प्रभा सूद