जब लगभग 10 वर्ष पहले मैंने रेडियो सुनना शुरू किया था, उस समय घर में बिजली नही हुआ करती थी और मैं दो पेंसिल सेल से चलने वाले उस पॉकेट रेड़ियो में ही खोया रहता था स्कूल से आने के बाद।
खैर उस समय कुछ भी आता था बड़े चाव से सुनने बैठ जाता था। हालाँकि मेरा ज़्यादा ध्यान गानों में रहता, मैं यही सोचता कि अब कौनसा गाना सुनाया जाएगा। उन्ही कार्यक्रमों में एक प्रोग्राम आता था हेल्पलाइन नाम से। वो प्रोग्राम आज भी आता है और लगभग रोज आता है अलग-अलग विषयों से सम्बंधित। तो एक दिन मैंने उसी प्रोग्राम में सुना एक विशेषज्ञ एक बीमारी के बारे में बता रहे थे, जिसमे इंसान बहुत उदास रहता है, उसका किसी चीज में मन नही लगता और यादाश्त भी कमजोर हो जाती है (ये चीज़ें पता नहीं कैसे पर मुझे आजतक याद हैं) उस समय मैं सोचा करता कि क्या बकवास बातें करते हैं ये एक्सपर्ट भी, ये कोई बीमारी के लक्षण लगते हैं किसी नज़र से? इनको और कोई काम नहीं है क्या जल्दी से गाने लगा दो यार।
खैर समय बीतता गया। मैं पढ़ाई में लगातार गिरता ही जा रहा था। एक समय हमेशा 80-85% लाने वाला लड़का इस समय एक पेपर में पास होने से रह जाता है। खैर किसी तरह 12वीं हुई। 12वीं तो हो गई, पर अब आगे क्या। 12वीं करने के बाद 4 साल बीत चुके है अब। नही, मैं आपको दोबारा वहीँ ले जाता हूँ। 12वीं विज्ञान से की थी, उस साल एकमात्र पॉलिटेक्निक का पर्चा भरा था, ठीक-ठाक रैंक भी आ गई थी। पर सरकारी कॉलेज के हिसाब से कम थी। उसके बाद साल के लगभग अंत में एक कॉलेज में दाखिला लिया वो भी कॉमर्स विषय के साथ। पेपर दिए, पर पहचान-पत्र खो देने की वजह से परिणाम नहीं पता चल सका (या कह सकते हैं मैने कोशिश नहीं की)।
उसके बाद एक दूसरे कॉलेज से बीए करने की कोशिश की उसके दूसरे वर्ष में पूरे विषयों में फ़ैल हो गया।
इस समय तक मेरी हालत ऐसी हो चुकी थी कि किसी भी ऐसी बात पे समझ ही नही आता था कि किस चीज़ पे कैसा रियेक्ट करूँ। अंदर से काफी ज्यादा रोने वाला मन भी हो तो भी रोना ही नहीं आता था, आँखों में आंसू ही नही आते थे, पर कभी-कभी गुस्सा बहुत आता था। ये सभी अजब सी चीज़ें जैसे रोना न आना, या बहुत गुस्सा आना, ये कुछ ऐसी चीजें थी जो मैंने खुद में बहुत बाद में नोटिस की। अच्छा हाँ पर स्कूल टाइम में बहुत रोने वाला इंसान था, किसी लड़के ने शरारत करदी, रो दिया, लेसन न सुनाने पर मैडम ने डांट दिया, तो रो दिया। 12वीं के बाद ही ये सब चीज़ें शुरू हुई (जैसा और जितना मैंने खुद में नोट किया, उसी के अनुसार..)। मेरी संवेदनाएं धीरे-धीरे मर रही थी। कोई भी चीज़ जो पहले पसन्द थी, बेकार लगती थी अब। काफी हीन भावना (हीन भावना का असल में मुझे अभी तक नहीं पता, पर जैसा अनुभव किया..) जैसे दूसरे लड़के जो मुझसे पढ़ाई में कमज़ोर भी थे, सब अच्छा कर रहे थे। सब किसी न किसी विषय में पढ़ाई कर रहे थे(कम से कम कुछ कर रहे थे)।
बीए के दूसरे साल में फेल होने का मतलब कुल तीन साल बर्बाद। मेरे साथ वालो का ग्रेजुएशन हो चुका था और मैं एक 12वीं पास कहलाने वाला ही रहा। मेरी संवेदनाएं जो लगातार मर रही थी, और मैं सोचने समझने के लायक भी नही बचा(पहले भी कौनसा था)। हालाँकि मैं खुद को ही समझाने समझने की कोशिशें करता। अख़बार में इस तरह की खबरें पढ़ने की कोशिशें करता की खुश और टेंशन फ्री कैसे रख सकूँ खुद को।
उसके बाद जब अखबार में इसके लक्षण आने लगे तब जाके मुझे याद आया कि हाँ बिल्कुल यही बातें तो रेड़ियो में आया करती थी। मैं खुद को संभालने के समाधान अख़बारों और इंटरनेट(इस समय तक रेडियो से नाता लगभग समाप्त हो चुका था और मेरे पास मोबाइल फोन आ चुका था)। किसी के कहने पर सरकारी अस्पताल भी गया,पर वहां डॉक्टर का रवैया मुझे अच्छा नहीं लगा(उस समय हाल ही ऐसा हो गया था कि चाहे कोई इन्सान सही से भी कहे तो भी बुरा लग ही जाता था)। मैं बहुत ही गैप के बाद वहाँ जाता पर मुझे वहां जाना बहुत बेकार लगता। मैं इन्टरनेट पर खोजता, बहुत सारे समाधान मिलते। जैसे सुबह जल्दी उठना, ज़्यादा पानी पीना, एक्सरसाइज करना, इत्यादि। खैर, शुरुआत में तो कुछ खास नहीं पर बाद में जल्दी उठने पर बहुत बेचैनी हो जाती। पानी भी पिया नहीं जाता और कोई व्यायाम भी नहीं हो पाता। कभी-कभी तो बेचैनी हद से ज़्यादा बढ़ जाती और मैं अपने होश में ही नही रहता। हद से ज़्यादा बेचैनी और घबराहट से बुरा हाल हो जाता कभी कभार। बस अभी भी ये कहानी यूं ही चल रही है। समय के साथ-साथ और संवेदनशीलता खत्म हो रही है। समझ नहीं आ रहा कि इस संवेदनशीलता का अंत होगा या इस बीमारी का।
(मुझे लिखने का शौंक नहीं मुझे लगा कि एक बार जरूर लिखना चाहिए, शायद कोई मदद मिले)