माँ का रूठना
माँ का रूठना मानो सारे संसार का रूठ जाना होता है। जिन लोगों की माँ उनसे नाराज होकर रूठ जाती है, उन्हें घर-परिवार के लोग और समाज कभी माफ नहीं करता। सब सुख-सुविधाएँ होते हुए भी उनके मन का एक कोना रीता रह जाता है। उन्हें हर समय मानसिक सुख और शान्ति प्राप्त करने के लिए भटकते ही रहना पड़ता हैं।
मनुष्य के लिए उसकी माँ सर्वस्व होती है। माता के बिना मनुष्य के अस्तित्व की तो कल्पना भी नहीं की जा सकती। माँ है, तो उसकी सन्तान है। इस सार्वभौमिक सत्य को कोई झुठला नहीं सकता कि यदि वही नहीं होगी, तो सन्तान कभी इस दुनिया में नहीं आ सकेगी।
हर मनुष्य के लिए माँ जीवनदायिनी शक्ति होती है। उसकी माता ही उसके लिए ऊर्जा और विश्वास का भण्डार होती है। वह आँख बन्द करके, बिना किसी झिझक के अपनी माता की अँगुली थामकर चल सकता है। उसके मन मे कभी यह भाव नहीं आता कि उसका अहित हो जाएगा।
माँ अपने सारे सुखों और सुविधाओं की बलि चढ़ाकर अपनी सन्तान को पोषित करती है। जब तक बच्चा चलने-फिरने या बोलने लायक नहीं हो जाता, तब तक उसे देखभाल की बहुत आवश्यकता होती है। उसे पलभर के लिए भी घर में नजरों से परे करने का यह अर्थ होता है, बच्चा किसी समस्या में घिर गया है। इसलिए उसकी सदैव चौकसी करनी पड़ती है।
छोटे बच्चे के लिए सरदी, गरमी, बरसात आदि हर पहला मौसम परेशानियाँ लेकर आता है। उसकी हर कठिनाई में उसे सम्बल चाहिए होता है, जिसे माता ही उसे देती है। उसे स्कूली शिक्षा के लिए तैयार करना और फिर जीवन में हर कदम पर सफल होने के लिए माँ ही उसकी सहायक बनती है।
वह उसके बड़े होने, योग्य बनने के लिए सदा ईश्वर से प्रार्थना करती रहती है। उसके सारे जप-तप, पूजा-पाठ सदा अपनी सन्तान की भलाई और खुशहाली के लिए होते हैं। उसके सारे कष्टों को अपने ऊपर ले लेने की कामना हर माँ करती है। बच्चे अपने जीवन में सेटल हो जाते हैं, तो उसकी प्रसन्नता का पारावार नहीं रहता।
बच्चा जब बड़ा हो जाता है और अपने पैरों पर खड़ा हो जाता है, तब अपनी माता का हर प्रकार से ध्यान रखना, उसकी सारी आवश्यकताओं को प्रसन्नतापूर्वक मन से पूर्ण करना उसका परम दायित्व होता है। उसका सदा यही प्रयास होना चाहिए कि उससे जाने-अनजाने ऐसा कोई कार्य न होने पाए, जिसके कारण उसकी माता को किसी भी प्रकार का कष्ट पहुँचे।
माता के दिल को दुखाना किसी भी इन्सान को शोभा नहीं देता। जिस माता ने उसे सदा दुनियादारी की शिक्षा दी, पढ़ा-लिखाकर योग्य बनाया, उसी माता को बड़े होकर यह कहना कि आपको कुछ भी नहीं पता यानी वह मूर्ख है, यह सबसे बड़ा अपराध है।
मनुष्य के जीवन का आधार जो ऐसी जननी है, उसके प्रति कोताही बरतना, उसका तिरस्कार करना किसी भी तरह से क्षम्य नहीं होता है। ऐसे व्यक्ति को किसी भी तरह से क्षमा नहीं किया जा सकता।
इसीलिए ब्रह्माण्डपुराण ने बड़े स्पष्ट शब्दों में मनुष्य को चेतावनी देते हुए मनुष्य से कहा है-
पातकानां किलान्येषांप्रायश्चितानि सन्त्यपि।
मातेद्रुहामवेहि त्वं न क्वचित् किल निष्कृति
अर्थात् निस्सन्देह अन्य पातकों ( पापों) का प्रायश्चित हो सकता है, पर मातृ-द्रोह का कोई प्रायश्चित नहीं हो सकता।
कहने का तात्पर्य यही है कि मनुष्य यदि कोई गलत कार्य या कुकर्म करता है, तो उसका प्रायश्चित किया जा सकता है, उसके लिए सजा भोगी जा सकती है। परन्तु माता के प्रति वह कोई दोष करता है या बुराई करता है, तो उसका इस संसार में किसी प्रकार का कोई प्रायश्चित नहीं हो सकता।
मनुष्य को सदा यही प्रयत्न करना चाहिए कि देवतुल्य माता के साथ स्वप्न में भी ऐसा व्यवहार न करे जिससे उसके मन को कभी कष्ट हो अथवा रुष्ट हो करके उसे अपनी ही सन्तान से भारी मन से मुख मोड़ना पड़ जाए। ऐसे कृत्य के लिए इस लोक में तो क्या परलोक में भी उसे शान्ति नहीं मिल सकती।
चन्द्र प्रभा सूद