बच्चे को पीटना हल नहीं
माँ की डाँट-फटकार में भी उसका प्यार ही छुपा होता है। ऐसा कहा जाता है कि जो प्यार करता है, उसे डाँटने का भी अधिकार होता है। इस संसार में माँ से बढ़कर अपनी सन्तान से और कोई स्नेह कर ही नहीं सकता। बच्चा चाहे रोगी हो, विकलाँग हो या कैसा भी हो, उसी में उसके प्राण अटके रहते हैं। उसके लिए सभी बच्चे उसके हृदय का टुकड़ा होते हैं।
छोटा बच्चा दुनियादारी से अनजान कच्ची मिट्टी की तरह होता है। जिस तरह कुम्हार मिट्टी से मटके बनाता है, तो एक हाथ से अन्दर से सहारा देता है और बाहर से हल्की-हल्की चोट करता है। जिससे उसका रूप निखर जाए। उसी तरह माँ को उसे सब सिखाना होता है। यदि उसकी गलती पर वह उसे डाँटेगी नहीं, तो बच्चे को कुछ भी समझ नहीं आ सकता। इसका कारण यही है कि बच्चा नादान होता है। उसे एक बार, दो बार प्यार से समझाने के बाद भी वह फिर वही हरकतें करने लगता है, जिसके लिए माँ को आखिरकार उसके साथ सख्ती बरतनी पड़ती है।
यदि बच्चा जलती हुई आग में हाथ डालना चाहे, पानी में दिनभर बैठ रहना चाहे, स्कूल न जाना चाहे, घर से निकले पर स्कूल न जाकर बंक करे या भीड़ में हाथ छुड़ाकर भागना चाहे, तब उसे समझाना भी पड़ता है और यदि बार-बार गलती दोहराए, तो फिर उसे फटकारना भी पड़ता है।
यदि माँ बच्चे को दुनिया में रहने का सलीका नहीं सिखाएगी, तो फिर उसे कौन सिखाएगा?
दुनिया तो बस हर दूसरे व्यक्ति की गलतियाँ ढूँढने में लगी रहती है। कोई भी किसी को सही रास्ता दिखाने में रुचि नहीं रखता। लोग बस केवल छिद्रान्वेषण करते हैं। नमक-मिर्च लगाकर चटकारे लेकर बातें बना सकते हैं। एक-दूसरे पर छींटाकशी कर सकते हैं। किसी का भी उपहास कर सकते हैं।
थोड़ा-सा बड़ा होने पर जब वह संसार सागर में अकेले प्रवेश करता है, तब वह घबराने लगता है। उस समय वह बस किसी की अँगुली थामकर चलना चाहता है। ऐसे समय में माँ उसका साथ देती है। उन परिस्थितियों से जूझने के लिए उसे प्यार से समझाती है और थोड़ा झिड़ककर सामर्थ्य देती है।
किशोरावस्था में प्रवेश करते हुए बच्चे को अपने मन की बात साझा करने के लिए कोई सहारा चाहिए होता है। उस समय माता-पिता के धन से अधिक उसे उनके समय की आवश्यकता होती है। यदि माँ बच्चे को अपना अमूल्य समय दे सके तो बच्चा बहुत-सी समस्याओं से मुक्त हो जाता है।
यदि माता-पिता उसे समय नहीं दे पाते तो वह उनका ध्यान आकर्षित करने के लिए दिन-प्रतिदिन ऊट-पटाँग हरकते करने लगता है। इस कारण उसे डाँट खानी पड़ जाती है। उस समय वह अपनी जीत पर गर्व से फूला नहीं समाता।
वैसे यौवनावस्था में कदम रखने वाले बच्चों पर थोड़ा अंकुश लगाने की आवश्यकता होती है। इस अवस्था में बच्चे कभी कभार कुमित्रों की संगति में पड़कर राह से भटक जाते हैं। पार्टियों से या पब से रात घर में देर से आना अथवा अधिक समय तक घर से बाहर रहना अच्छा नहीं होता। इस आयु में उन्हें कभी डाँट-फटकार लगाने की जरूरत न पड़े इसका ध्यान माता, पिता और बच्चों सबको रखना चाहिए।
अंग्रेजी भाषा में एक उक्ति है spare the rod and spoil the child. यानि छड़ी को दूर रखो और बच्चे को बिगाड़ दो।
इसका यह अर्थ कदापि नहीं कि बच्चे को हर समय मारना-पीटना चाहिए या दण्ड देना चाहिए। हाँ यदि उसे सुधारने के लिए कभी ऐसा करना पड़े तो अनुचित नहीं है। इसी कड़ी में डाँट-फटकार से भी इलाज किया जा सकता है।
माँ यदि बच्चे के हित के लिए उसे डाँटती है तो इसका यह तात्पर्य नहीं होता कि वह बच्चे का अहित चाहती है। उसके रोष में उसका प्यार और अपने बच्चे के हित को साधने की भावना प्रबल होती है। माँ की पूर्णता उसके मातृत्व से होती है, ऐसा शास्त्रों और मनीषियों का कथन है। सन्तान पर माँ का अधिकार हर रिश्ते से नौ मास अधिक होता है क्योंकि वह नौ माह तक उसे गर्भ में धारण करती है। उसे अपने रक्त से सींचती है। दुर्भाग्यवश यदि पति और पत्नी में तलाक की स्थिति बनती है तो उस समय कानूनन माँ को ही नाबालिग बच्चों की कस्टडी दी जाती है।
महाभारत के वनपर्व में माता की महानता को दर्शाते हुए कहा है-
मातस्तु गौरवादन्ये पितृतन्ये तु मेनिरे।
दुष्करं कुरुते माता विवर्धयति या प्रजा:॥
अर्थात् कुछ लोग गुरुता के कारण माता को और कुछ लोग पिता को श्रेष्ठ समझते हैं। परन्तु माता ही दुष्कर कार्य करती है, वही सन्तान का पालन-पोषण करती है।
माँ के महत्त्व का प्रतिपादित यह श्लोक कर रहा है। माता अपनी सन्तान का पालन करने के साथ-साथ उसे संस्कारित भी करती है। वह इस संसार में उसे सिर उठाकर चलने के योग्य बनाती है। उसकी उन्नति में सदा प्रसन्न होती है। सारी आयु उसे अपनी छत्रछाया में बढ़ते हुए देखने की चाहत रखती है।
हर माता की यह हार्दिक इच्छा होती है कि उसे माँ कहकर पुकारने वाली सन्तान उसकी गोद में किलकारियाँ भरे। वह उसे निरखकर निहाल हो जाती है। उसके रूप में स्वयं को जीती है। उसके दुख में परेशान हो जाती है और सुख में आह्लादित होती है। उसकी तुतलाती बोली पर वह बलिहारी जाती है।
उसकी अँगुली थामकर उसे चलना सिखाती है और जब वह ठुमक-ठुमककर चलता है तो मानो वह जी जाती है। जब वह नन्हा बच्चा अपने कपड़े गन्दे करके, अपने मुँह पर चित्रकारी करके, उसकी गोद में आकर विश्राम करता है तब माँ उस पर नाराज होने के स्थान पर उसका मुख चूमकर स्वर्गिक आनन्द का अनुभव करती है।
उसे अपने पास बिठाकर बहुत ही धैर्यपूर्वक अक्षर ज्ञान कराती है। बच्चा बार-बार गलती करता है और माँ उसे पुनः पुनः हाथ पकड़कर लिखना सिखाती है। जब वह गलती करके नासमझ बनने का अभिनय करता है, तो उसे डाँटने के स्थान पर माँ उसके भोलेपन पर हँसते हुए क्षमा कर देती है।
बच्चा भी अपनी माँ की गोद में जाकर अपने सारे दुख, परेशानियाँ और साथियों या घर के अन्य सदस्यों द्वारा किए गए अपमान आदि सब भूल जाता है। उसे वही अपनी एकमात्र शरणस्थली प्रतीत होती है। वहाँ आकर वह पूर्णतः आश्वस्त हो जाता है और माँ के बहलाने पर मुस्कुरा उठता है।
उसे हमेशा ऐसि लगता है कि माँ उसकी सारी परेशानियों या शिकायतों को ध्यान से सुनेगी और उसका उपहास नहीं करेगी। जो भी उसे भला-बुरा कहेगा, माँ उसे छोड़ेगी नहीं बल्कि उसे डाँटेगी तथा उसका ही पक्ष लेगी।
उसे हमेशा यही लगता है कि उसकी माँ संसार की सबसे खूबसूरत महिला है। उसका रूठना-मानना, जिद करना सभी अपनी माँ से ही होते हैं। माँ भी उसकी सारी आवश्यकताओं को उत्साहित होकर पूर्ण करती है।
घर में रहते हुए ससुराल पक्ष के लोगों या पति के द्वारा दिए गए कितने भी दुखों और कष्टों का सामना किसी स्त्री को क्यों न करना पड़ जाए, वह अपनी सन्तान के सुख और भविष्य को देखते हुए उन्हें झेलने का प्रयास करती है।
एक माँ अपनी सन्तान जो उसका एक अंश होती है, उसकी सुख और समृद्धि की कामना करते हुए अपना जीवन जीती है। उसे मातृत्व का सुख देने वाली उसकी सन्तान फले-फूले और अपने जीवन में दुनिया की हर नेमत का भोग करे। उसे कभी किसी कष्ट का सामना न करना पड़े। माँ अपनी ममता का प्रतिदान नहीं चाहती पर सन्तान को चाहिए कि वह अपनी ऐसी माता का सम्मान और सेवा सारी आयु करे।
चन्द्र प्रभा सूद