पाणिग्रहण संस्कार का महत्त्व
भारतीय संस्कृति में पाणिग्रहण संस्कार अथवा विवाह का बहुत महत्त्व है। इसका अर्थ है - विशेष रूप से उत्तरदायित्व का वहन करना। विवाह योग्य युवा स्त्री और पुरुष का यह विवाह उन दोनों के साथ-साथ उनके पारिवारों के जीवन में भी परिवर्तन लाता है।
अग्नि के समक्ष सात फेरे लेकर और ध्रुव तारे को साक्षी मानते हुए दो तन, मन तथा आत्मा एक पवित्र बंधन में बंध जाते हैं। हिन्दू विवाह में पति और पत्नी के बीच शारीरिक सम्बन्ध से आत्मिक सम्बन्ध अधिक महत्त्वपूर्ण होता है, इसे अत्यन्त पवित्र माना गया है।
परम्पराओं में सबसे मुख्य रस्म सात फेरों की होती है, जो वैवाहिक जीवन की स्थिरता का मुख्य आधार होती है। यही सात फेरे उनके रिश्ते को सात जन्मों तक बाँधते हैं। वर-वधू अग्नि को साक्षी मानकर इसके चारों ओर परिक्रमा करते हुए पति-पत्नी के रूप में एक साथ सुखमय जीवन व्यतीत करने के लिए प्रतिज्ञा करते हैं।
हिन्दू वैवाहिक संस्कार के अंतर्गत वर के वाम अंग में बैठने से पूर्व कन्या हर फेरे में वर से एक वचन लेती है। प्रत्येक वचन लेते हुए वह कहती है कि यदि आप इसे स्वीकार करते हो, तो मैं आपके वाम अंग में आना स्वीकार करती हूँ-
प्रथम वचन में कन्या वर से कहती है कि यदि आप कभी तीर्थयात्रा के लिए जाओ, तो मुझे भी अपने साथ लेकर जाना। कोई धार्मिक कार्य आप करें, तो मुझे अपने वाम भाग में अवश्य स्थान दें।
किसी भी प्रकार के धार्मिक अनुष्ठान की सफलता हेतु पति-पत्नि मिलकर उसे करते हैं। पत्नी के इस वचन से धार्मिक कार्यों में उसकी सहभागिता और महत्व को दर्शाया गया है।
दूसरे वचन में कन्या वर से कहती है कि जिस प्रकार आप अपने माता-पिता का सम्मान करते हैं, उसी प्रकार मेरे माता-पिता का भी सम्मान करें तथा कुटुम्ब की मर्यादा के अनुसार धर्मानुष्ठान करते हुए ईश्वर भक्त बनें।
आज कुछ लोगों की गृहस्थी में किसी प्रकार के मनमुटाव होने पर पत्नी के परिवार से सम्बन्धों में दरार आने लगती है। ससुराल पक्ष से सदा ही सदव्यवहार करना चाहिए।
तीसरे वचन में कन्या कहती है कि आप जीवन की तीनों अवस्थाओं- युवावस्था, प्रौढावस्था, वृद्धावस्था में मेरा पालन करते रहना।
चौथे वचन में कन्या वर से कहती है कि अब तक आप घर-परिवार की चिन्ता से मुक्त थे। अब विवाह के बंधन में बँधने जा रहे हैं, तो भविष्य में परिवार की समस्त आवश्यकताओं की पूर्ति का दायित्व आपके कन्धों पर होगा।
इस वचन के माध्यम से कन्या वर को भविष्य में उसके उतरदायित्वों के प्रति सजग कराती है। विवाह पश्चात पर्याप्त धन की आवश्यकता होती है। यदि पति पूरी तरह से अपने माता-पिता पर आश्रित रहे तो गृहस्थी नहीं चल सकती। कन्या चाहती है कि पति पूर्णरूपेण आत्मनिर्भर बने और परिवारिक दायित्वों का निर्वहण करे। इस वचन से यह स्पष्ट होता है कि पुत्र का विवाह तभी करना चाहिए, जब वह योग्य बनकर अपने पैरों पर खडा हो जाए।
पाँचवें वचन में कन्या कहती है कि अपने गृहकार्यों में, विवाहादि, लेन-देन अथवा अन्य खर्च करते समय मेरी भी सलाह लेना।
आज भी बहुत से पुरुष अपने झूठे अहं के कारण पत्नी से किसी भी विषय में परामर्श नहीं करते। यदि वे ऐसा कर लें तो उसे सम्मान व आत्मसन्तुष्टि मिलेगी।
छटे वचन में कन्या कहती है कि यदि मैं अपनी सखियों आदि के बीच बैठी हूँ, तब किसी के सम्मुख किसी भी कारण से मेरा अपमान नहीं करेंगे। स्वयं को जुए अथवा अन्य किसी दुर्व्यसन से दूर रखना।
वर्तमान परिप्रेक्ष्य में इसे गम्भीरता से देखने की आवश्यकता हैं। विवाह के कुछ समय पश्चात पुरुषों का व्यवहार बदलने लगता है। वे जरा-सी बात पर सबके सामने पत्नी को डाँट-डपट देते हैं, जो उसके मन को आहत करता है। एकान्त में पति उसे चाहे समझा ले, पर सबके सामने उसके सम्मान की रक्षा करे। दुर्व्यसनों में फँसकर अपनी गृहस्थी को बरबाद न करें।
सातवें वचन में कन्या कहती है कि पराई स्त्रियों को माता के समान समझना। आपसी प्रेम में किसी अन्य की भागीदारी नहीं होनी चाहिए।
विवाहेत्तर सम्बन्ध गृहस्थी की नींव हिला देते हैं। इसलिए पारिवारिक जीवन को सुरक्षित रखने के लिए इस वचन की बहुत आवश्यकता है।
विश्व के अन्य धर्मों में विवाह पति और पत्नी के बीच एक प्रकार का अनुबन्ध होता है, जिसे वे किसी परिस्थिति विशेष में तोड़ सकते हैं। यानी तलाक लेकर अपने रास्ते अलग कर सकते हैं। परन्तु भारतीय भारतीय संस्कृति में पति और पत्नी के बीच यह सम्बन्ध सात जन्मों का माना जाता है, इसे किसी भी परिस्थिति में तोड़ा नहीं जा सकता। यानी तलाक नहीं लिया जाना चाहिए। सम्बन्धों की गरिमा बनाए रखने के लिए परस्पर सामञ्जस्य स्थापित करना चाहिए।
चन्द्र प्रभा सूद