टूटते परिवारों का; बढ़ते मकानों का
ज़िंदा लाशो का; घटते शमशानों का
मरते अरमानो का; भूलते अहसानो का
बिछड़ते दोस्तो का; बढ़ते अनजानो का
शहर हुआ मेरा कब्रिस्तानों का
वक्त न होने का रोना है; वक्त पर रोना नही आता
अजनबी तो बहुत मिलते है; अपना कोई मिलने नही आता
समय तो गुजर जाता है; सुकून कभी नही आता
आते तो बहुत है यहां देहातो से; शहर से कोई गांव नही जाता
दौड़ लगा रहे सभी मंज़िल किसी को मय्यसर नही
छतो में सूखे है सभी भीगी बारिशो की नज़र नही
दिल धड़कते तो है; धड़कनो में ज़ज़्बातों का बसर नही
ये काल का कैसा कहर; अब ऐसा हुआ मेरा शहर