मुखौटानुमा जिन्दगी
हर इन्सान अपने चेहरे पर कई चेहरे यानी मुखौटे लगाकर रखता है ताकि कोई दूसरा व्यक्ति उसकी वास्तविकता को देख-परख न सके। ऐसे में कोई भी मनुष्य किसी दूसरे को पहचानने में गलती कर सकता है। सभी लोग शायद इस कला में दक्ष हैं।
मुखौटा लगाने की आवश्यकता व्यक्ति को इसलिए पड़ती है कि वह अपनी असलियत दूसरों पर प्रकट नहीं होने देना चाहता। वह जैसा है, उस रूप में किसी के सामने नहीं आना चाहता। अपने असली चेहरे को इस दुनिया की नजर से बचाता फिरता है।
शायद उसे इस बात का डर होता है कि यदि उसकी वास्तविकता दूसरों के सामने आ गई तब क्या होगा? कोई उसके साथ सम्बन्ध रखना चाहेगा क्या? कहीं वह दुनिया की भीड़ में अकेला तो नहीं पड़ जाएगा?
इन्हीं कारणों से वह सदा ही फूँक-फूँककर कदम उठाता है। आदर्श पति या पत्नी, ईमानदार कर्मचारी या व्यापारी, अच्छे माता-पिता, आज्ञाकारी सन्तान, सच्चा सम्बन्धी, वफादार मित्र या बन्धु, हितैषी पड़ोसी, अच्छा इन्सान, धनवान, विद्यावान, शक्तिशाली, योग्य आदि बनने के मुखौटे लगाता रहता है।
जब उसकी वास्तविकता जग जाहिर होती है यानी उसकी पोल खुल जाती है तब बगलें झाँकने के अतिरिक्त वह कुछ नहीं कर सकता। उस समय लोग उसका उपहास करते हैं।
अनिल पचौरी ने फेसबुक पर यह कथा पोस्ट की थी जो वाकई मनन करने योग्य है।
किसी नगर में एक चित्रकार घूमते हुए पहुँचा जहाँ का राजा कला प्रेमी था। राजा के पास जाकर चित्रकार ने उसका चित्र बनाने का अनुरोध किया।
राजा ने अनुमति देते हुए कहा- "जिस प्रकार चन्द्रमा तारों के बीच सुशोभित होता है, उसी प्रकार सभासदों के साथ मेरा चित्र बनाओ।"
चित्रकार को चित्र बनाने के लिए राजा ने दूसरे दिन दरबार में आने के लिए कहा। यह बात दरबार में फैल गई।
रात में जब चित्रकार अपने कमरे में आराम कर रहा था तो उसके पास राजा का एक दरबारी पहुँचा। उसने चित्रकार से कहा- "देखो, मेरे कान छोटे हैं। पर चित्र में मेरे कान छोटे नहीं दिखने चाहिए।"
उसके जाने के बाद एक दूसरे वृद्ध दरबारी ने आकर चित्रकार से कहा- "बन्धु, मैं अब बूढ़ा हो गया हूँ लेकिन जब महाराज की सेवा में आया था तब मैं युवा था। चित्र में मुझे युवा ही दिखाना।"
थोड़ी देर बाद एक और दरबारी सकुचाते हुए वहाँ आया और बोला- "देखो, अभी मेरा पेट निकल गया है। चित्र में पेट इस रूप में न आए तो ठीक रहेगा। शरीर का क्या भरोसा, वह तो बदलता रहेगा, पर चित्र तो हमेशा रहेगा।"
इसी तरह कई दरबारी आए और सबने अपनी कोई-न-कोई कमजोरी छिपाने का अनुरोध किया।
दूसरे दिन चित्रकार ने चित्र बनाया तब उसे देखकर राजा हैरान रह गया। उसने कहा- "मेरा चित्र तो तुमने सही बनाया पर दरबारियों के चेहरे पर मुखौटा क्यों लगा दिया है।"
चित्रकार ने राजा को सारी बात बताते हुए कहा- "महाराज, मैं क्या करता? कोई भी दरबारी अपने असली रूप में नहीं दिखना चाहता था।"
राजा ने कहा- "सच है, हम दोहरा जीवन जीते हैं। अन्दर से कुछ होते हैं पर ऊपर से कुछ और दिखना चाहते हैं। हालाँकि अलग दिखने से कुछ मिलता नहीं है पर लोग समझ नहीं पाते।"
यह कथा यही समझाती है कि अपनी असलियत छुपाने से कोई लाभ नहीं होता। जो जैसा है, उसे वैसा ही स्वीकार करने में किसी तरह की शर्म नहीं होनी चाहिए।
स्वयं की कमियों को दूर करने के स्थान पर मनुष्य शार्टकट अपनाता हुआ अपने चेहरे पर मुखोटे लगा लेता है। एक समय ऐसा आता है जब वह अपने असली चेहरे को ही नहीं पहचान पाता।
जैसा मनुष्य है यदि वह सबके सामने सदा वैसा ही दिखने का प्रयास करे तो उसे किसी मुखोटे की आवश्यकता नहीं रहती। न ही उसे अपनी कलई उतरने का डर सताता है। वह स्वभाविक जीवन जीता है। अपनी असलियत को न छुपाते हुए यथासम्भव अपना असली चेहरे में ही रहना चाहिए। तभी मनुष्य निर्भय होकर जी सकता है।
चन्द्र प्रभा सूद