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6 नवम्बर 2023

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घुमंतु छुटपन भाई जी को लगने लगा कि यह भौतिक संसार प्राचीन काल में भी जनश्रुति द्वारा सुदूर प्रान्तों (देशों) की सूचनाएं प्राप्त कर पैदल या पशुओं के सहारे लम्बी-लम्बी दूरी की यात्राएं कर अन्य देशों-जातियों-समूहों - धर्मों - उल्लेखनीय घटनाओं -कहानियों विवरणों, युद्धों से जुड़ा तो रहा परन्तु इस आधुनिक युग सम (विशेषतः बीसवीं ईक्कीसवी शति सम) उन्नत नहीं था तीव्र नहीं रहा। आज मानव पशु-पक्षियों की भाँति स्वयं में सीमित रहने वाला प्राणी नहीं - एक सामाजिक जीव है तो अपने व परिवार के अतिरिक्त पूरे विश्व को जानने की इच्छा रखता है और भ्रमण भी करता है व कभी-कभी सुदूर देश जा कर कुछ वर्ष के लिए ही सही, जा बस जाता है: यह सब जिज्ञासा - उत्सुकता नामक वृतियों से होता है इसी कारण मनुष्य अपनी वृतियों की तृप्ति के लिए उपयोगी साधन खोजने में व्यस्त रहा है और परिणाम विज्ञान के आविष्कार है समाचार पत्र है दूरदर्शन, चल - दूरभाषा, चलचित्र व रेडियो आदि है यूं विज्ञान ने विश्व को एकदम परिवर्तित कर दिया है या यूं कहें कि एक बड़ी हलचल मचा दी है नित्य नव अविष्कारों ने कल्पित कथाओं को प्रत्यक्ष करके दिखलाया है (जादुई कार्यों को) आकाशवाणी को मूर्त रूप दिया हैं देव लोक को भी लांघ कर आज अन्य ग्रहों, ब्राह्मांडों में अन्य जातियों के जीवन की संभावनाओं को खंगालने लगा है। और अपनी बुद्धि पूर्ण अनुसंधानों से कभी वह भी कर लेगा; इस संभावना से इन्कार नहीं कर सकते, आज आधुनिक तकनीक युक्त भव्य पुस्तकालयों की तो बात ही क्या जो सरस्वती के आराधना मंदिर है जहाँ अंध विश्वासों की कलई खुल जाती हैं ज्ञान के दिव्य आलोक का प्रस्फुटन होता हैं ज्ञान चक्षु खुलते है मानसिक शक्ति हर काई को काटकर दीप्त हो उठती हैए नव सभ्यता का रवि आँखें चुँधियाने लगता है व मानवीय संस्कृति के वैभव - विराटता -आलौकिक जीव होने का आलोक प्रस्फुटित होने लगता है: मनुष्य उन्नति के राजमार्ग पर खड़ा दिखता है जब विश्व के किसी कोने में रखी पुस्तक को कहीं भी बैठ (पुस्तकालय में भी ) पढ़ सकता है या प्रत्यक्ष बातचीत भी कर सकता है चर्चाएं आदि भी संभव रहती है यूं पुस्तकालय पहले से ही महान पुरूषों की साधना स्थल रहे है व उन्होंने दिल खोलकर इन पवित्र मंदिरों की सराहना भी की हैं, तिलक जी ने कहा, मैं नरक में भी उत्तम पुस्तकों का स्वागत करूँगा। पुस्तकों में वह शक्ति है कि वे जहाँ भी होंगी वहीं आप ही स्वर्ग बन जाएगा। रस्किन अनुसार उत्तम पुस्तकें राजकीय कोष हैं- स्वर्ण, चाँदी, जवाहरात के नहीं अपितु ज्ञान व बुद्धि के विचार व भावनाओं के कल्पना और कला के उनमें युगों के संचित उच्चतम विचार, सुंदर कल्पनाएँ । विशिष्ट अनुभूतियां एवं अनुपम तर्क सुरक्षित हैं।
किसी पुस्तकालय में पहुँचकर हम एक अत्यंत उच्च लोक में पहुँच जाते हैं व कोतूहल भरी जादुई दुनिया का विचरण करने लगते हैं जिससे हृदय विशाल होती हैं तथा आत्मा की उन्नति होती है, मास्तिष्क जाग्रत होता हैं व इनिद्रयां निष्कलुष हो जाती है। एक अन्य अंग्रेज कवि ने कहा कि पुस्तकें मेरा कभी साथ न छोड़ने वाली मित्र हैं जिनसे मै प्रतिदिन बातें करता हूँ । एक अन्य विद्वान अनुसार वह देश मृत्यु तुल्य है। जहाँ साहित्य नहीं है प्राय: विपुल साहित्य पुस्तकालयों में ही उपलब्ध होता है, धनी - से- धनी व्यक्ति भी सभी विषयों की पुस्तकें खुद खरीद कर नहीं रख सकता जबकि कुछ दुर्लभ/अप्रात्य ग्रंथों के दर्शन भी बड़े पुस्तकालयों में सुलभ होते है वही मूल पाण्डुलिपियां भी प्राचीन पुस्तकालयों देवालयों के पुस्तकालयों में देखी जा सकती है जिनसे ज्ञान -प्रसार संभव होता है । निस्संदेह पुस्तकों से एक नवीन चेतना, एक नव स्फूर्ति-जागरण उफनता है और कुवासनाएँ मिटने लगती हैं, कुसंस्कार समाप्त होते हैं व अज्ञान का नाश संभव होता है, वहीं व्यक्ति के अतिरिक्त समग्र समाज का भी हित होता है जनता अपने अधिकारों के प्रति सजग होने के अतिरिक्त आंतरिक उत्थान का भी वरदान पा जाती है, अभी भी देहातों में चाहे पुस्तकालयों का अभाव हैं फिर भी पुस्तकें अपनी पहुँच हर जगह दिखलाती आई है और पराधीनता काल में भी ग्राम्य क्षेत्रवासियों ने मिलजुल कर कंठस्थ कर ( कुछ-कुछ पृष्ठ या खंड) बचाकर आक्रमणकारियों से आक्रांतीओं से छुपा कर काफी पुस्तकें वर्तमान तक पँहुचाई हैं व अभी भी लंदन बाजार में भारतीय भू की कुछ अनुपम जानकारी लिए पुस्तकें देखी गई हैं जिन्हें यहां लाकर पुन: प्रकाशित व अनूदित करने की आवश्यकता है सर्वाधिक गौर करने की बात यह है कि प्राचीन काल से ही धर्म ग्रंथ मानव सभ्यता की दिग्दर्शन करते आए है और आज भी कर रहे हैं चाहे लोग हठवश आपस में लड़ते भी बहुत हैं जबकि जिन संतों के संदेश पूरे विश्व पूरी मानवता के लिए थे, सीमित क्षेत्र वर्गों के लिए नहीं पर अंध - भक्ति या सतही ज्ञान के कारण अनुयायियों ने उन्हें संकुचित कर दिया और कहीं-कहीं तो बाह्य आडम्बरों निजी आजीविका या अर्थ-यश उपार्जन अथवा राजनीतिक लाभ उठाने हेतु धर्म की भ्रामक व्याख्याएं कर दी जिस का सिलसिला आज भी जारी है जो कि कत्लोगारत को अंजाम न केवल धर्म के नाम पर युवाओं आदि की सोच संकुचित या कुंठित कर (बाल्यावस्था से ही ) उन्हें स्वर्ग आदि का प्रलोभन दर्शा अपितु मरने-मारने के कार्य में लगाया जाता है कि निज हित सध सकें पर मानव जन्म का उद्देश्य उपयुक्त समग्र सुविधाओं के बाद भी संभव नहीं जान पड़ता क्योंकि मुक्ति मार्ग तो स्वंय ईश्वर दूत द्वारा प्रशस्त करने का नियम है जिस तक पहुँचनें के उपर्युक्त उपादान हैं।
एक सत्संग प्रेमी उम्रभर इन जानकारियों सत्संगों, प्रवचनों, मंत्रों को ग्रहण कर अपेक्षा करता था कि मुमुक्षा की राह मिल जाएगी या वह कथावाचकों बड़े-बड़े पंडाल लगा कर प्रवचन करने वाले संतो महात्माओं या गुफाओं कन्द्राओं में भक्ति करने वाले योगियों से कुछ सूत्र प्राप्त होंगे या सत्संग करने वालों व निरन्तर कुछ मन्त्र साधने वालों से भूल मन्त्र प्राप्त हो जाएगा जो कि जीवन की ढलान आने तक भी पूर्ण होता नजर न आता था फिर वह प्रियजन के आकस्मिक निधन से अति खिन्न, उदास रहने लगा व उस सत्संग प्रेमी का जैसे स्वयं मालिक ने मार्ग प्रशस्त करते हुए एक पूर्ण संत के पंडाल की ओर जाने की प्रेरणा दी उससे पूर्व भी वह सत्संग के महत्व से तो पूर्ण परिचित था व महान संत तुलसी दास का कथन भी जानता था कि सत्संग वह पारसमणि है जिसके स्पर्श मात्र से बुरे-से-बुरा व्यक्ति भी महान हो सकता है, यह वह शक्ति है जिसके समक्ष संसार की समग्र सम्पदाएं नत हो जाती है जिसके सहयोग मात्र से मनुष्य देव - पद पर सरलता से पहुँच सकता है। मानवीय जीवन निर्माण में उन्नति में सत्संग का बड़ा हाथ रहता हैं, डाकू बाल्मीकि सत्संग से ही महर्षि बन सके। कालिदास को कवि-कुल-कल्पतरू बनाने का श्रेय भी सत्संग को दिया जाता है वानर हनुमान की पूजा श्री राम के सत्संग के कारण होती है व उसी के प्रताप से अर्जुन महाभारत में विजयी हो सके : वर्तमान काल में भी ( कलयुग में भी ) कुदरत का वही नियम लागू है व उनेक उदाहरण उपलब्ध है परंतु इस क्रम सत्संग के विविध प्रकार सामने आते है जैसे पुस्तकों का अच्छे / सुजन का हजारों वर्ष पूर्व के विद्वानों के विचारों का स्वाघ्याय द्वारा सही पुस्तकों का यानि सत्संग आत्मोनति की प्रथम सीढ़ी तो है मनुष्य का भविष्य बहुत कुछ उसके विचारों पर योजनाओं पर निर्भर करता है और फिर उपजे वातावरण पर भी मित्रों पर भी जीवन रूपी सागर पार करने हेतु सत्संग रूपी दृढ़ पतवार की उसी प्रकार आवश्यकता होती है जिस प्रकार नौका चलाने के लिए पतवार जरूरी है परंतु कबीर दास कहते हैं कबिरा संगति साधु की हरे और की व्यधि / संगति को सभी सत्संग मानने का चलन रहा है परंतु हमारा अभीष्ट मुक्ति परक सत्संग से है जिसका जिक इसी खंड में प्रारम्भ में किया कि जैसा प्रयोजन था उसी की प्राप्ति को इंगित करता ही ऐसा सत्संग (संतमत ) इस सतसंग प्रेमी को कब कैसे प्राप्त हुआ चमत्कार सा था, वह हरियाणा के सिरसा के सिंकंदर पुर डेरे के सत्संग से अवगत तो पहले से ही था कि राजमार्ग पर जाते हुए असंख्य वाहन खड़े देखता था पर वास्तविक महत्व का पता न था, अब की बार स्वयं पंडाल पहुँचने का अवसर था इस से पूर्व प्रारम्भिक मित्र जन - मन न अस्तिबोध सुबोध राय सम अंतरंग - अभिन्न जन - सदा अग-संग से उसे रिश्तेदार की दुकान पर (शोरूम) सूरतगढ़िया चौक आ बैठ गए और यहाँ की व्यवस्था भावनाएं, अनुशासन, सेवा भाव और उससे भी अधिक निज भीतर आलोकिक शांति व सात्विक भावों का संचार स्वतः स्पष्ट कर रहा था कि आत्मा यहाँ ठीक जगह आ कर प्रफुल्ल है पूर्ण संतुष्ट है भीतर से रोम-रोम प्रकट कर रहा था कि जन्मों की खोज यहाँ पहुच कर पूर्ण हो रही है अर्थात यहां पहुचनें से पूर्व जितनी भी भक्ति की थी कितने युग लगाए वह कारगर सिद्ध न हुई यहाँ किसी को किसी प्रकार की शंका भी न बची थी कि सही स्थान नहीं है अपितु आंतरिक अनुभूतियों से रोम-रोम पुलकित हो प्रकट कर रहा था कि यही वास्तविक सार्थक-सफल जन्म है जिसमें सही मिलन के संकेत भरे पडें थे रह-रह प्रकट हो बरस रहे थे जन-जन आम जन से भिन्न भाव वाले थे । यहाँ से बाहर अपने कार्य स्थलों पर व कुछ भी हों (जबकि भिन्न होने की ही प्रतीति हो रही थी) यहाँ तो वे सेवा भावना से यूं मतवाले थे कि कुछ भी करने से पीछे हटना तो दूर बढ़-चढ़ कर आंतरिक श्रद्धा भाव से सब करते ही जा रहे थे व दिन-रात एक कर रहे थे । उन दिनों पुराने भवनों को जो कि मजबूत बहुत थे परंतु नव आवश्यकताओं के अनुसार गिरा कर पूर्णत: नव निर्माण व परिष्कार की जरूरत दर्शा रह थे का भव्य विस्तार अपेक्षित था, उस कठोर श्रम वाले कार्यों को भी नगर के कुछ सेवादार अल सुबह आकर यथा संभव तोड़-फोड़ का कार्य सम्पन्न कर फिर अपने गंतव्य / कार्य- स्थलों की ओर चले जाते थे। बाहर से आए सेवादार विभिन्न दलों में बाँट जत्थेदारों सहजत्थेदारों के नेतृत्व में चार-चार घंटे की पारी द्वारा चौबीसों घंटे डयूटी करते व फिर अपने-अपने तम्बुओं में जा कर विश्राम करते अथवा गपशप या कभी कुछ उत्साही - पुराने सेवादार अस्पताल की कैंटीन से जा कर कुछ मिष्टान्न ले आते और सब प्रसाद मान बड़े आनन्द से खाते इस सत्संग प्रेमी को दूर से तम्बुओं की पांतियां देख लगता यह सब हो बाबाजी की फौजें हैं जो हुक्मानुसार जा लड़ा कर अपना-अपना कार्य अच्छे से सम्पन्न करने का प्रयास करती हैं; ऐसा आंतरिक भावनाओं के चलते ही होता है अन्यथा भण्डारों, सत्संगों उपरान्त आमतौर पर सार्वजनिक स्थानों में अव्यवस्था का आलम, सामग्री पर्याप्त होने पर भी छलकता है। जब कि यहाँ पौने दो लाख की संख्या में आने वालो को मेहमान सरीखा अनुभव होता है सेवादार कभी कोई थकान नहीं दर्शाता प्रायः किसी वस्तु का अभाव नहीं आता बल्कि प्रसाद स्वरूप परिवार के परिवार अपने नगर/घर ले जाने हेतु भी बाँध-बाँध ले जाते है परन्तु यह सब तो बाह्य बातें है ऊपरी या स्तही है चाहे व्यवस्थित इस लिए है कि पूर्ण गुरू की इन सब पर कृपा दृष्टि हर समय टिकी रहती है खबर रहती है कि कब कौन नया पद ग्रहण कर रहा है और नव जन क्या सेवा कैसी कर रहा है कि वे आ आ किसी बहाने उसे दर्शन दे जाते है जो कि प्रभु दर्शन ही माने जाते हैं जिससे पाने वालों के न जाने कितने पाप कट जाते हैं पर मूल मुद्दा तो आंतरिक भक्ति का आता है कि वह गुरू कब कैसे समझाता है और आत्मा को किधर कैसे ले जाने को बताता है यह जिज्ञासु पर्याप्त पढ़ा-लिखा अनुसंधित्सु भी रहा तो शीघ्र सब बात समझ, अति प्रफुल्लित हो जाता कि कितना सौभाग्यशाली है जो अंतत: सही मुकाम बुढ़ापे से पूर्व ही पा गया है या कम-से-कम उसके समीप तो आ गया है वहां ध्वनित एक-एक बात सीधे हृदय-पटल को स्पर्श करती प्रतीत हो रही थी कि प्रवचनानुसार स्पष्ट था जैसे गंदला पानी जब गंदगी छोड़े बादल बनेगा तब सागर का जल बनेगा- गुरू भी सागर की लहरों समान होता है जब लहर उठती है तो विराट रूप धारण करती दिखाई देती है फिर शांत हो पुन: सागर रूप में लक्षित होती है - उस लहर के सम्मुख किनारे पे जो वस्तु रख दी जाए उसे ले वह सागर में समाती है - ऐसे ही गुरू भटकती रूहों को हाथ पकड़ प्रभु में विलीन करते आए है - लेकिन बाधा यह कि जीवात्मा शीघ्र गंदगी / मैला नहीं छोड़ पाती क्योंकि संसार से संपर्क हेतु आत्मा को मन का सहारा लेना पड़ता है जिसे इन्द्रियों ने जकड़ा होता है और हमारी आत्मा को मन जकड़े रहता है फल तो मन को भी भोगना ही पड़ता है - अत: आत्मा का उबरना हर तरह की प्रचलित भक्ति करने बाद भी उबरना संभव नहीं जब तक सद्गुरू उसे कर्मों के बंधन से सांसारिक भोलेपन से नहीं उबार लेती - इस क्रम में अच्छे-से-अच्छे कर्म परोपकार भी आत्मा को मुक्ति दिलाने में काम नहीं आते क्योंकि उसके उपरांत, फलस्वरूप जो जन्म मिलते हैं - राजा के, स्वर्ग या वैकुंठधाम, देवयोनि आदि वे सब भोग योनियां हैं तदोपरांत पुन: भूमि पर आना पड़ता है- मुक्ति तो केवल शब्द रूप में निहित है - प्रभु का मूल स्वरूप नाम / शब्द में निहित है उसी से गुरू जोड़ता है व युगों के बंधन तोड़ता है, अतः नाम - शब्द की भक्ति ही असल भक्ति हे - जीव तो अपने दुःखों का हिसाब चुकता करने में असमर्थ होता है गुरू कृपा कर के उसे दुःखों से मुक्ति हेतु अपना गुरूमंत्र दे कर जप करवाकर उसे मुक्त करवा ले जाता है व सतनाम के समुद्र से मिलवाता है जिससे गुरू की दया व प्रेम-प्यार की भूमिका बड़ी रहती हे मनुष्य की पृष्ठ भूमि में पापों की भरमार रहती है वह अपनी इच्छा से या भक्ति से उनसे ही नहीं उबर सकता पर कष्टों में देख गुरू युक्ति से उसे उबार सकता है यदि जीव उसके कहे अनुसार कुछ करता है - वह इतना दयालु है कि जीव पूरी तरह न कर पाए पर इच्छा दिखा कुछ को शिश करता नज़र आए तो भी सहायता करता है व कभी-न-कभी उबार भी लेता है
प्रायः सत्संगकर्त्ता संत अत्यंत परोपकारी ही होते है - वे संसार के सत ही मामलों में बड़े खुश्क हो सकते हैं परन्तु अंदर से अति निर्मल-स्वच्छ ही होते हैं। प्रकृति जैसे स्वयं सब झेल कर भी जीवों का पालन-पोषण करती है उसी तरह संतजन भी करते हैं - वे अन्यों के कष्ट भी अपने ऊपर ले लेते हैं क्योंकि प्रारब्ध के कर्म टाले तो जा सकते हैं पर अंतत: भुगतान तो करना पड़ता है अत: वे उन्य जीवों पर दया - मेहर कर सब अपने जिस्म पर भी ले लेते हैं कि उन्हें तो जीव उबारने का दायित्व हर हाल में पूर्ण करना होता है। संत विषय-विकारों से भी निर्लिप्त रहते हैं - शील-सद्गुण विवेक की सहरी खान प्रतीत होते है-निज निन्दा स्तुति या सुख-दुःख में भी सम भाव सें रहते हैं चाहे दूसरों के दुःख से दुःखी या सुख में सुखी भी होते हैं वे सदा दयावान भी रहते हैं व नाम - भक्ति में निरन्तर लीन रहते हैं । मन इन्द्रियों को वश में रखकर वे सदाचार के पालन में भी सदा अडिग रहतें हैं व कभी किसी को कठोर वचन भी नहीं बोलते। वे सदा मन-वचन-कर्म से परोपकार में लगे रह एक आदर्श प्रस्तुत कर सब को प्रेरणा देते रहते हैं - यदि कोई उन्हें बहुत बुरा-भला कहे या हर तरह की हानि के अतिरिक्त शारीरिक कष्ट भी दे तब भी दूसरों का कल्याण करना जारी रखते हैं यूं उनका आगमन ही जीवों को रहस्य प्रकट करना, अज्ञान मिटाना, दुःखों से पिंड छुड़ा अखंड : आनंद की स्थिति की ओर ले जाना रहता है - वे किसी धर्म विशेष की बात नहीं करते न चलाते हैं, उनका संदेश पूर्ण संसार के लिए एक होता है व रूहानियत की दौलत का बखान करते हुए बताते है कि हर तरह के मनुष्य में वह समान रूप से विद्यमान रहती है ओर वे केवल उसे जाग्रत करने की युक्ति बताते हुए कोई एहसान भी नहीं मानते/वृक्ष पत्थर मारने वालों को भी फल देते हैं नदी स्नान करने वालों की गंदगी साफ कर स्वच्छ जल देती है- पहाड उसे खोदने वालों को बहुमूल्य रत्न दे देते हैं तो धरा खोदने वालों को अन्न से भर देती है तो संत उन्हें गालियां देने वालों को भी सद्बुद्धि व सद्गति देने का ही प्रयास करते हैं। प्राय: सृष्टि कर्ता के स्तर पर रहते हुए भी वे कभी अभिमान नहीं दर्शाते वस्तुतः सच्चे संत छह विकारों, काम, क्रोध, मोह, लोभ, अहंकार, मत्सर पर विजय प्राप्त कर चुके होते हैं व पूरी तरह निष्पाप, निष्काम, निर्लोभ होते हैं - उनकी खुराक थोड़ी होती है और सत्य ही उनके जीवन का सार होता है - निज प्रशांसा सुनने से संकोच करते हैं औरों की प्रशंसा सुन प्रसन्न होते हैं - कभी भूले से भी सदाचार का त्याग नहीं करते - शास्त्रों, धर्म ग्रंथों के भी पूर्ण ज्ञाता होते हैं और उपदेशों/सत्संगों में इनसे उद्धरण देते हैं जो प्राय: इन्हें स्मरण रहते हैं, काव्यात्मक पंक्तियां तो जैसे रग-रग में दौड़ रही होती हैं उनके भीतर की भावनात्मक अवस्था सब के हृदय को आकर्षित कर नव भव जगत् में ले जाती है और वातावरण में अपूर्व शांति व्याप्त होने लगती है चाहे लाखों श्रोता भी एक साथ क्यों न बैठे हो - वस्तुत: वहाँ स्वयं प्रभु ही संत के माध्यम से स्वयं को व्यक्त कर रहे होते हैं जो कि उनके प्रश्नों के अद्वितीय उत्तरों से भी सुस्पष्ट हो जाता है- तब सब पर यथोचित प्रभाव दृष्टिगोचर होना स्वाभाविक सा ही होता है जिसका प्रमाण सत्संग प्रारम्भ से पूर्ण उनका सब श्रोताओं / आगुंतकों पर दृष्टि पात करना मिलता है कुछ सुधी जन को उनके शरीर से निकलती सुनहरी किरणें भी दिखाई देती हैं जो लाखों की तादाद में सुदूर बैठे जन-जन तक पहँच रही होती हैं। यूं रह-रह कर कष्ट देने वाले सांसारिक जीवन से इतर सत्संग गुरू रूपी शांति सागर में आकर तप्त आंतरिकता को संतों की शीतलता अत्यंत राहत प्रदान करती प्रतीत होती है व उससे बड़ी बात उनके ध्यान - भजन पर बैठोगें तो वे अवश्यक अपने नाम रूपी जहाज में बिठा सचखंड ले जाएंगे तो पुनः- नहीं आना पड़ेगा ।
वस्तुतः सही सत्संग घर की पाकशाला में गुरू दृष्टि पात के उपरांता भोजन परोसा जाता है जहाँ कुविचार जलते है व सुसंस्कार पक जाते हैं चाहे हर युग में हर मत को व्यक्त करते सत्संग घर विद्यमान रहे हैं और आज भी हैं व आज भी पूर्ण सत्य को धारण किए चंद ऐसे सत्संग घर मिलते हैं जो सृष्टिकर्ता की मौजूदगी बयां करते हैं तो स्पष्ट होने लगता है कि यह पाठशाला—आला - निराला का हर रहस्य प्रकट करने वाली ही नहीं, जिज्ञासु रूहों की मिलनशाला, रूहानियत की पाठशाला और दिलों को मतवाला बनाने वाली पूर्ण संत के स्वयं प्रकट हो संग ले चलने का निरंतर हवाला देने वाली हाला है।

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रचनाएँ
रूहानी विज्ञान
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रूहानी विज्ञान (आचार-विचार-9) सदा सहायी, अनंत सुखदायी, सदा रूहानी रहनुमाई; धन आवाजाई से बचाने वाले परम संत बाबाजी (ब्यास) को
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परिचय

2 नवम्बर 2023
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परिचय डॉ. विक्रमजीत जन्म : मार्च 4, 1955 (टोहाना) हरि. शिक्षा : हिन्दी, अंग्रेजी एवं राजनीति विज्ञान में एम. ए. डिप. लिब. एससी, नेट पी-एच. डी. (हिन्दी) डी. लिट. लेखन : पत्र-पत्रिकाओं में रचनाओं का

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अथ् वार्तालाप

2 नवम्बर 2023
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नित्य प्रतीक्षारत धरा जगे सूर्य की उष्मा पाने हेतु अन्यथा समस्त पस्त सा रहे जगत्, वनस्पति जगत को चाहिए धूप - बदरा जो अपेक्षित गतिशील जीवों के संचालन हित- और उनमें से श्रेष्ठ मानव को क्षुधा पूर्ति पश्च

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6 नवम्बर 2023
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सुबोध राय मनमौजी किस्म का अपनी ही तरह का आदमी निकला कि छोटे-से-छोटे ओहदे पर रहते हुए भी तेवर बड़े-बड़े दिखा जाता विशेषतः बड़े आहदे वालों के सम्मुख, जबकि साथी-संगियों के साथ रहता तो ऐसे दर्शाता कि उनसे

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6 नवम्बर 2023
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घुमंतु छुटपन भाई जी को लगने लगा कि यह भौतिक संसार प्राचीन काल में भी जनश्रुति द्वारा सुदूर प्रान्तों (देशों) की सूचनाएं प्राप्त कर पैदल या पशुओं के सहारे लम्बी-लम्बी दूरी की यात्राएं कर अन्य देशों-जात

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6 नवम्बर 2023
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हर तरह के साधु-संतों व धर्मिक स्थानों के सत्संग आदि सुनने के पश्चात मियां लोभ-लाभ जी को भी मध्यम वय में एक पूर्ण संत के सत्संग में पहुँचनें का अवसर मिला तो एक अति भव्य - विहंगम दृश्य अपस्थित हो चौंकान

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8 नवम्बर 2023
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श्री आदी नाथ उर्फ (वस्तुत: व्याधि ग्रस्त अपराधी सम) कि उम्र बीतनेकेसाथ-साथ पापोंका लादान भी बढ़ता ही रहता हैक्योंकि जिन पदार्थो/अनाज़ों पेड़ पौधों या बनस्पति का हम प्रतिदिन भोग करतेहैं वह भी जीवन युक

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6 नवम्बर 2023
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माननीय अपरिपक्व सिंह जी उम्र के उस पड़ाव पर थे जहाँ लोग खुद को बूढ़ा या सठिया जाने वाली अवस्था में पहुँच बतलाने-जतलाने लगते हैं कि व्यवहार में कुछ भुलक्कड़पन, नादानी दिखाने या हैरानी देने वाली बात, हर

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6 नवम्बर 2023
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दु:खी मन राय (विगत खंडों के सभी जन का मिश्रण / व्यक्तित्व) अंत्तः स्वयं को ऐसे मुकाम या मचान के समीप पाता है जहां प्राय: उम्र देखकर तो जिंदगी की ढलान कह देते हैं पर वह अनुभव कहता है कि बाम पर है, मचान

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