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6 नवम्बर 2023

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माननीय अपरिपक्व सिंह जी उम्र के उस पड़ाव पर थे जहाँ लोग खुद को बूढ़ा या सठिया जाने वाली अवस्था में पहुँच बतलाने-जतलाने लगते हैं कि व्यवहार में कुछ भुलक्कड़पन, नादानी दिखाने या हैरानी देने वाली बात, हर पुराना वाक्या कहने में अधिक देर नहीं लगाते और उससे भी शोचनीय अवस्था यह कि उम्र भर के अनुभवों के पश्चात वे स्वयं को विवेकी, ज्ञानवान, सुलझा हुआ, व्यवहार कुशल, सफल, संभ्रांत छवि-वान, लोकप्रिया आदि सब समझते हुए जिस पड़ाव हुए पर हैं, उस बाम पर जो न्यूनतम समझदारी अवश्य होनी चाहिए, उसमें भी रह-रह कमी झलकती रहती कि वह अभिमान वश औरों द्वारा कही गई सही बात पहले तो सुनने को तैयार ही नहीं होते यदि सुन ली तो गुन लेने के कार्य को जल्द या पूरी तरह से नहीं अपनाते कि उसकी विचार भूमि का धरातल इतना सख्त हो चुका होता कि उसमें कुछ नया फँसाने-चिपकाने-लटकाने - लगाने - मनवाने की गुंजायश बहुत कम बची होती है। अपनी अर्जित जैसी भी सफलताएं हों उसे बहुत गुमान होता है कि उसने ज़ीरों से हीरो बन दिखाया, उसने रेत में से तेल निकाल दिखाया - पुश्तैनी आधार विशेष न होने पर भी उसने खुद व परिवार हित में क्या-क्या कमाल नहीं दिखाया या सूझ-बूझ में कब कौन उसे मात दे पाया, भले ही पद वह किसी कारणवश अधिक ऊँचे न भी ग्रहण कर पाया हो और यह क्रम जब उसके ही हित में कोई भक्ति के संबंध में भी बता दे तो उसका भव्य - अतीत-पद-मान्यताएं - धारणाएं, मद व तथाकथित स्वाभिमान आड़े आने लगता कि ज़िन्दगी भर उसने अपने हर कार्य क्षेत्र में कितने धड़ल्ले से सब किया, सिर को कभी नीचा नहीं देखना पड़ा कि अपना काम सदा बखूबी किया और काम-से-काम रखा, कहीं कभी नाक नहीं रगड़ी या चापलूसी नहीं की और इसी क्रम में जो भक्ति, प्रार्थना भजन आदि कभी कर भी लेता तो उसे ही पर्याप्त ही नहीं सर्वश्रेष्ठ घोषित करता गर किसी भी मत आदि से जुड़ा हो तो उसे ही सर्वोपरि घोषित करता, धर्मावलंबी हो तो कहने ही क्या, कितनी ही बहस कर लेना या अन्यों पर आक्रामकता दिखाना आम बात हो जाती यानि जो हमें मनुष्य जाम से पहले निम्न योनियों में (पशु-पक्षियों आदि जीवों) के संस्कार मिले थे कि बात-बात पर गुर्राना, भिड़ जाना, सींग फँसाना, अधिकर जमाना, चीखना-चिल्लाना आदि भी लुप्त नहीं होते। हैरानी तब होती है जब दिन भर के ज़्यादा समय में प्रायः शांत व सामान्य रहने वाले जैसे ही कहीं सार्वजनिक जीवन या स्थल पर या कि दल/महफिलों में बात करते हुए सोच यकायक बदलती प्रतीत हो निज जाति, समूह, धर्म, समाज, देश हित में बदलने लगती और कोई पते की बात परहित में बता रहा हो तो वह भी पल्ले नहीं पड़ती या जानबूझ कर वहम बता पल्ला झाड़ लेते है ।
इन सब न्यूनताओं की तह में शायद हमारा मन है, हम मन के अधीन रहते हैं दुनिया में भी शक्ति- प्रदर्शन द्वारा या अधिक शक्तिशाली राष्ट्र के डर से शांति स्थापित बनी होती जो तभी संभव है जब संसार के सभी जन एक समान आध्यत्मिक स्तर पर इकट्ठे हों । प्रभु एक है वही एक सही बादशाह है। पूरी कायनात का, हम सब को उसे पाना है, जो हम सब के अंदर हर दम मौजूद है, और उसे पाया भी जा सकता है परंतु सफल विरला ही कोई होता है कि हम पस्पर स्पर्धा करते हुए ईर्ष्या, स्वार्थ या लोभ, महत्वाकांक्षाए आदि नहीं छोड़ते - यदि कोई हमारे स्तर का जन कुछ ज़्यादा उपर जाता दिखाई देतो है तो बहुत जल-भुन कर उसे गिराने, पटखनी देने या मिटा देने की इच्छा से भर जाते हैं; हम निज धर्म के मूल सिद्धांत भी भूल जाते हैं जो सब धर्मो का एक है पर मनाधीन होने के कारण हम उसकी तह में जाकर अमल में नहीं ला पाते परंतु कुछ सौभाग्यशाली जीव ऐसे भी होते है जो सच्चाई को जानने पहचानने के पश्चात उसे व्यवहार में ले आते हैं और जीवन चर्या को ढाल कर अपने मन को भक्ति और रूहानी अभ्यास में लगाते हैं और आज भी उसके अनेक उदाहरण मिल जाते है । अतीन्द्रिय दृष्टि यानि सामान्य इन्द्रियों की सहायता के बिना किसी बात को जानने की शक्ति कुछ जन को प्रकृति से मिला एक वरदान होता है इसके बारे में कोई सामान्य नियम नहीं होते, जन्म के समय आत्मा' भूल सुन्न' में से ले जाई जाती है तो कभी-कभी (परंतु बहुत कम ) आत्मा की गति इतनी तेज़ होती है कि उसके कुछ सूक्ष्म गुण पूरी तरह नहीं मिटते जिसके बाद जब आत्मा मानवीय चोले में आती है तो शुरू से ही ' अतीन्द्रिय दृष्टि' के रूप में इसकी विशेष प्रतिभा का परिचय मिलने लगता है इन शक्तियों को प्राप्त करने का केवल यही तरीका है कि रूहानी अभ्यास द्वारा आत्मा पर से ये घने पर्दे उतारे जाएं। सत्संगी जब आंतरिक प्रगति करता है तो उसे ये शक्तियां अपने आप बिना उसके चाहे मिलजाती हैं परंतु इनका प्रयोग करने की सख्त मनाही होती है, बल्कि आदेश है कि वे इनकी उपेक्षा करें व इनकी ओर देखें भी नहीं । गुरूजन इन्हें रूहानी मार्ग में आने वाली 'बनी-ठनी वेश्याएं' कहते हैं जो अभ्यासियों को बहकाकर लूट लेती है। उधर हम लोग पालतू जानवरों के प्यार में भी फँसे रहते हैं तब हमारे प्यार, मोह, घृणा और लगाव ही हमें इस संसार में बार-बार लाते हैं, वही रूप - शक्ल हमें अगले जन्म में मिलता है । मनुष्य के प्रति हमारा मोह और प्यार ही हमारे लिए काफी उथल-पुथल और परेशानियां पैदा कर देता है, उस पर कुत्ते, बिल्ली व अन्य जानवरों के मोह का शिकार क्यों बना जाए। प्रायः विभिन्न लोगों से इस जन्म में हमारे संबंध, हमारी इस समय की इच्छाओं पर नहीं बल्कि पिछले कर्मों पर निर्भर करते हैं। हमें इन संबंधों को सहर्ष स्वीकार करना चाहिए और प्रसन्नता पूर्वक निभाना चाहिए। गर हम रूहानी मार्ग पर चलना शुरू करते हैं और प्रभु तथा उसकी भक्ति की ओर उन्मुख होते हैं तो सारे सांसारिक संबंधों के प्रति हमारी रूचि अपने आप कम हो जाती है, और हम सब परिस्थितियों को ज़्यादा आसानी के साथ सहन कर सकते है ।
प्रारम्भ में सत्संगी के रास्ते में मुश्किलें आती है परन्तु उनसे कोई डर या चिन्ता नहीं होनी चाहिए- भजन को बाकायदा रोज़ वक्त देते रहना चाहिए अर्थात् नियमितता अति आवयश्यक होती है जैसे बच्चे शुरू में किसी तरह सीढ़ियां चढ़ने की कोशिश में बार-बार गिरते-पड़ते व रोते हैं परंतु धीरे-धीरे वे दौड़ते हुए सीढ़ियां चढ़ना सीख जाते है यही हमारा हाल होता है, मन नौ द्वारों के ज़रिए बाहर भटकता रहा है इसी वृति को उलटने में समय लगता है व इसे वापिस केन्द्र पर लाने में काफी कठिनाई का सामना करना होता है । इस क्रम में जब कुछ जन काफी सफल रहते हैं कि यात्रा शुरू कर चुके हैं व अभ्यासी होने लगते हैं तब भी ज़्यादा आगे नहीं जा पा रहे तो गुरू समझाते है कि उनकी बाई ओर के लोक, काल के राज्य में हैं और वह गलत दिशा है और हमारे धुरधाम का रास्ता नहीं है ।
काल के अधीन अनेक मंडल व लोक हैं, वह किसी को भी और खासकर जिसे नाम मिल गया हो या मिलने वाला हो, वहां ले जाने के लिए सहर्ष तैयार है । पर जब वह देखेंगा कि आप अपने धाम की ओर सच्चे दिल से चल पड़े हैं, तो वह आपके मार्ग में ज़्यादा-से-ज़्यादा अड़चनें डालने की कोशिश करेगा। घोड़े का मालिक उसे एक बंद अहाते में खुले घूमने की आज़ादी दे देता है पर जब देखता है कि किसी ने दरवाजा खोल दिया है तो वह तुरंत घोड़े की टांगों में बंधन डाल देता है या उसे बाहर जाने से रोकने के लिए अन्य उपाय करता है इसी तरह जीव जब तक उन लोकों में विचरता है तो काल के अधीन है, तब तक चिंता नहीं करता चाहे जीव कितनी चढ़ाई कर ले, लेकिन जब देखता है कि जीव को धुर-धाम का रास्ता मिल रहा है और वह जेलखाने से निकलने पर तुला है, तो काल उसकी राह में रूकावटें डालने में कोई कसर नहीं छोड़ता नामदान के समय से ही यह युद्ध जीवात्मा से शुरू हो जाता है; पक्के इरादे व वीरता से लड़ना होता है न हिम्मत छोडनी होती है व न मैदान। इस आवागमन के चक्र से छुटकारा पाने में तन, मन व आत्मा के साथ दृढ़ता पूर्वक डट जाना होता है; मान लो संग्राम भीषण है तो पुरस्कार भी अपूर्ण/महान है क्योंकि जीत सुनिश्चित है, काल परास्त होगा - ही होगा कि मार्गदर्शन व रक्षा के लिए सतगुरू हमेशा साथ - खड़ा होता है अत: निराशा व उदासी के लिए कोई जगह नहीं होती उत्साह जरूर बढ़ा होता है, श्रद्धा भाव व विश्वास रूपी अस्त्रों के कारण हर बाधा का चकनाचूर होना निश्चित रहता है बस शर्त यह कि भजन प्रेम पूर्वक नियमित रूप से करना होता जो परमपिता अवश्य दया-मेहर बरसाता है ।
यहाँ उल्लेखनीय है कि हर सत्संगी नाम लेते समय पवित्र, नैतिक जीवन बिताने की प्रतिज्ञा लेता है (स्वत:) अत: हमें विवाहिता के सिवाय अन्य किसी से काम संबंध नहीं रखना होता जीवन साथी से इतर संबंध मानो गुनाह है जो रूहानी तरक्की में अति बाधक होता है ऐसी प्रवृति से मन पतित होकर नीचे गिरता है व अपनी सारी शक्ति खो बैठता है चरित्र हीनता रूहानियत की जड़ काट देती है, सही सत्संगी को तो ऊँचे चरित्र व पवित्र जीवन का आदर्श होना होता है उसे कभी इस प्रकार की कमज़ोरियों का शिकार नहीं बनना चाहिए जहाँ तक किसी अंग के शिथिल होने या सही तरह से कार्य न कर पाने पर भी अभ्यासी को अधिक अंतर नहीं पड़ता कि आंतरिक शब्द-धुन का स्थूल अंगों से अधिक संबंध नहीं ।
शब्द तो मस्तक में धुनकार देता है व हमारी तवज्जुह के आँखों के केन्द्र पर एकाग्र होने पर सुनाई देता है। शुरू में शब्द दाहिने कान से आता हुआ प्रतीत होता है, क्योंकि हमें सभी तरह की आवाज़े कानों से सुनने की आदत होती है हमें बांयी ओर से आने वाली किसी भी आवाज़ की ओर बिल्कुल ध्यान नहीं देना चाहिए ( कि काल की दिशा होती है) जब एकाग्रता बढ़ेगी तो बगैर कानों की मदद के भी शब्द मस्तक के बीच या सिर की चोटी से सुनाई देगी। फिर भी गर बायीं ओर से आवाज़ आती रहे तो शब्द सुनना बंद करके सिमरन शुरू करें, उसी पर जोर दें एकाग्रता में मदद मिलती है। इस क्रम में यदि मक्खी, मच्छर आदि को मारने का सवाल आए तो अपनी सुरक्षा के लिए इन्हें मारना पड़े तो कोई हरज़ नहीं परंतु खेल, तमाशे या मनोरंजन के लिए नहीं मारना चाहिए।
यहाँ प्रश्न उठ सकता है कि सतगुरू प्रभु का स्थान कैसे ले सकता है बाईबल के सेंट जॉन में लिखा है " शुरू में शब्द था, शब्द परमात्मा के साथ था और शब्द परमात्मा था। सभी चीजें उसने बनाई और कोई ऐसी कोई चीज़ नहीं जो उससे न बनी हो।" फिर शब्द देहधारी हुआ और हमारे बीच रहा। अतः सभी पूर्ण संत शब्द के प्रकट देहधारी रूप हैं । उनका असली स्वरूप शब्द होता है हम सब को उनके साथ शब्द में लीन होना होता है शब्द सन्त व सतगुरू में कोई अन्तर नहीं होता है । शब्द जब- जब देह धारण करता है सतगुरू ही कहलाता आया है। यहाँ संतमत से जुड़ने की आवश्यकता पर बल देते हुए गुरू मांसाहार न ही अपनाने का निर्देश देते है कि पशुओं का मांस खाने वाले व्यक्ति के लिए रूहानी एकाग्रता मछली व पक्षी खाने वाले के मुकाबे कहीं ज़्यादा कठिन होगी जबकि मछली- पक्षी खाने वाले के लिए एकाग्रता फल व सब्जी खाने वाल की बनिस्बत ज़्यादा मुश्किल होगी (तत्त्व संख्या की मौजूदगी में अंतर के कारण) अत: रूहानी अभ्यासियों को सलाह दी जाती है कि अपने पोषण के लिए सबसे निचली श्रेणी के जीवन को नष्टकरें । यानि हमें शाकाहारी होने की सलाह देते है। कुछ लोग 'सजीव' व निर्जीव अण्डे में अंतर बताते हैं तो उत्तर मिलता है कि प्रकृति ने अण्डा तो बनाया ही चूजे की पैदाइश के लिए है । अगर बनावटी तरीकों से अंडे में प्राण नहीं आने दिए जाते तो अंडा अन्य श्रेणी का नहीं बन जाता। सवाल यह नहीं चीज़ में खाने के समय जान है कि नहीं बल्कि यह है कि उस चीज़ को प्रभु ने जीवनधारण करने के लिए बनाया था या नहीं : उस वस्तु के जीवन का स्तर या श्रेणी क्या है ? कुदरत के कानून काफी स्पष्ट हैं जो स्पष्ट नहीं वे मनुष्य के प्रयास से स्पष्ट होते जा रहे हैं अतः प्रकृति ने अण्डे को भी उसी तरह जीवन धारण करने का माध्यम बनाया है जिस तरह मुर्गी को अतः अंडा 'सजीव' हो या निर्जीव जीवन को वहन करने का साधन है उत्तेजक आहार भी है परहेज करना चाहिए, ताकि एकाग्रता व प्रभु प्राप्ति के लिए सफलतापूर्वक अभ्यास कर सकें । वस्तुतः पश्चिम की तुलना में पूर्व के लोग खुदी या अहं को नष्ट करके आत्म साक्षात्कार करना पसंद करते हैं, बुलंद / विकसित करके नहीं; तब स्पष्ट हुआ कि दोनों बातें परस्पर विरोधी नहीं है असल में मनुष्य निज सच्ची रूहानी हस्ती तभी पहचानता है जब उसके अहं द्वारा निर्मित मिथ्या व झूठी दीवार ढह जाती है ।
वास्तव में धर्म का आधार प्रेम होना चाहिए, भय नहीं, भक्ति इस डर से नहीं करनी है कि न करेंगे तो कहीं प्रभु हमसे धन, परिवार, सांसारिक पदार्थ, लोगों का प्यार या आदर न छीन ले अथवा कोई और सजा न दे दे। भारत में कुछ लोग साँप की पूजा करते हैं इसलिए नहीं कि उन्हें साँप से प्यार है बल्कि उसके डंक से डरते हैं परन्तु हमें प्रभु भक्ति प्रेम व श्रद्धाभाव से करनी है कि वापस जा उसी में समा जाएं। फारस की एक मशहूर मुस्लिम संत राबया बसरी ने इस भावना को बड़ी अच्छी तरह से प्रकट किया “ऐ खुदा ! अगर मेरे वश में हो तो मै नरक को समुद्र में डुबो दूं और स्वर्ग को आग लगा दूं ताकि लोग नरक के डर से या स्वर्ग की कामना लेकर तेरी भक्ति न करें बल्कि तेरे लिए ही तेरी भक्ति करें। " जब तक हम ऐसा प्यार पैदा नहीं करते, हम प्रभु की सच्ची भक्ति करने में सफल नहीं होंगे। प्रायः संसार से ऊबकर कभी-कभी अकेलेपन की भावना भी हमें प्रभु भक्ति की ओर ले जाती है पर यह पूर्णत: दूर तभी होगी जब हमारी आत्मा वापिस जा उसी में लीन होगी स्थायी सुख, आनंद व शांति तो तभी प्राप्त होगी जब बूंद समुद्र समा खुद समुद्र होगी । इस संसार में हम प्रारब्धानुसार अच्छे बुरे कर्मों का हिसाब चुकाने आते हैं व कर्मों का भार सदा उठाना ही पड़ता है तो न हमेशा सुखी न हमेशा दुःखी रह सकते हैं वह हिसाब केवल मानव जन्म में ही अदा कर सकते हैं, पूरे सतगुरू के मार्गदर्शन से ही इसमें भुगतते हुए हम अपने कर्मों के भण्डार में और वृद्धि करते जाते हैं ।
प्रायः ठगी व बेईमानी आदि द्वारा भी कुछ कमा कर बाल-बच्चों की जरूरतें पूरी करते रहते हैं व यह नहीं सोचते कि जिनके लिए सब करते हैं वे हमारी क्या मदद करेंगें - कोई भी हमारे साथ नहीं जाएगा - पत्नी मर जाए, उसका पति पास बैठा मुँह देखता रहता है या पति मरे तो पत्नी बैठी - बैठी मुँह देखती रह जाती है शरीर तो साथ जाता नहीं तो और क्या जाएगा - बेटे-बेटियाँ, धन-दौलत हमारा ईमान वहीं है। हमारा महबूबे-हकीकी, सच्चा प्रियतम एक सतगुरू है पर रिश्तेदारी भी नहीं छोड़नी होती, उन से कार्य लें-दें लेकिन अन्तर में सच्चा प्यार सिर्फ उस एक परमात्मा या गुरू के साथ ही हो । जब ज़िन्दगी का मकसद निश्चित हो जाता है व उसकी प्राप्ति का साधन भी मालूम हो जाता है तो समझदार व्यक्ति हर अवसर व हर अवकाश की हर घड़ी से लाभ उठाकर अपने लक्ष्य की ओर बढ़ने का प्रयत्न करता है।
वस्तुतः काया वही सुंदर है जिसमें सुरत अपने पति, परिपूर्ण कुलमालिक भाव शब्द या नाम के साथ वास कर रही हो - उस सच्चे पति के साथ मिलाप करने पर इसका सुहाग सदा के लिए कायम हो जाता है, फिर शरीर छूटे या रहे इस बात को कोई चिन्ता नहीं रहती । यह संसार संघर्ष - क्षेत्र है यहां शांति न कभी रही है व न ही कभी रहेगी, आज की समस्याओं में से कल की समस्याएं जन्म लेती हैं । जिस संसार में मन - माया का ज़ोर है वहां कभी शांति नहीं मिल सकती जिसे पाने हेतु आत्मा को रूहानी मजलों की खोज करनी होगी और हर व्यक्ति के लिए असल काम सबसे जरूरी काम भी यही है। दुनिया फकीरों से, माया व भोग पदार्थ मांगती है जबकि फकीर ऊँचे रूहानी मंडलों की यात्रा का तरीका व उसकी यात्रा के लिए सहायता को तत्पर रहते हमें वही मांग कर दुनिया की तकलीफों व आवागमन के चक्करों से सदा के लिए छुटकारा पा लेना चाहिए ।
धर्म मनुष्य के लिए हैं, मनुष्य धर्मो के लिए नहीं - सब ग्रंथ - पुस्तकें मानव के अंदर से आई हैं व असली भेद हमारे अंदर है, किताबों में जिसका उल्लेख है वह भेद नहीं जब तक किसी महात्मा से मार्ग दर्शन पा कर हम अंदर नहीं जाते, उन भेदों को नहीं पा सकते, मनुष्य अपने आप धर्म-ग्रंथ पढ़ता व तत्त्व व्याख्या भी करता है पर स्वंय तत्त्व से वंचित रह जाता है प्राय: बंदा हर इल्म बारे जानता है पर आत्मा जिससे सब विद्याओं की प्रप्ति होती है जिससे मन-बुद्धि का सारा कारोबार चलता है, उसे नहीं जानता । अतः संत कहते हैं कि परायी मजदूरी करके पराए गधे मत बनो, अपना काम करो जो आगे खुद आपके काम आए। इसलिए जिन्हें अंदर जाना हो, पर्दा हटाना हो - प्रभु से मिलन की इच्छा हो यह सब विवरण उन्हीं के लिए है न कि उन हेतु जो इच्छुक ही नहीं ।
संत मंत एक ही करामात में विश्वास रखता है और वह है अनादि काल से जन्म-मरण के चक्कर में फंसी हुई आत्मा को आजाद कर परमात्मा के साथ मिला देना। संत पुन: कहते हैं कि भाई ! तेरे अंदर सूरत है शब्द है ब्रह्म, पारब्रह्म वह खुदा भी, घर में सब कुछ होते हुए तू क्यों भूखा मरता है ! जिसके घर करोड़ों रुपया दबा हो लेकिन कहीं बाहर कोड़ी कोड़ी मांगता फिरे तो क्या उसे सब पागल न कहेंगे ? यही हाल हमारा है गौर चाहिए, यह भी सत्य है कि संतों बिना रास्ता नहीं मिलता वही यहां परमार्थ के बादशाह हैं, 'जो कोई सचखंड गया है अब तक वह संतों के जरिए ही गया है। संत जीवों के पाप भी नहीं देखते, अगर कर्म देखते तो जीव उनके पास फटकने लायक भी नहीं रहते, संत अगर चाहे तो अपनी शक्ति दूसरों को भी दे सकते हैं, वह वचन, स्पर्श या दृष्टि के द्वारा अपनी शक्ति का उपयोग करते आए हैं।

मीनू द्विवेदी वैदेही

मीनू द्विवेदी वैदेही

बहुत ही सजीव लिखा है आपने सर 👌 आप मुझे फालो करके मेरी कहानी पर अपनी समीक्षा जरूर दें 🙏

8 नवम्बर 2023

डॉ विक्रमजीत

डॉ विक्रमजीत

9 नवम्बर 2023

Aap sudhi sahitykar Jaan parti hain,hardik dhanyavad,samajh sakta hun aapka lekhan kitna sarthak hoga,philhal padhne ki

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रचनाएँ
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रूहानी विज्ञान (आचार-विचार-9) सदा सहायी, अनंत सुखदायी, सदा रूहानी रहनुमाई; धन आवाजाई से बचाने वाले परम संत बाबाजी (ब्यास) को
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परिचय डॉ. विक्रमजीत जन्म : मार्च 4, 1955 (टोहाना) हरि. शिक्षा : हिन्दी, अंग्रेजी एवं राजनीति विज्ञान में एम. ए. डिप. लिब. एससी, नेट पी-एच. डी. (हिन्दी) डी. लिट. लेखन : पत्र-पत्रिकाओं में रचनाओं का

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माननीय अपरिपक्व सिंह जी उम्र के उस पड़ाव पर थे जहाँ लोग खुद को बूढ़ा या सठिया जाने वाली अवस्था में पहुँच बतलाने-जतलाने लगते हैं कि व्यवहार में कुछ भुलक्कड़पन, नादानी दिखाने या हैरानी देने वाली बात, हर

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दु:खी मन राय (विगत खंडों के सभी जन का मिश्रण / व्यक्तित्व) अंत्तः स्वयं को ऐसे मुकाम या मचान के समीप पाता है जहां प्राय: उम्र देखकर तो जिंदगी की ढलान कह देते हैं पर वह अनुभव कहता है कि बाम पर है, मचान

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