सुबोध राय मनमौजी किस्म का अपनी ही तरह का आदमी निकला कि छोटे-से-छोटे ओहदे पर रहते हुए भी तेवर बड़े-बड़े दिखा जाता विशेषतः बड़े आहदे वालों के सम्मुख, जबकि साथी-संगियों के साथ रहता तो ऐसे दर्शाता कि उनसे भी गया बीता है, चुस्ती चालाकी या सामान्य जिन्दगी में वस्तुत: वह उसका दुनियादारी समझने का तरीका था क्योंकि वह शैक्षणिक या किताबी दुनिया में ही अधिक रहा था । उन दिनों तक अखबारें रेडियो से गीत-संगीत या कभी कुछ चलचित्र आदि देख लेना ही प्रमुख शगल था । इस क्रम में वह खुद भी काव्य-लेखन की और उन्मुख हुआ व जैसे पूर्ववर्ती कवि आह्लाद-अवसाद दोनों में ही बह कर फूट पड़ा है उसी का कायल था, कि मैं रोया जिसे तुम कहते गाना मैं फूट पड़ा तुम कहते छन्द बनाना । गीत-लोकगीत भावुक व्यक्ति के लिए असाधारण निधि होते है गीत मानव-मन के भाव चित्र होते हैं जिसमें उच्चकोटि की काव्य-रचना के समान ही रस होता है जो भाव जगत् में गोते लगवा अश्रु धारा में भी बहा ले जाता है क्योकि उस वय में व्यक्ति के भीतर भावधरा का प्रवाह या झरना तुरंत फटने लगता हैं । गीत जाति लिंग, वर्ग आदि दीवारों से परे होते है अमीर-गरीब निरक्षर - पंडित सब में प्रसार मिलता हैं, गान तो मानव जगत तक ही सीमित नहीं पशु-पक्षी भी उल्लास अभिव्यक्त करते हुए चिला-चहचहा उठते हैं। लोकगीतों का तो कहना ही क्या हर मौके के लिए है ग्राम्य गीतों में अत्यधिक साहित्य भरा पड़ा है (चाहे रचनाकार अज्ञात है) कि इतिहास ग्रंथ भी नहीं बता पाते। ये हमें संसार के मायाजाल से निकाल आलौकिक - सहज सुख का रसास्वादन करवाते रहे हैं - इनमें प्रत्येक मांगलिक अवसरों पर नारी ने इतना गाया है कि नीरस जगत में नव चैतन्य की सृष्टि की है; नारी की विरह व्यर्थ आनन्द और प्रफुतलता के स्वर भी संगीत व विशिष्ट स्वरों के मेल से अत्यंत मार्मिक जान पड़ते हैं व कभी-कभी अश्रुधार तक ला देते हैं।
"तुम अपना रंजो गम अपनी परेशानी मुझे दे-दो
कुछ दिन के लिए अपनी निगेहबानी......
"अब के बरस मोरे भइया को बाबुल......
कभी तन्हाइयों में यूं हमारी याद आएगी...
अंधेरे छा रहे होंगे बिजली कौंध जाएगी
ओरे माँझी ओ...ओ.... मेरे साजन है
अस पार मै मन मार तू उस पार
अब की बार........... इत्यादि
इनके अतिरिक्त कुछ दार्शनिक गीत ज्ञान की ऊँचाइयां लाँघते तब प्रतीत होते है जब वे रूहानियत की सारी खाइयां लाँघते व आकाश को भेदते आत्मा को ऊपर वाले से एकाकार का सुस्पष्ट संकेत सूत्र प्रदान करने लगते हैं, कभी किसी दृष्टांत के माध्यम से लागा चुनरी में दाग छुपाऊँ कैसे व अंत में रूपक द्वारा स्पष्ट होता है कि काली चुनरी आत्मा मोरी मैल है माया जाल वो दुनिया मोरे बाबुल का घर ये दुनिया ससुराल जाके बाबुल से नजरे मिलाऊँ कैसे लागा चुनरी में इस क्रम में सर्वाधिक प्रभाव शाली बरसात की रात चल चित्र की एक कव्वाली साहिर लुधियानवी कृत प्रतीत होती है प्रतियोगिता में वर्णित इश्क इश्के माशूकीन होकर इश्के -हकीकी वर्णित है यह अंत में यूं उभर कर आ जाता है कि खाक को बुत और बुत को देवता करता है इश्क, इंतहा यह है कि बंदे को खुदा करता है इश्क अर्थात प्रभु के प्रेम से व्यक्ति प्रभु में समाफन्नाह ही नहीं हो जाता अपित स्वयं ही खुदा हो जाता है, जैसे बूंद सागर में समाकर सागर होती है या सूर्य की किरण वापिस मिलन से सूर्य हो जाती है । कई दिल बहलाव के प्रेम गीत / विरह गीत बन पड़े- आरजू से बेदर्दी बालमा तुझको मेरा मन याद करता है लता, तो नीरज का गीत - चलचित्र नई उम्र की नई फसल से कारवां गुज़र गया गुबार देखते रहे न केवल विशुद्ध साहित्यिक है बल्कि स्वप्न भंग का उत्कृष्ट उदाहरण है, बेबसी है, निराशा है, जगत की निष्ठुरता अत्याचार, संसार की निर्ममता की सुंदर अभिव्यक्ति है जो रमानाथ अवस्थी के गीत जिन्दगी और बता तेरा इरादा क्या है? एक हसरत थी कि आँचल का मुझे प्यार मिले, मैंने मंजिल को तलाशा मुझे बाजार मिले में भी दर्द (आंतरिक) को अच्छी तरह उकेरता है कुल मिला कर अनुभव कहता है कि संसार प्राप्ति हमारा मुख्य ध्येय नहीं होना चाहिए चाहे संसार छोड़ कर भागना भी नहीं होता, चित्रलेखा में लताजी का गीत संसार से भागे फिरते हो, भगवान को तुम क्या पाआगे ये पाप है क्या और पुण्य है क्या गीतों पर धर्म की मोहरे है इत्यादि विचारणीय बिन्दु उभारता है हर युग का चलन तत्कालीन वास्तविकताओं अनुसार बड़ा सत्य या युगधर्म का संकेत करता है जीवन रक्षा हेतु कभी मांसाहार अवश्यम्भावी हो सकता है या रूहानियत में भी निज प्राण रक्षा हेतु किसी हिंसक जानवर को मारना अनुचित नहीं कहा जाता परंतु फिर भी कुछ नियम ऐसे होते हैं जो स्वयं प्रभु द्वारा निर्धारित किए गए होते हैं और सांसारिक जमानों के साथ वे बदलते नहीं हैं । स्वाद के लिए जीव हत्या करना-खाना तो पाप ही रहता हैं या प्रभु मिलन का नियम प्रायः कभी नहीं बदलता चाहे किसी सहायता या ढील या दया के कारण छोटी-मोटी राहत मिल भी जाए। अतः मार्गदर्शन हेतु साहित्य की भी आवश्यकता रहती है । जो अनुभूतियों का परिष्कार भी करता है हृदय उदार होता है सतोगुण भी जाग्रत होता है तो काव्यानन्द उठाते है वस्तुत बाह्य व आभ्यान्तर दोनों रूप में सहित्य की जरूरत है कि जीवन को पूर्णता की ओर ले जा सकें। इसी से हमें आदर्श बोध होता है जैसे तुलसी का राम-राज्य सूर का ब्रज देश स्थापित करना / जीवन की कला को भी इंगित करता है नैराश्य से उबार स्नेह प्रेम की फुहार बिखराता है और गंतव्य की और उन्मुख करता है । साहित्य में ही धर्म सम्बन्धी अलोचनाएं भी मिलती हैं जैसे कबीर दास ने किया कि ईश्वर प्रेम द्वारा मानव प्रेम का विकास हो कि केवल मंदिर में मूर्ति के भीतर ईश्वर मानना और मस्जिद के भीतर ही खुदा को स्वीकाना, ईश्वर व खुदा दोनों का ही अपमान है उनके विचार से ईश्वर या खुदा घट-घट व्यापी है व जोर से बांग देना, रोजा रख फिर कुरबानी करना, हज, खतना, सुन्नत आदि की भी निन्दा की, क्योंकि वास्तविक धर्म के वे अंग नहीं। हिन्दू धर्म की रूढ़ियों-आडम्बरों मे मूर्ति पूजा, व्रत, तीर्थ तिलक, माला आदि को व्यर्थ की बातें कहा संगठन में पड़कर मनुष्य वास्तविक मार्ग से बहक कर कुमार्ग पर भटकता है अतः जो बातें साधन होती है वही साध्य बन बैठती है तब वह धर्म नहीं रहता अतः बाह्याचारों से बचने को कहा व कबीर ने हर आडम्बर की निंदा को तो कबीर व्यक्ति व समाज के आचरण का एक आदर्श लेकर चले व उस आचरण की परिणति की अनुभूति उन्हें हो चुकी थी तभी उस युग में भी इतनी प्रखरता से वे यह सब कह सके उनकी निर्भीकता के पीछे पूर्ण सच्चाई रही। वास्तव में विश्व का निर्माण कर्तव्य और अधिकार के ताने-बाने पर टिका है समाज भी जो कुछ वस्तुओं की पूर्ति की अपेक्षा रखता है जो पूर्ण करना सामाजिक मर्यादा रहती है गर हम इस कर्तव्य प्रति उदासीन हो जाते हैं तो समाज भी हमे उपेचित कर देता हैं मनुष्य जीवन मूलत: कर्तव्य पालन पर ही आधारित हैं, राजा का प्रजा को सुख-समृद्धि से पूर्ण करना, नागरिक का देश उन्नति में हाथ बंटाना पुत्र का माता - पिता शिष्य का गुरू, बडे भाई का, भाई-बहिन, मित्र का मित्र, मनुष्य का ईश्वर के प्रति कुछ कर्तव्य है जिसने उसे जीवों की श्रेणी में सर्वोपरि स्थान दिया, वस्तुत: हमें उसकी प्रथमत कृपा से कठिनाई से यह जन्म मिलता है फिर द्वितीय कृपा किसी सही संत गुरू से मिलाप की हो सकती है व अंतत: नाम दीक्षा रूपी बडी कृपा मानी जाती है जिसे मान कर इन्सान स्वयं भगवान बन सकता है परन्तु मनुष्य तो सांसारिक कर्तव्यों का ही वहन भली-भांति नहीं करता; कर्तव्य होता है कि देश में शांति से रहे व दूसरों को भी रहने दे; स्वयं जिए व औरों को भी जीने दे पर सच्चाई यह कि अन्तरराष्ट्रीय स्तर पर कुछ देश हथियार बेचने का कारोबार चलाए रखने हेतु देशों को लड़वाए रखते हैं ।
कर्तव्य का सच्चाई से पालन करने का अर्थ यह कि वह व्यक्ति समाज की नींव को मजबूत कर रहा हैं। समाज के पौधों को अपने कर्तव्य रूपी खाद से पोषित कर रहा है जबकि उससे व्यक्ति खुद भी बहुत लाभ में रहता है, कर्तव्य पालन इन्सान के महान बनने का आधरभूत सोपान है लेकिन भगवान को भूल वह उसे लूट व भोग का सामान समझता है, कफनों का व्यापार करता है जिससे शांति ही भंग नहीं होती पूर्ण मानवता रूपी परिवार बिखरता है। सदियों को खपा कर जो उन्नति हासिल करता है उसे बिखरा कर मानवता को पुनः सदियों पीछे धकेलता है। उल्लेखनीय है कि प्रत्येक महापुरूष कर्तव्य निष्ठ हुआ है कि कर्तव्य पूजा की स्वार्थ की नहीं। राम की पूजा अनके कर्तव्य पालन के कारण होती है। भीष्म, कृष्णव अर्जुन को भी कर्तव्य विमुर्खन होने पर आज कौन नहीं जानता, सीता, सावित्री, कुन्ती आदि आर्य ललनाए भी अब कर्तव्य पथ से विमुख न होने के कारण स्मरणीय हैं, आराध्य हैं, प्रभु हमारी देख-रेख हर समय करते हैं एक क्षण भी विमुख नहीं अतः पिता संतान से कभी बात करने की अपेक्षा करे या स्मरण चाहे तो क्या सदा सब कुछ लिए जा कर गटागट खाए-पिए जाने वालें बंदे का कर्तव्य नहीं कि वह भी कभी उसके ध्यान में बैठ जाए ? वह तो प्रतीक्षरत रहता है संतान प्रेम में कि मिले आए कुछ बतियाये तो सही परन्तु नहीं आलस्य, समयाभाव या आदतन आदमी सब कुछ जान समझ कर या अहंकारवश या निज मान्यताओं को सर्वेपरि मान ऐसे-ऐसे कुकृर्त्य करता है कि पिता की भी रूह काँप जाए और यह नहीं समझता कि उसकी व्यवस्था में किसी चूक का कोई सवाल नहीं, उसके यहाँ हर क्षण का रिकार्ड रखने-हिसाब-किताब को लागू करने की आचूक व्यवस्था है फल भुगतान ही फिर उसका हल है जिससे बंदा कभी बच नहीं सकता पर तुरंत न मिलने के कारण बंदा इस भ्रम में रहता है कि फिलहाल तो वह सुख भोग रहा है व यह नहीं समझता कि आगे दुःखों का अम्बार भी उसके लिए पहाड़ रूप में तैयार हो रहा है।
उपर्युक्त तमाम समस्याओं की तह में जो मुख्य बात है वह है सुमति की यानि अच्छी मति, रोजमर्रा में गौर करें तो जहाँ सुमति वहा सुख - सम्पति की कोई कमी दिखाई नहीं देती पर संसार में तो कुमति का बोल बाला है अत: सुख-शांति के स्थान पर अनेक प्रकार के दुःख कलह एवं विपत्ति अशांति उत्पन्न करती है जिससे शक्ति का हास होता है बुद्धि कुंठित रहती है उन्नति रूकती है पतन अवश्यम्भावी हो जाता है। जब कि सुमति जनित सम्पति से मतलब केवल धन-दौलत न होकर अर्थ व्यापक है जो कि राष्ट्र - समाज के लिए अपेक्षित समस्त पदार्थ हैं इसके अतिरिक्त भी यह वह है जिसे कोई चुरा नहीं सकता, जलगला नहीं सकता, अग्नि जला नहीं सकती अतः सुमति - मानव भव सागर का कल्पवृक्ष है जिसके नीचे आने पर भव की सारी बाधाएं से हट जाती हैं, कट जाती हैं व वह सुरसरि है जिसकी धारा में ईर्ष्या, दोष, कलह, बैमनस्य आदि दुर्गुण स्वयं धुल जाते है । यह वह काम धेनु है जिसे सद्भावना, सहयोग सफलता एवम् सुख आदि दैवीय गुण अनायास प्राप्त हो जाते है। स्पष्ट है कि सफल वही होता है जो निज संकुचित भावों का त्याग कर देता हैं महान वही हो सकता जो “मै अस मोर तोर तै माया " को भुला देता है और यह भावनाएं सुमति द्वारा ही संभव हैं, इसी से परमार्थ भाव जगता है, फूट को मार भगाती है। स्वार्थ का दानव मरता है संघर्ष समाप्त हो जाता है व विकास पथ प्रशस्त होता है; जहां सघर्ष नहीं वहा दोष नहीं तब सहज सुखशांति बढ़ती जाती है जिससे दैहिक, दैविक व भौतिक सभी प्रकार के सुख सुलभ हो जाते है ।
वास्तव में संसार में परोपकार से बढ़कर कोई धर्म नहीं माना गया संत व असंत में क्या भेद है? अच्छे-बुरे में क्या अंतर है? एक व्यक्ति पर - उपकार के लिए अपनी बलि देता है तो दूसरा किसी की समृद्धि से जलता है, इस माया मय जहां में मनुष्य जन्म जो दुर्लभ अवसर है उसमें परोपकार से बड़ा कोई अन्य साधन न हो। इसका जन्म सहानुभूति से होता है किसी का दुःख न देख पाना, उसके प्रति करूणा की धारा का प्रवाहित हो जाना, यहाँ सुख : - दुःख के ताने-बाने में मनुष्य - मनुष्य में भले ही घनिष्ठता उत्पन्न न हो, किन्तु दुःख की धारा में सभी के हृदयों को समीप लाती देखी गई है, शायद मानवता इन्हीं भावनाओं पर टिकी चली आती है, समाज के सुसंचालन हेतु हृदयों में ऐसी भावनाओं का होना अति आवश्यक भी है।
संसार में प्रायः परोपकारी ही अधिक उन्नति करता है, स्वार्थी नहीं । यह संसार खुद चाहे कितना स्वार्थी हो पर उपासना / प्रशंसा आदि परोपकारी की ही करता है, परोपकार से तो पशु-पक्षियों तक को आकर्षित किया जा सकता है, यह वह पूंजी है जो मानव चरित्र की समृद्धि का सूचक है और वह निधि है जिसकी प्राप्ति पर कोई भी व्यक्ति महान बन सकता है: यह वह भाव है जो हृदय को विशाल बनाता है, मानवता का कल्याण परोपकारी भाव से ही संभव होता है इसकी शिक्षा तो प्रकृति का प्रत्येक पक्ष / अंग देता रहता है, मेघ वर्षा स्वयं के लिए नहीं करते, फल वृक्ष खुद नहीं खाते नदियां अपना जल नहीं पीती तो गाय भी निज दुग्धपान नहीं करती । फिर यह सब तप किस लिए किसके लिए - ज़ाहिर है औरों के परोपकार के लिए प्रकृति सीख देती है अरे सृष्टि के पंचभूत परोपकार में निरन्तर लगे हुए है तू भी कुछ परोपकार से जुड़-रहीम कहा सज्जन तो सम्पति संचयन परहित ही करते हैं वास्तव में मनुष्य की संपूर्ण संपदा ही परोपकार के मंत्र में निहित हैं ज्ञानीजन जिसके जाप में सर्वदा तल्लीन रहते हैं इसमें अनेक लाभ ही छुपे हैं इससे लोक-परलोक दोनों संवर जाते हैं, जनता का दिल जीतने के साथ ही देवगण प्रसन्न कर लेता है परोपकार और सम्मान प्राप्ति के तो कहने क्या ख्याति भी चिर स्थायी रहती हैं, सार यह कि परोपकारी अमर रहता है राम-कृष्ण-बुद्ध उदाहरण हैं, मृत्यु के सहस्रों वर्ष बाद भी आज भी वे हमारे समक्ष वैसे ही, वरन उससे भी मधुर व आकर्षक रूप में हँसते-बोलते विराजमान हैं ।
परोपकारी को आत्मिक व मानसिक शान्ति प्राप्त होती है जो दूसरों के सुख में खुद सुखी होते हैं वे सामान्य जन से भिन्न प्रतीत होते हैं व प्रभु के अधिक समीप हो जाते हैं जिसके लिए उसके गुणी, दुर्गणी सभी संताने समान होती हैं वह सदा सबको समान भाव से देखते हुए सबका कल्याण करता रहता हैं, यहाँ मैथिली शरण गुप्त जी की पंक्तिया उद्धृत करना प्रासंगिक जान पड़ता हैं:-
विचारलो कि मर्त्य हो न मृत्यु से डरो कभी
मरो परंतु यूं मरो कि याद जो करें सभी
हुई न यूं सुमृत्यु तो वृथा जिए वृथा मरे
मरा नहीं वही कि जिया न जो स्वयं के लिए
यही पशु प्रवृति है कि आप आप ही चरे
वही मनुष्य है कि जो मनुष्य के लिए मरे ।
प्राचीन काल से ही भारत धर्म-प्रधान देश रहा है अतः यहां धर्म के सभी अंग- उपांगों का पर्याप्त सम्मान रहा है; परोपकारी, त्यागी तपस्वियों की गाथाओं से इतिहास भरा हुआ है शन्तिदेव दधीचि शिवि, कर्ण, जटायु आदि सम परोपकारी अन्य किस देश में होंगे ? यहाँ के तो बालक अभिमन्यु ध्रुव, प्रह्लाद जैसे भी अपने त्याग तपस्या के लिए विश्व भर में जाने जाते है । भगवान बुद्ध ने क्षणभंगुर संसार का त्याग परोपकार को भावना वश किया था । शंकराचार्य ने जगत की कल्याण-कामना में ही अपना जीवन खपा दिया । अशोक चन्द्रगुप्त, महाराणा प्रताप शिवाजी के उपकारों को आर्य जाति क्या कभी भूल सकती है ? महात्मा गाँधी व वीर क्रांतिकारी चंद्रशेखर, आजाद भगत सिंह, सुखदेव, राजगुरू अनेक बंगाली क्रांतिकारी व सुभाष चंद्र बोस, लाला लाजपतराय, आदि का त्याग भी परोपकार व तपस्या का जीता जागता उदाहरण है, यूं परोपकार के सीने पर स्वार्थ की गोली वर्षा भी होती आई है, ईसा को सूली पर चढ़ना पड़ा गांधी को मरना पड़ा इत्यादि पर निज बलिदान से परोपकारी समाज, राष्ट्र व विश्व भर का कल्याण करते आए हैं, नैतिक उत्थान के उदाहरण बन औरों के कल्याण में निज बलिदान लगाया पर उपदेश की बजाय हमें भी सोचना होगा कि चलो अभीष्ट मार्ग पर सहर्ष खेलते हुए विपति विघ्न जो पड़े उन्हे धकेलते हुए तभी समर्थ भाव है कि तारता हुए तरे वही मनुष्य है कि जो मनुष्य के लिए मरे ।