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6 नवम्बर 2023

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हर तरह के साधु-संतों व धर्मिक स्थानों के सत्संग आदि सुनने के पश्चात मियां लोभ-लाभ जी को भी मध्यम वय में एक पूर्ण संत के सत्संग में पहुँचनें का अवसर मिला तो एक अति भव्य - विहंगम दृश्य अपस्थित हो चौंकाने वाला था कि इतने अधिक लोगों के आने-जाने, बिठानें - ठहराने खाने - खिलाने के अतिरिक्त बस स्टैंड व स्टेशन आदि से लाने - छोड़नें की कितनी अच्छी व्यवस्था थी व बड़ी बात यह कि हज़ारों सेवादार रेलगाड़ियों से उतरने वाले हर यात्री की सहायता हेतु तत्पर ये तो सारे रास्ते से लेकर बैठने- ठहरने के स्थानों पर भी बड़ी मुस्तैदी, ईमानदारी व श्रद्धा - भाव से तहेदिल से सेवारत थे, ऐसा शायद पूर्ण - गुरु की उपस्थिति का आभास संभव कर रहा था। भाई लोभ-लाभ को नौकरी में प्राय: ईमानदार समझा जाता रहा व शरीफ भी कि एक साहित्यिक हृदयी व सुशिक्षित प्राणी जो था पर यहाँ की सारी बातें बेमिसाल थी संतोष व त्याग की झलक बड़ी प्रभावशाली लगी तो भाई महसूस करने लगा कि औरों की तुलना में वहां ईमानदार होने पर भी पूर्णत: लोभ-लाभ की सोच से ऊपर कहाँ उठाया कहीं भीतर गहरे निज परिवार या खुद की कोई-न-कोई उपेक्षित इच्छा कभी-न-कभी अवसर मिलते ही एक बार पूरी कर लेने की तो विद्यमान रही है चाहे सारी पूर्ण न होने पर भी कोई आपत्तिजनक कदम न उठाया हो परंतु मन में तो लोभ-लाभ की वृत्ति फलती-फूलती रही बस सामाजिक मर्यादा के भयवश कुछ नहीं किया-यदि वह भय न होता तो कुछ भी कर सकते थे। यह एक ऐसी जगह थी जहाँ श्वेत वस्त्र धारण किए व डेरे में निवास करने वाले असंख्य जन संसार में रहते हुए भी अनेक कुवृत्तियों से उबरे हुए थे चाहे पूर्णतः न उबरे हों पर उसी ओर अग्रसर तो थे ही। प्रायः हम जानते हैं कि जरूरत से ज़्यादा लालच या धन-लाभ उठाने की इच्छा हमें लाभ से अधिक हानि ही अधिक पहुँचाती है तब भी शायद यह मानकर कि जब कोई दुनिया वाला देख नहीं रहा तो हमारी छवि तो बिगड़ेगी नहीं तो क्यों न गृहस्थी की दशा को सुधारने के लिए यथा संभव हासिल कर लिया जाए व यह भूलते हैं कि प्राकृतिक व्यवस्था में सब दर्ज होता जाता है कि ऊपर वाला तो सब देखता है व जब लोभ-लाभ का विचार उठता है उसे तो तब भी भान हो जाता है और सत्संग में बताया भी जा रहा था कि विचार आने पर तो कर्म नहीं बनते - भुगतान नहीं करना पड़ता परंतु निरंतर विचार के चलने पर जीवन उसे क्रियात्मक रूप देने की ओर बढ़ता ही जाता है और क्रियान्वयन हो ही जाता है और कर्म लेखे में जुड़ता है तो अंततः परिणाम भी भोगना पड़ता है इसके अतिरिक्त क्या होता है - समाज में भी इस संदर्भ में प्रचलित उक्तियां मिल जाती हैं " माखी गुड़ में गड़ रही पंख रहे लपटाया, हाथ मले और सिर धुने लालच बुरी बलाय " । यदि मक्खी किनारे बैठ शहर चखे - खायतो सूखे पंखों से उड़ सकती थी परन्तु लालच वश बीच में धँस कर रह गई जो हमारे लिए साँसारिकता में पूरी तरह से न डूबने का संदेश है कि संसार में रहो पर उसमें पूरे मन से न डूबो, यहाँ आने के उद्देश्य का भी स्मरण रहे। संत बार-बार समझाते भी कि न घर छोड़ना है न सगे-संबंधी न रोज़गार छोड़ना है बल्कि संसार में रहते हुए सारे दायित्व निभाते हुए भक्ति हेतु कुछ समय निकालना होता है। वर्तमान समाज में ज़्यादातर लोग भ्रष्टाचार से बच नहीं पाते- सदियों की गरीबी के बाद पैसा दिखाई देते ही जैसे हर कोई शिकारी बाज़ की तरह झपट लेना चाहता है कई तो इज्जत-मर्यादाओं ख्याति आदि की सभी सीमाएं लाघ कर चौक पर भी निर्वस्त्र होने को तत्पर दिखाई देते हैं कि भारतीय शासन-प्रशासन तो जैसे आकंठ डूबा रहता है प्रजातंत्र केवल दिखावा है अधिक तो छलावा है कि जो लोग अति ईमानदार होते हैं लगते हैं व कहते भी है कि रहेंगे, वही वक्त बदलते ही पूर्णत: बदल जाते हैं कि पुख्ता व्यवस्था न है या जनता पूर्णत: सचेत व सक्षम न है या उदासीन रहना ही उचित समझती है जब कि आज़ादी पाई तो बड़ी कठिनाई से थी पर गंवायी-लुटाई बड़े प्यार से जा रही हैं ।
यहाँ की बेशर्मी-ढिठाई लाजवाब है शामिल हर कोई है कि आवाज़ न उठाना या जानबूझ मूक रह जाना भी तो खुद की सुरक्षा का लोभ-लालच है कि अन्य लोग आएं तो अच्छा हम क्यों अपना कुछ गंवाएं ? इसमें निहित मूर्खता को वे निहार नहीं पाते जो मुहल्ले के कोने वाले घर में लगी आग बुझाने नहीं जाते अंतत: प्रभाव उन पर आगे जो पड़ने वाला होता है उसे समझ नहीं पाते व आत्यधिक ज़्यादा मूल्य भी चुकाते हैं। यहाँ यह प्रश्न उठता है कि अध्यात्म के मध्य राजनीति आदि की चर्चा क्यों ? जाहिर हैं कि सत्संग से जुड़ने पर व्यक्ति सदाचारी - ईमानदारी पूर्वक जीवन यापन करना चाहता है जिस हेतु एक उपयुक्त परिवेश / समाज की अपेक्षा रहती है कि वह समाज में ही रह कर दोहरी ज़िम्मेदारी अपना कर ईमानदारी से निभाना चाहता है परंतु समाज क्या शासन ही जब खुदगर्जी, बेईमानी, करों की भरमार से आम आदमी को निशाना बना अपना लालच पूरा करने लगता है तो सीमित व उचित साधन अपनाने वाले को वातावरण दमघोटू लगने लगता है जिसका प्रभाव उसके संकल्प पर पड़ता है कि या तो वह सही ईमान की राह से फ़िसल सकता है आन्यथा संकल्पित मार्ग पर चलना दुरवार होने लगता है- प्रत्येक तरह के कार्य हेतु उसकी प्रकृति के अनुसार भिन्न-भिन्न वातावरण की आवश्यकता रहती है और यदि सही - उचित ही हो तो सदा सबके लिए मुफीद होता है। दरअसल जगत भर को माया ने तो सदा भरमाया है संस्कृत भाषा के इस शब्द का विश्य भर में किसी दूसरी भाषा में इस शब्द का पर्याय न मिलेगा जो नापा जाता है वह माया है - अत: यह एक मानदण्ड भी है क्योंकि 'मा' का अर्थ 'नही' या 'न' है। या का अर्थ है 'जो कुछ' अर्थात् जो माया सत् नहीं है या और जो सत नहीं है वह माया है। यानि जो दिखाई देता है वह मिथ्या है क्योंकि सारहीन है नाशवान है चिरस्थाई जो नहीं है आदि कि प्रलय दशा में जिसमें समस्त जगत् शक्ति रूप में नापा जाता है और सृष्टि दशा में जो अभिव्यक्ति होती है वह माया है। इस प्रकार माया का अर्थ जगत् की मूल प्रकृति है
मायावाद में सदा से भरमाया प्राणी उलझ कर रह जाता है क्योंकि प्रवृत्ति - निमित्त, व्युत्पत्ति को प्रभावित करता है तो प्रश्न पनपता है कि मायावाद का दर्शन क्या है ? शंकर के अनुसार ब्रह्म ही सत्य है, जगत् मिथ्या है और जीव ब्रह्म ही है, उससे भिन्न नहीं । ब्रह्म और आत्मा एक है दोनों परम तत्त्व के पर्याय हैं । जगत प्रपंच माया की प्रतीति है जीवन और जगत दोनों मायाकृत हैं। माया में अविधा या अध्यास शब्दों का प्रयोग अधिक होता है। जब हम विषम पक्ष के दृष्टिकोण से समस्या का निरीक्षण करते हैं तो माया शब्द का प्रयोग करते हैं। किंतु विषयी पक्ष की दृष्टि से निरीक्षण करने पर उसी वस्तु के लिए हम अविद्या शब्द का व्यवहार करते हैं- ठीक जिस प्रकार ब्रह्मा व आत्मा एक है इसी प्रकार माया और अविद्या एक ही है जो बस्तुत एक है उसे अनेक रूप मानकर देखने की जो मानवीय मस्तिष्क की प्रवृत्ति है, यही अविद्या है व यह सब मनुष्यों में समान रूप से पाई जाती है ।
माया के विषय में वैष्णव दर्शन व सांख्य दर्शन में भी अपने-अपने ढंग से विवेचना की गई है संक्षेपतः माया व प्रकृति में साम्यता होते हुए भी अन्तर है कि माया को परतंत्र माना गया परंतु प्रकृति स्वतंत्र है माया का आश्रय ब्रह्म या जीव होता है, प्रकृति को अपने अस्तित्व के लिए किसी दूसरी सत्ता की अपेक्षा नहीं करनी पड़ती । अतः प्रकृति यथार्थ, माया अयथार्थ है । और न ही आकाश - कुसुम के समान अभावात्मक ही / हम इसे जो कहें भ्रांति - मात्र या यथार्थ, किन्तु जीवन की समस्या के समाधान के लिए इसकी सत्ता को मानना आवश्यक है।
हम देखते हैं कि पैसा- द्रव्य आदि दुनिया व जीवन में सब कुछ नहीं है परन्तु इसके बिना भौतिक जगत् में जीवन चलता भी नहीं हैं रिश्ते नाते टिकते नहीं है प्रेम प्यार भावनाएं फलित नहीं होती जीवन चलाने हेतु यह आधार भूत औज़ार है उधर आज़ादी के अमृत महोत्सव पर समाज का सिंहावलोकन किया जाए तो लोक तानिष्क व्यवस्था इतनी जर्जर लगती है कि बुढ़ापे की शिथिलता ही दर्शाती है अतः हर क्षेत्र में व्याप्त भ्रष्टाचार को दूर करना होगा व कायदे कानून बना देने से कार्य नहीं चलता उसे लागू करने के लिए भी अब अलग से व्यवस्था स्थापित करनी होगी और जो सजा देने का कार्य सही नहीं करता उसे भी दण्ड का प्रावधान रखना होगा ।
क्योंकि आज़ादी पाने के इतने समय बाद भी जो हमने नहीं सीखा वह है आत्मावलोकन या सही मंथन हमें ग्रामों से शहर की ओर पलायन देखना था संयुक्त परिवार विघटन से सामाजिक मूल्यों को भारी हानि हुई है सामाजिक अनुशासन में उद्दंडता बढ़ी है उच्छृंखलता सार्वजनिक हुई है राजनीति का अपराधीकरण हो रहा है या अपराधियों का राजनीतिकरण हो रहा है समझना मुश्किल है, विधान पालिकाओं में चर्चा का स्तर / दूरदर्शन पर बहस विचार विमर्श की मंशा स्वार्थ के चरम तक गिरती दिखाई देती है, बेशर्मी की हदें पार करती बालाएं अपना सब कुछ प्रदर्शित कर भी कुछ हासिल नहीं कर पाती पर समाज को यह मति देने वाला कोई कभी मानने को तैयार नहीं होता, हठ वश फ़िल्म नगरी डूबने को तो तैयार है पर सुधरना ज़रा मंजूर नहीं हमें पराधीनता के दिनों की हिन्दू-मुस्लिम एकता से सांझी लड़ाई याद करनी चाहिए (सन् 1857 से) ओच्छी राजनीति द्वारा सत्ता पाने की कोशिश इतिहास में बौनापन ही दर्ज करेगी। सत्ता परिवर्तन भी समयानुसार अवयश्यम्भावी होता है तब जिनके साथ भी ज़्यादती हुई वह भी पलटवार किए बिना नहीं रहते अतः जो वर्तमान परिवेश में दूरदर्शिता के अभाव का मंजर है वह इस देश-समाज को डुबो देने में अपर्याप्त नहीं लग रहा सभी को संकुचित छेदों से उबरने हेतु सोचना होगा पूंजीवाद के हाथों बिकना ज़मीर बेच मलाई खाना है
महात्त्वाकांक्षी सभी होते हैं - आप कैसी सीढ़ी इस्तेमाल कर रहे हैं यह सब भी दिखाई देता है इतिहास में आपकी दुर्गति भी दर्ज होगी ताकि औरों को सबक मिले समय सदा एक सा कब रहा यह तो गोल-गोल घूमता ही जाता है व हर बुरे के बाद अच्छा समय भी आता ही है जनता अब पहले जैसी अनपढ़ गंवार न होकर काफी समझदार हो चुकी है व पैंतरा बदला जानती है अत: चतुरजन-होशियार सावधान मत करो इकट्ठा और मौत का सामान यही प्रतिध्वनि सरे आम टी.वी. चैनलों पर ध्वनित होती है पर लोभ-लाभ की धुन में न कोई ध्यान देता है न ठीक से सुनता है न थमता है बस अंध दौड़ में सब हड़प लेना चाहता है यदि नहीं माने तो इस देश की जनता का हाल पड़ौसी श्री लंका, बांग्लादेश व पाक से भी अधिक बुरा होने वाला है चौंकाने वाले तथ्य सरेआम इंटरनेट पर घूम रहे हैं पर बेशर्मी की इंतहा कि केन्द्र जैसे सब जमा कर देश को इस तरह कब्जा कर जकड़ना चाहता है कि सब कुछ दबा लेगा व आगामी कई वर्ष तक गुलाम बना लेगा - शायद वे भूलते है कि इस देश में प्रखर बुद्धि अब पहले से कहीं अधिक है व उनकी संतानें विदेश में भी रहती हैं जहाँ से कुछ भी आयातित किया जा सकता है तथा कुदरत भी सब देखती है व एक झटके में सब पलट देती है-
उपर्युक्त तलख टिप्पणियां का आधार माह अगस्त 22 के उत्तरार्द्ध में आई दो विडियो हैं जो सबके पैरों तले की ज़मीन खींच लेने वाली हैं जबकि जनता भोली भाली अभी भी बहकावे की लोरियों में मग्न है हरियाणा में 91636 मृत व्यक्तियों को पेंशन दी जा रही है कई-कई वर्षो से 1892 की तो मृत्यु बाद प्रारम्भ 12000 विधवा की पेंशन विधवा भी मर चुकी है। दिव्यांगों (35000 ) की भी पेंशन चल रही है। 91 हज़ार में 25000 सिर्फ एक आधार कार्ड पर चल रही हैं जिससे सुस्पष्ट है कि निचले स्तर पर नहीं उच्चतम पर है । 1400 व्यक्ति एक कार्ड पर दो-दो पेंशन व व्यक्ति मर चुके है मुख्यमंत्री के जिले करनाल से भी उदाहरण है- जीवित को पेंशन नहीं और एक आधार पर हजारों पेंशन तो वोट भी फर्जी होंगे अत: बेइमानी की इंतहा कि तकनीक का दुरूपयोग हो रहा है । पर भारतीय बेईमान नहीं सिस्टम बेईमान हाथों में है
सरकार द्वारा 8/10 हजार बैंक कर्ज वाले का तो लोन माफ न होता छोटे किसान खुदकुशी कर लेते हैं उधर कृष्ण कांत भाई की वाल (दीवाल) से सुस्पष्ट हुआ कि लाखों-लाख करोंड़ डूब रहे है - मीडिया बताता नहीं कि हमारे लुट जाने में उसे दिलचस्पी नहीं बची वे अनर्गल बहस में उलझाए रहते है शासन खजाना बेदर्दी से लूट रहा है बिगत पाँच साल में छह लाख करोड़ डूबे इंसाल वैंसी बोर्ड अनुसार 4946 कंपनियों ने दीवाला दिखाया 457 कंपनियों ने 8 लाख 30 हज़ार करोड़ कर्ज लिया जिसमें से 6 लाख करोड़ डूब गए एक एम. टेक नाम कंपनी ने सरकारी बैंको को 25000 करोड़ का चूना लगाया है पिछले माह एक गुजराती कं. (ABG Shipyard) ने 27 बैंको से 23 हजार करोड़ का कर्ज लिया व पैसा डूब गया और भी है क्रोनोलोजी यह कि एक कंपनी बनाएं बैंक सरकारी से कर्ज ले दिवाला घोषित करें व सरकारी बैंक का पैसा आपके बाप का हो गया सरकार पर्दे पीछे से आपका कुछ बिगड़ने नहीं देगी। यह सब राष्ट्रवादियों की निगहबानी में हो राहा है वे बोलेंगें भी तो नेहरू को जिम्मेदार बताएंगे इंदिरा को बताएंगे विपक्ष की सक्रियता अपर्याप्त है जनता को पता नहीं उसके टैक्स का जो पैसा लूटा जा रहा है कहाँ है यह सब सरकार की मजबूरी से नहीं बल्कि इच्छा से व इसमें शामिल होने की बजह से हो रहा है यह राजनीतिक कॉरपोरेट जगत के घिनौने गठजोड़ का नतीजा है यह देश को लूटकर नेताओं व उद्योगपतियों की जेब भरने का कार्यक्रम है राष्ट्रवाद के आवरण में महंगाई बढ़ा आम आदमी बुरी तरह लूटा जा रहा है । (यह विवरण लिख देने वाला चाहे स्वयं सबक संघ का प्रशंसक पोषक रहा पर मजबूरन अब लिख रहा है) हतप्रभ यूं कि यही सेवक सत्ता हेतु कहाँ तक जा सकते हैं- पूर्ववर्तियों की तरह लोग सिर्फ पैसे के लिए ही नहीं, श्रेय लेने के लिए भी मरवा सकते हैं ताकि वोट बटोर फिर सत्ता पे काबिज हो जाएं - तब शायद वे पूर्व के उन विरोधी सत्ताधीशों का हश्र भूल जाते हैं कि कत्ल का भी श्रेय गर लिया तो उसका भुगतान तो अटल रहेगा पर इतना बोध शायद इन राजनीतिज्ञों को रहता नहीं है बरसों पहले रथ यात्रा के 1400 करोड़ हड़पने का आरोप एक स्वामी पांडे जी ने लगाया राम जन्म भूमि ट्रस्ट वालों ने कि आर. एस. एस. बीजेपी वाले डकार गए जो भी हिन्दू नेता उभरता उसे मरवा देते जेसे अशोक सिंघल जी, प्रवीण भाई तोगड़िया, सुरेश तिवारी आदि जिन को सुरक्षा मिली थी स्वस्थ थे, जो प्रखर हिन्दूवादी नेता उनकी हत्या कर दी जाती रहीं वर्तमान अध्यक्ष के लिए रास्ता बनाने हेतु यह गहन जाँच का विषय है । इसी प्रकार पूरे देश में भ्रष्टाचार व भयानक अपराधों के जो सच्चे धारावाहिक नित्य सामने आ रहे है तो देश को गुलामी की दशा से उबारने हेतु समाधान को लागु करने का चरित्र दिखाना चाहिए और निज स्वार्थपूर्ति हित नौकर शाही के निरंकुशतंत्र को न चलने दें सार्वजनिक उपक्रमों की गाढ़ी कमाई न डूबने दें न अर्थ व्यवस्था को चौपट करने वाले कदम जैसे सब्सिडी देते रहना आदि - दोषी चाहे कोई भी हो उसे निश्चित अवधि में दंड का प्रावधान हो तभी भय का प्रवाह होगा व अपराधों पर अंकुश लगेगा जो कोई (सर्वोच्च अध्यक्ष ) भी उल्लंघन करे उस पर भी कार्रवाई का प्रावधान हो तभी राष्ट्र रहेगा । कहने-सुनने में यह बात अच्छी है पर भारतीय हृदयों पर लागू करना बड़ा दुष्कर कार्य है कि दया, सहानुभूति, क्षमा आदि हर मामले में उभर आती है- पर प्रकृति सटीक न्याय कर देती चाहे कुछ/ काफी समय तो लेती ही हैं बस्तुतः न्यायपूर्ण प्रणाली की स्थापना हेतु हमारे भीतर पहले धैर्य और संतोष के गुणों को विकसित करना होगा । निर्गुणी संत कबीर ने कहा- "गोधन गजधन, वाजिधन और रतन धन खान ! जब आवै संतोष धन सब धन धूरि समान उन्होंने यही भी कहा कि —
चाह गई चिन्ता मिटी, मनुवा बेपरवाह,
जिनको कछु न चाहिए, सो ही शहंशाह ।
अपने देश से ऐसी भावनाएं लुप्त होने लगी हैं जबकि दीन में दार्शनिक लाओट से को सम्राट ने प्रधानमंत्री बनाना चाहा तो उन्होंने स्पष्ट रूप से अस्वीकार किया । इसी प्रकार कन्फूशियस भी विश्व भर से कहता था- " मैं अकेला ऐसा व्यक्ति हूँ संसार भर मे जो सबसे अधिक सुखी है।" सिकन्दर ने एक संत (भारतीय) को कहा जिस किसी वस्तु की आवश्यकता हो उससे मांग लो वह समर्थ है - जिस पर उत्तर मिला कि उसे किसी भी वस्तु की इच्छा नहीं, वह तो केवल प्रकृति की गोद में निवास करना चाहता है। अजगर करे न चाकरी पंछी करे न काम चाहे आलसियों ने अपना मूल मंत्र बना लिया हो पर परोक्ष रूप में भाव था कि सबको देने वाला तो एक राम ही है दृष्टांत संतोष को महत्त्व को तो प्रकट करता है संतोषी व्यक्ति को प्रभु पर भरोसा अडिग रहता है मन में तृष्णाओं का / इच्छाओं का स्थान ही नहीं बचता, वह प्रभु के अतिरिक्त किसी से डरता भी नहीं व सदा सच्चाई की राह पर ही चलता रहता है- अत: संतोष तो परम धन है अनावश्यक लोभ-लाभ के फेर में पड़ कर हमें अपनी मति का संतुलन नहीं बिगाड़ना चाहिएं परंतु प्रत्यक्ष विपति को अन देखा न कर कुछ अप्रत्यक्ष उपक्रम तो कर देना चाहिए।

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रूहानी विज्ञान (आचार-विचार-9) सदा सहायी, अनंत सुखदायी, सदा रूहानी रहनुमाई; धन आवाजाई से बचाने वाले परम संत बाबाजी (ब्यास) को
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सुबोध राय मनमौजी किस्म का अपनी ही तरह का आदमी निकला कि छोटे-से-छोटे ओहदे पर रहते हुए भी तेवर बड़े-बड़े दिखा जाता विशेषतः बड़े आहदे वालों के सम्मुख, जबकि साथी-संगियों के साथ रहता तो ऐसे दर्शाता कि उनसे

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श्री आदी नाथ उर्फ (वस्तुत: व्याधि ग्रस्त अपराधी सम) कि उम्र बीतनेकेसाथ-साथ पापोंका लादान भी बढ़ता ही रहता हैक्योंकि जिन पदार्थो/अनाज़ों पेड़ पौधों या बनस्पति का हम प्रतिदिन भोग करतेहैं वह भी जीवन युक

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