नित्य प्रतीक्षारत धरा जगे सूर्य की उष्मा पाने हेतु अन्यथा समस्त पस्त सा रहे जगत्, वनस्पति जगत को चाहिए धूप - बदरा जो अपेक्षित गतिशील जीवों के संचालन हित- और उनमें से श्रेष्ठ मानव को क्षुधा पूर्ति पश्चात चाहिए कुछ प्रकाश कि वह बेजुबां न हो कर सर्वाधिक चेतना युक्त प्राणी है और लापरवाह बने रहने से हानि यह कि वह अनभिज्ञ रह जान न सकेगा कि वह तो स्वय सृजक सृष्टिकर्ता का ही प्रतिरूप है - पृथ्वी रूपी छात्रावास में कुछ सीखने - कुछ करने उपरांत ही वापिस जाने योग्य होगा ।
यहाँ धरा प्रवास की अवधि तब असीमित होने लगती है जब जीव दीर्घ कालिक प्रक्रिया उपरांत अंतिम चरण में पहुँच कर मस्ती में खोया रह कर अपेक्षित तैयारी व करनी नहीं करता और उसी कक्षा में न रख कर पुन: प्रारम्भ के स्तर से ऊपर उठना पड़ जाता है? वह अपनी सुझबूझ बहुत लगाता है व अधिकांशतः इस हाथ ले उस हाथ दे आधार पर शीघ्र फल चाहता है जबकि सफलता समय लेती है क्योंकि उसकी पृष्ठभूमि दीर्घकालिक होती है तो हिसाब चुकता होने में बहुत समय लग जाता है इत्यादि। इस मार्ग पर भावना व प्रेम बहुत महत्व रखते हैं। "एक अंधे को मंदिर आया देख लोगों ने हँस कर पूछा क्या भगवान को देख पाओगे, उत्तर- क्या फर्क पड़ता है मेरा भगवान तो मुझे देख लेगा, दृष्टि नहीं दृष्टिकोण चाहिए जो कि सही हो। सही परिणाम हेतु प्रति दिन की गई छोटी सी कोशिश भी कभी बड़ें परिणाम दिखाती है तथा एक भक्त ने भगवान से पूछा इतने वर्षो से आ रहा हूँ कोई उपलब्धि नहीं ? उत्तर- अकेले आते हो, कभी मन को भी साथ लाया करो।" अर्थात अभिमान आ जाता है जब हमें लगे कुछ किया है- सम्मान / परिणाम तब जब संतगुरू / दुनिया प्रभु को लगे कुछ किया है वह भी निर्लेप प्रेम सहित / स्वर्ग पहुँच राधा ने कृष्ण से पूछा कैसे हो द्वारकाधीश ? मैं तो वही कान्हा हूँ द्वारकाधीश मत कहो, क्या मुझे कभी याद किया या नहीं उत्तर-न तुम्हारी याद आई न आँसू, क्योंकि तुम सदा याद रहे। द्वारकाधीश बन तुम्हीं ने यमुना का मीठा जल खोकर सागर का खारा पानी पाया, बाँसुरी छोड़ सुदर्शन चक्र अपनाया, महाभारत का निर्णय ले अपनी सेना कौरवों को दे उसे खुद मरवाया तो द्वारिका वाली छवि भली नहीं जो मेरे संग प्रेम वाले रूप में थी । वही सर्वप्रिय हो सकती है। सुख दुनियावी / जहानी होते है सच्चा सुख उसकी शरण में मिलने पर होता हैं जो स्थायी रहता है । संक्षेपत: देहरूप में आत्मा सदा भटके मारी-मारी, असल घर प्रभु रहा भटकाएं राहें बहुत सारी; संतों के मत में खुद लिवाने भी आएं प्रभुः बहुधा मन भटकाएं प्राय: यूं दुर्लभ देह मानवीय गंवायी जाए हर बारी । अत: सही राह जान जा सके कभी भी संवारी।
- शुभाकांक्षी
डॉ विक्रम जीत
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