श्री आदी नाथ उर्फ (वस्तुत: व्याधि ग्रस्त अपराधी सम) कि उम्र बीतनेकेसाथ-साथ पापोंका लादान भी बढ़ता ही रहता हैक्योंकि
जिन पदार्थो/अनाज़ों पेड़ पौधों या बनस्पति का हम प्रतिदिन भोग करतेहैं वह भी जीवन युक्त होतेहैंओर उन्हें खातेरहनेका भी
कुछ-न-कुछ हिसाब बनता ही हैऔर कभी-न-कभी, किसी न किसी रूप में चुकाना भी पड़ता हैतब अति दीर्घ जीवन का मोह ढीला
पड़नेलगता है- भक्ति भी आदीनाथ जी जन्म-जन्मांतर सेकरतेआए है, किर भी लेदेकर पुनः पुनः यहीं धरा पर भटका रहेहैऔर
बोध होनेपर मुक्त भी होना चाहतेहैकि सभी विषय वासनाओंसेकभी ऊब कर मन अति उदास अशांत होनेलगता हैकि आखिर एक
छोटेबच्चेको भी उन्हींझुनझुनों सेकब तक बहलाया जा सकता है- जब विशेषत उसेयह भी ज्ञात हो जाए कि मनुष्य होनेकेनाते
हम सारेसंसार केमनुष्य एक ही जाति केहैंसारेधर्मो मेमूल मेंएक ही कर्ता, एक ही सत्य व्याप्त हैहमारा आंतरिक स्रोत भी एक
हैपरमात्मा नेमनुष्य पैदा किए, हम चाहेकोई धर्म बताएं- असल उद्देश्य तो परमात्मा को प्राप्त करना हैजिस हेतुसदा कोई-नकोई धर्म पद्धति, भक्ति, रीति-रिवाज, आडम्बर, हठ योग, पत्थर-पानी आदि सबकी पूजा कर हार लिए और अब थक चुकेहैं।
निढाल हो अर्धनिद्रा मेंचेतना बसेविचारा पुनः गूँजतेहैंआत्मा अविनाशी हैपर हम इस बाबत अधिक नहीं जानतेसंसार व समस्त
पदार्थ नाशवान हैपर अब तक हम उन्हेंपानेकेलिए ही सब कुछ करतेआए हैंआदतन खुद सेबेखबर हो मोह माया में डूबेरह कर
ही स्वयंको सुखी व धन्य समझतेरहतेहैस्थूल देह हमारेसाथ जाती नहीं रिश्ते - मित्र-नातेकोई काम केनही, यहींबदलतेहैं: पलपल तो आगेका तो र्काई क्रम ही नहीं रखा गया फिर पता चलता हैकि मनुष्य जन्म अनमोल हैबार-बार नहींमिलता - परमात्मा से
मिलनेका अवसर भी हैचौरासी सेनिकलनेका भी परन्तुसटीक मार्ग सूझता नहीं क्योंकि बहुत सेव्यवधान सांसारिक हैजिन्हेंहम
अपनी छवि या ख्याति बढ़ाने / बनानेया बनाए रखनेहेतुअति जरूरी व महत्त्वपूर्ण मानतेहुए ढर्रेपर जिए जातेहैं और हमें
अधिकांश भक्ति केवही मार्ग सुहातेया भातेहैजिन्हेंहम युगोंसेचाहतेआए हैअपनातेआए हैपरंतुकहीं-सहींपहुँच नहींपाए हैतभी
तो पुन: यहाँआए है। हमें भटकानें में हमारा मन भी आड़ेआता हैकाल हर तरह केअड़ंगेलगाता हैजबकि मुक्ति का मार्ग, शुद्ध
आजीविका, शुद्ध-विचार व सही विवेक चाहता हैआलस्य भी छोड़ा नहींजाता हैकि हमेंदेर-देर तक सोना ( निद्रा) भी चाहिए जबकि
आंतरिक भक्ति का अकर्माव्यता या आलस्य केसाथ कोई मेल नहींहैपर संतो का पूरा जीवन एक मिसाल होता हैवेसब कुछ खुद
अपना कर - झेलकर सब सहन कर फिर औरों सेकरनेको कहतेआए हैवेखुद सारी सांसारिक जिम्मेदारियाँनिभातेहुए आजिविका
केलिए कार्य करतेहुए - निज परिवार का पालन करतेहुए परमात्मा की असल भक्ति का मार्ग अपनातेहुए आत्मिक अभ्यास खुद
भी करतेहैऔर समाज को भी वही पद्धति अपनानेको कहतेआए हैंकि प्रभुकेसच्चे - सुच्चे (पवित्र) पुत्र होतेहैंजिनकेलिए सब
धर्म -जातियां समप्रदाय पंथ आदि समान हैं वेकभी किसी की निंदा आलोचना या त्रुटि नहीं निकालतेअपितुऔरों केधर्मग्रंथोंया
साधु-संतोंद्वारा व्यक्त विचार भी अक्सर दोहरातेरहतेहैंकि असल बात तो करनी की हैवो कोई नया मज़हब भी नहींचलातेन कोई
नया कर्म-कांड या नई पूजा-पद्धति की बात करतेहैंवेबतातेहैंसच्चा नाम (शब्द) लिखने, पढ़नेया बोलनेमेंनहींआता परमात्मा के
इस नाम और नामी परमात्मा मेंभेद नहींहै।
पुन: कहेंतो परमात्मा केनाम की महिमा तो धर्म ग्रंथोंमेंमिलती ही है, परंतुइस नाम को उनमेंनहींपाया जा सकता उनमेंतो केवल
उसका गुण-गान होता है। यह हेक्या व प्राप्ति कैसेहोती हैउस केलिए आध्यात्मिक साधना मेंप्रवृत्त होनेकी इच्छा रखनेवालों
को अनुभवी संतों की खोज करकेउनका सहारा लेना पड़ता है। पूर्ण संतों की शरण तथा उनकेसत्संगों में जाकर ही प्रभुकेइस
सच्चेनाम का पता लग सकता हैव उन्हींकेमाध्यम सेइसकी प्राप्ति हो सकती हैअन्य कोई स्रोत या विधि/ धर्म द्वारा संभव नहीं
।
वैसेऋषियोंमहात्माओंनेप्रभुकी महिमा केबखान हेतुअगणित नाम रखेहैंदिखाई न देनेकेकारण अलख और गम्य न होनेकारण
अगम्य भी कहा गुण विशेष की अभिव्यक्ति हेतुकभी राम रहीम कृष्ण मुरारी, गिरधारी, अल्लाह, खुदा, वाहेगुरूराधास्वामी या
जिहोवा भी पुकारा तो हिन्दूधर्म में "ओ३म " शब्द का आदेश दिया गया तथा प्रभुकेलिए राम नाम की महिमा कई तरह सेगाई जाती
हैप्रत्येक मत केनाम अपने-अपनेहैपर प्रश्न उठता हैकि वह कौन रूप नाम हैजिससेजीव को निर्वाण - पद प्राप्ति संभव है ?
संतोंकी वाणी द्वारा दो प्रकार केनाम का पता चलता हैएक बाहरी जो लिखने, पढ़नेंबोलनेमेंआ सकता हैजो कि ज्ञानियों, पंडितों
व विद्वानोंका क्षेत्र है, जिसेवर्णनात्मक नाम भी कहा गया, जिससेसब दुनियावी काम होतेहैंग्रंथों-पोथियोंमेंयही हैंजो परमार्थ
केमार्ग की पहली सीढ़ी है। इसमें अभ्यास द्वारा जाप करना होता हैपरा, पश्चन्ती, मध्यमा व बैखरी / पहलेमें मन की सूक्ष्म
वृत्ति केद्वारा नाभि-चक्र पर दूसरेमेंमन द्वारा हृदय चक्र पर मध्यमा मेंमन द्वारा ही कण्ठ चक्र पर व बैखरी मंजुबान द्वारा
जाप किया जाता है, जिससेकुछ सुख-शांति आती हैपर वह पूर्ण नहींहैक्योंकि यह सब स्थान तीसरेतिल या शिव - नेत्र सेनीचे-नीचे
है।
दूसरा अगम, अगोचर या गुप्तनाम हैजो स्वयं परमात्मा सेनिकलता हैव उसका ही प्रकट रूप हैजिसेधुनात्मक नाम कहतेहैं यह
लिखनेपढ़नेया बोलनेंमेंनहींआता, जिसका अनुभव इन्द्रियोंद्वारा नहींकेवल आत्मा द्वारा ही होता हैयह एक चेतन धुन है, जिसे
केवल आत्मा ही सुन सकती हैजो मन व बुद्धि की सीमा सेपरेहैइसका शब्दोंमें वर्णन असंभव हैयह बिना जुबा केतीसरेतिल में
जपा जाता है। यही वह सच्चा नाम हैजिसकेमिलनेसे (नाम दान या नाम दीक्षा से ) जीव जन्म-मरण केचक्र सेसदा केलिए
छुटकारा पा सकता हैयह धुनात्मक नाम तो हरेक मनुष्य केअंदर दिन-रात सदा विद्यमान रहता हैपर जब तक कोई नाम का भेदी न
मिल जाए, इसकी धुन सुनी नहीं जा सकती। वर्णनात्मक नाम तो मन एकाग्रत करनेकेलिए ही हैपर धुनात्मक केबिना आत्मा
सिमटकर उपरी रूहानी मंजलों में नहीं चढ़ सकती वर्णनात्मक को नाम बोला जाता हैतो हरेक देश की भाषा में भिन्न हैपरन्तु
धुनातमक की कोई भाषा नहींक्योंकि वह मनुष्य - मात्र केलिए एक ही है। कबीर, नानक सेलेकर दसवेंगुरूतक दादूसाहिब, तुलसी
साहिब, जगजीवन साहिब, दरिया, बाबा लाल दास, दलटूसाहिब व अन्य अनेक संत शब्द की शिक्षा देतेरहेंहै, ईसाई इसे 'वर्ज' यानि
शब्द कहतेहै।
"आदि मेंशब्द था, शब्द परमात्मा केसाथ था और शब्द ही परमात्मा था। शुरूसेयह परमात्मा केसाथ था। इसी शब्द सेसब चीजें
बनी व ऐसी कोई चीज़नहीं, जो इसकेबगैर बनी । " वस्तुतः इसी नाम की धारा सारेब्रह्मांड मेंपरिपूर्ण रूप सेव्याप्त होकर सबकी
संभाल रखती है, हमारा शरीर भी ब्रह्मांड का छोटा सा नमूना हैऔर वह धारा इसकेअंदर भी व्याप्त हैजिससेहमारा मालिक के
साथ तार बंधा हुआ हैजो कभी तोड़नेसेभी नहीं टूट सकता। यह धारा मस्तक सेशरीर केनीचेकेभागों तक जा रही हैजैसेमछली
पानी की धार केसहारेऊपर चढ़ती हैउसी तरह आत्मा नाम की डोर को पकड़नाम केभण्डार (प्रभु) प्रवृति केमार्ग हैइस सच्चे
नाम की प्राप्ति केलिए नाम की कमाई करनेवालेकिसी पूर्ण संत-महात्मा सेदीक्षा लेनेकी आवश्यकता होती है। नाम मेंनिर्मल
ध्वनि हैजो हम सब केअन्तर मेंहो रही हैपर संत संगति द्वारा ही सुनाई देगी। इस पद्धति का किसी जाति, धर्म आदि सेकोई संबंध
नहींबल्कि वेबाधक हैइस कलिकाल में भी यही प्रभावी हैव अन्य कोई पद्धति / युक्ति आदि कारगर नहीं - बाहरी साधन - धर्म,
रोज़े, तीर्थ यात्राएं यज्ञ-हवन आदि क्रियाएं वर्जित हैयदि मुक्ति प्राप्त करनी हो तो प्रभुसेहमारी लिव या लगन इसी नाम
द्वारा संभव हैजो कि किसी सतगुरूद्वारा ही जग सकती हैकि यही प्रभुका नियम हैधुनात्मक नाम मेंही अपूर्व तन्मयता व मस्ती
हैयह वह ध्वनि हैजो इस शरीर मेंआँखोंकेबीच आत्मा केकेन्द्र पर सुनी जाती हैइसमेंप्रबल आंतरिक आकर्षण होता हैजिससे
आत्मा मगन हो स्थिर होती हैऔर असी केसहारेउस स्थान पहुँचती हैजहाँसेयह नाम - धुन उठती हैऔर जो सृष्टि का आदि है।
जब मनुष्य इस एकाग्रता केसाथ शब्द धुन या नाम धुन केआंनद का रस लेता हैतो उसका ध्यान बाहरी पदार्थोंसेस्वत: हट जाता
हैसब संत इस सच्ची अन्त: मुखी अवस्था प्राप्ति केलिए तीन साधन सिमरन, ध्यान व धुन बतातेआए है।
यह संक्षिप्त सा वर्णन किसी भी नव जिज्ञासुको चौकाने / हर्षानेवाला हो सकता हैपर यह आदीनाथ जी को अदासीन कर देता है
कि वह तो परिचित दिगत सदी सेही था जितना हो सका प्रयास भी किया पर ज़्यादातर हालात आगेनतमस्तक दिखाई दिया कि
आलस्य का आदी व सामाजिकता सेआज़ादी न लेनेव शारीरिक न्यूनता की थकान की अनदेखी न कर सकनेकेकारण कहीं सफल
होता दिखाई नहीं पड़ता और फिर खुद को तसल्ली देनेकेलिए यह बहानेफिर-फिर गढ़ता हैकि लेखन भी तो नवाजिज्ञासुकेलिए
एक तरह की सेना ही हैया लेखन-प्रक्रिया मेंभी तो प्रभुसिमरण हो ही जाता हैमुँह तो सही दिशा की और ही हैकभी तो ऐसा समय
आएगा जब वह पूरा समय घर सेनिवृत हो अपनी ओर सेसमय तो देपाएगा इत्यादि और पुनः उसेनाम कमाने/करनेकी व्याधि सेघिरा
देखा जा सकता था व इसी क्रम में फिर जगकर लगकर आगेकी प्रक्रिया को यूंबयां करनेलगता है 'सिमरन' सेअभिप्राय स्मरण
करनेसेहोता हैयाद करना अपनेइष्ट की छवि को हृदय मेंउतारना व स्थापित करनेकी प्रक्रिया मेंनिरंतर प्रयास करतेहुए रटना
या मूर्त रूप को रटतेहुए अन्तर्घट में चित्रित करतेजाना । धनात्मक नाम को जपनेकेलिए अन्तर्मुख होना जरूरी हैतो संत इसे
सिमरण द्वारा प्राप्ति की सीख देत आए हैंऔर वही सच्ची भी सिद्ध होती आई है, इसकेप्रमाण बहुतायत मिलतेरहेहै। यूंतो हम
प्राय: सब इन्द्रियोंवश बाहर मुखी ही होतेहैजिसमेंजीवा, नेत्र व कान ज्यादा भूमिका निभातेहैं, यदि इन द्वारा ख्याल को बाहर ले
जानेका कार्य कुछ रूक जाए तब बाहर केसंस्कारोंका आना कुछ बंद हो जाए तब हम संभवतः अन्तर्मुखी हो कर पूर्ण सत्य केभेद
केकुछ ज्ञाता हो सकतेहैं। क्योंकि हम इन्हींतीनोंद्वारा देख-सुन कर संसार केवृत्तांत हमारेअन्दर बसतेजातेहैंऔर उन्हींमें
हम मग्न रहनेलगतेहै। अत: संतोंनेइन्द्रियोंकी शक्तियोंपर रोक लगानेकी शिक्षा दी बोलनेकी शक्ति पर सिमरन आता हैजब
अपनी वृति या ख्याल को अन्तर्मुख करना चाहतेहैं तब रह-रह जो ख्याल आतेहैं वेदुनिया केख्याल होतेहैदोस्तों - दुश्मनों की
शक्लें, रिश्तेदार - मित्र, बाज़ार - कार्यालय आदि जो देखतेरहेउनकी यादेंसामनेआती हैव विघन डालती हैंइस लिए अभ्यासी को
पहली सीढ़ी पर इन्हेंदूर करना होता हैतो जो संस्कार इन इन्द्रियोंकेद्वारा हमारेचित्र, अन्तर्मन या अवचेतन मन मेंजमा होतेहै
जो विचार बैठे-बिठाए अनायास ही हमारेभीतर अपनेआप उठतेहै, उन्हेंदूर करना दूसरी सीढ़ी है।
हमारा मन कभी निश्चल नहीं बैठता, आदत हैउसेलगातार भागतेरहनेकी वह निरंतर दुनियांवी ख्यालों की तरंगेउठाता रहता है,
दुनिया का ही सिमरन करता हैजन्मों सेउसेबाहरी संसार में भटकनेकी आदत हैअतएव इस सिमरण केसिमरन द्वारा हो काट
सकतेहै, जिस प्रकार पानी की मार सेमारी खेती फिर पानी सेही हरी होती हैपरमातमा केसिमरन सेजो किसी पूर्ण संत द्वारा
समझा दिया जाता है। कई लोग माला सेजाप करतेहैंतो ख्याल दो ओर होता हैएक ओर मनकेफेरनेमेंव फिर मेरूपर पहुँच माला को
उलटानेमें जिससेपूर्ण एकाग्रता नहीं हो पाती माला फैंरतेमन साथ रहनेका कुछ लाभ रहता हैपर आदत पड़तेही उँगलियांमनके
फेरनेमेंलगी रहती हैंव मन बाहर दौड़ता रहता हैकबीर कहतेहैंकि मन की माला सच्ची हैअन्य मालाएंनकली हैंसांसारिक दिखावे
हैं। अगर हाथमाला फेरतेरहेतो आत्मा सिमट कर अन्दर कैसेजाएगी अगर आत्मा अन्दर जाती हैतो हाथ माला नहींफेर सकतेमन
की माला सेही मिलाप संभव हैआत्मा न सिमटी उंगलियोंद्वारा किया गया जाप भी रेखाएंगिनतेरह जाना होता हैयदि मन की माला
फेरी जाए तो कहतेहैंकि अंदर परदा खुल जाएगा व अन्तर मेंप्रकाश हो जाएगा इसी प्रकार कंठ मेंया
हृदय मेजाप करनेसेभी त्रुटि रह जाती है, सिमरन की एक अन्य रीति हैयोगी जन प्राणों की हिलोर केद्वारा सिमरन करतेहैंमन
की वृतियां रूकती हैपर केवल थोडेसमया केलिए तो यह साधन भी दोष - युक्त है। यूं संत उन ऊँचेदेशों केस्वामियों केनामों का
सिमरन करतेहैंजो मनुष्य केअंदर हैसंतोंकेनाम सिमरन सेसिद्धि होती हैवेअन्त मेंसिमरन द्वारा मन व आत्मा केस्थिर होनेपर
अनहद की धुन सुनाई देती हैजो आत्मा को खींचकर उपरी मंडलोंमेलेजानेका साधन हैजपुजी अनुसार निरंतर सिमरन मालिक के
महल पर चढ़नेकी सीढ़ी हैअनमोल साधन हैव प्रभुकृपा सेकिसी श्रेष्ठ भाग्य वालेविरलेमनुष्य को सतगुरूसेप्राप्त होता है।
जब सिमरन द्वारा आत्मा सिमट कर तीसरेतिल में आजाती हैतो वहां ठहर नहीं पती, संतो नेवहां ठहरानेका उपाय ध्यान बताया
प्रायः मनुष्य जिसका ध्यान करता रहता हैउसी का रूप बनता हैअत संसार की कोई भी वस्तुहमारेध्यान केयोगय नहींक्योंकि पाँच
तत्वीय मनुष्य का चोला अन्य कम तत्वीय जीव जन्तुओंबनस्पति आदि सेश्रेष्ठ हैअतः किसी मनुष्य का ध्यान करना ही उचित
होता हैपर किस का और क्योंध्यान करें ? मनुष्योंमेवह मनुष्य जिसनेअन्दर पर्दा खोल अपनी आत्मा को परमात्मा सेजोड़लिया
हैवह हमारी पूजा व ध्यान केयोग्य हो जाता हैवैसेतो सर्वश्रेष्ठ ध्यान प्रभुका हेपर कठिन / असंभव हैकि जिसेदेखा नहींउसका
ध्यान कैसेकरें योग्य जब तक नहीं बनतेउसेदेखनेकेतब तक संत-गुरूका ध्यान करना चाहिए। कि वेबुंद सेसमुद्र हो चुकेहे
प्रकट रूप मंबूंद होतेहुए भी समुद्र मेंसमाए हुए होतेहैमहात्माओंकेचित्र मूर्तियांआदि स्वयंमेंजड़पदार्थ हैनिर्जीव हैंउनका
ध्यान आत्मा को जो शुद्ध चेतन हैकिस प्रकार नौ द्वारोंसेखींचनेमेंसमर्थ हो समता हैचित्र याद ताजा तो करतेहैंपर वह वस्तु
नहींदेपातेजो हमेंजीवित महात्मा प्रदान कर सकतेहैं, चेतन को तो चेतन ही खींच सकता है, इस तरह जड़सेजुड़जीव संसार मेंही
फँसा रहता है।
ध्यान सिमरन की गूढ़अवस्था का ही नाम हैजिस तरह सीढ़ियोंकेबगैर हम किलेपर नहींचढ सकतेसतगुरूकेध्यान बिना प्रभुतक
नहीं पहुच सकते, सतगुरूकेध्यान बिना प्रभुतक नहीं पहुँच सकतेनही आत्मा स्थिर हो सकती हैइस क्रम में पुराने / गुजरेहुए
महात्मा हुए महात्माओं का ध्यान भी काम नहींआतां जीवित सतगुरूसच्चेनाम की धारा ही हैजो आत्मा को अपनी ओर खींचती है
ऊपरी मंजलोंमेंलेजाती हैव अंत मेंउसेप्रभुसेअभेद मंडलो मेंलेजाती हैव अंत मेंउसेप्रभुसेअभेद पर निर्वाण पर प्राप्ति तक
सहायक ही नहींसंग-संग चल मार्ग दर्शन करती है।
इस प्रक्रिया में तीसरी सीढ़ी धुन सुनना हैजब सिमरन व ध्यान पूर्ण होता हैतब धुन खुद जाग उठती हैशब्द धुन सुनना संतों की
भाषा मेंभजन भी कहलाता हैजो आत्मा केकानोंसेही सुनी जाती हैआत्मा का इससेसहज स्वाभाविक संबंध हैआत्मा प्रभुअंश है
व प्रभुखुद ही शब्द धुन हेइन तीनों का अटूट संबंध हैकाया केनौ द्वारा प्रकट हैंपर दसवांगुप्त हैऔर उस पर वज्र कपाट लगे
हुए हैं।
गुरूप्रदत्त नाम केअभ्यास सेयह खुलता हैव इसमेंअनहद नाद की गूँज सुनाई देती हैघट मेंप्रकाश हो जाता है। यह सब ग्रंथो के
पठन-पाठन सेनहींमिलता कोई चाहेचारों वेद अठारह पुराण या छहोंदर्शन पढ़ / सुन ले, सारी विधाएं भी नाम की धुन तुल्य नहींहो
सकती । मन करोड़ोंयत्न सेवश मेनहींआता योगो युक्तियांलगा - 2 हार जातेहैंज्ञानी तपस्वी, तपकर करकेथक जातेहैविद्वानों
की बुद्धि चतुराई मन को वश करनेमें कभी काम नही आती कि उसकी दवा केवल नाम - धुन सुनना हैजिसका प्रभुनिर्मित नियम
संत द्वारा नाम-दान व उसका अभ्यास ही होता हैबस और कुछ नहीं प्रत्येक धर्म में भजन-कीर्तन प्रचलित हैमंदिरों में आरती
समय हरि - कीर्तन व नृत्यसाथ घंटे-शंख बजाए जातेहैंसिक्ख धर्म मेंकीर्तन का विशेष महत्त्व हैगिरजा घरोंमेंभी घण्टेबजतेहै
व मधुर स्वरमय गीत गाए जातेहैं बोद्ध जैन धर्म में भी मंदिरोंमेंघण्टेहोतेहैं सूफियोंमें संगीतमयी कव्वालियों का काफी रिवाज है
और इन सब बाहरी आवाज़ों पर हिरण समान मोहित हो मनुष्य अज्ञान में जकड़ा रहता हैइन बाहरमुखी संगीत व रागों का पारखी
होनेपर भी उसेआंतरिक शब्द का जानकार या शब्द-भेदी नहींकहा जा सकता । अमिलो या अभ्यासियोंकी कमी केकारण साधारण
जन बाहरी शब्द या वर्णनात्मक शब्द की सीमा मेंही रह गए जो फैलेमन को इकट्ठा करनेमें किसी सीमा तक तो सहायक होतेहैं
बाहरी आवाज भी हमेंखींचती जरूर हैपर आत्मा को आत्मिक मंजिलोंपर नहींलेजा सकती इस सेजीव तीन गुणोंमेंही फँसा रहता है
व मनुष्य जन्म निष्फल रहता चला आया हैउस पूर्ण चेतन आंतरिक संगीत केद्वारा ही जीव त्रिगुणातीत होता हैव तभी उसका
सच्चा कल्याण होता है।
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