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6 नवम्बर 2023

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दु:खी मन राय (विगत खंडों के सभी जन का मिश्रण / व्यक्तित्व) अंत्तः स्वयं को ऐसे मुकाम या मचान के समीप पाता है जहां प्राय: उम्र देखकर तो जिंदगी की ढलान कह देते हैं पर वह अनुभव कहता है कि बाम पर है, मचान पर है जहां उसकी गहराई में बहुत कुछ है सबसे बड़ी पूंजी तो जानकारी है, बोध है जिसे और तराशने खराशने को अनुभवी सक्षम गुरुदेव मिले हैं जो इतने प्रभाव विस्तार लिए हैं कि उसके अति आत्मीय जन- अंतरंग सखे, उसके ही प्रतिरूप सभी मित्र संगी जन सहायी प्रवृत्ति वाहक-वाचक यानी खुद विक्र मार्क व अन्य घनिष्ठ जन अस्तित्व बोध, सुबोध राय, घुमंतु भाई, मियां लोभ लाभ जी श्री आदिनाथ, माननीय अपरिपक्व सिंह जी एवं दुखी मन राय साहब सब एक साथ उसके अंग-संग प्रत्यक्ष खड़े हैं, अर्थात साथ भीतर पहले भी रहे, सदा रहे सदा निर्देशित करते आए, कभी हँसाते कभी रुलाते आए; कहीं फजीहत करवाई कहीं जूते फिंकवाए चाहे चतुराई से हर कठिनाई से बचाते भी यही आए और जो कोई समाज विरोधी कृत्य करवाए उस संबंध में खिल्ली उड़वाने से बचाने हेतु आवरण चढ़ाते पाए गए पर आज अंतरात्मा भी खुली खिली खड़ी थी कि स्थान ऐसा था जहां समग्र दृष्टिकोण ओझल को, कर्ता कि मौजूदगी का एहसास बहुत दूर से ही हो रहा था, आज वह सगुण सम एक संत - सतगुरु रूप में न केवल झलक दिखला रहा था बल्कि खुल कर हँस बोल रहा था, प्रश्नों के उत्तर के माध्यम से सबके दिल टटोल-टटोल कर उन के हृदयों की जिज्ञासाओं, शंकाओं का विशेष उत्तर द्वारा शमन कर रहा था । यहाँ किसी तर्क-वितर्क को आधार मानना निरर्थक था कि सभी गुणी -- अवगुणी संगी भी साकार साष्टांग नमन कर रहे थे व हर क्यों कैसे कारण प्रमाण सिद्धांत, आधार आदि हर बात को ताक पर रख बार-बार अन्तर की अनुभूतियों से नतमस्तक होते नज़र आ रहे थे संभवत: समग्र परिवेश ही किसी अलौकिक प्रकाश या किरणों के प्रभाव से समग्र जग से अलग अनुभव हो रहा था, सब ओर जन समूह का फैलाव बता रहा था कि यह जगह धरा से विशिष्ट है कि स्वयं प्रभु के पदार्पण ही नहीं कर्म स्थली या धरा के मुख्यालय सम है जहाँ से संदेश धरा की सारी जनता तक पहुंचता है और पृथ्वी के कोने-कोने से विवेकी, प्रेमी जन यहाँ आते-जाते रहते हैं, व गुरुमंत्र भी हर देश-जाति के जन पाते हैं । यहाँ का ज्ञान पूरी दुनिया की धार्मिक गोष्ठिइयों, कथा-वचनों-प्रवचनों, पाठ, अखंड पाठ आदि के संदेशों से भिन्न यूं था कि जब खुद रचयिता ही सब बयां करता हो तो बात सीधे दिल तक ही नहीं आत्मा तक पहुंचती है और युगों-युगों की बिछड़ी विरही की अंतराग्नि पर शीतल फुहारों का असर, हर्ष स्तर पर उजागर होने लगता है ।
इस क्रम में उफान तब और बढ़ने लगता है जब अभीष्ट जानकारी औरों के प्रश्नों के माध्यम से निरंतर बरसने लग जाती है, गुरू फरमा रहे थे भाई ! करनी करो, लेकिन सतगुरू की दया का आसरा ले कर । नाम बड़ी अनमोल चीज है अगर शीश देकर भी मिल जाए तो ले लो, सस्ती है नाम जाप करने वालों के पास तो यमदूत भी नहीं आ सकते। जब तक ध्यान शब्द-धुन से नहीं जुड़ता, तब तक मनुष्य भार ढोने वाले जानवर की तरह काम कर रहा है व उसे कभी भी शांति नहीं मिल सकती, सिवाय नाम के कोई कर्म नहीं, जो बंधनों से आज़ाद कर सके मुक्ति है तो नाम में। अगर अंदर की लज्जत लेनी है तो नाम रस लेना है तो शराबों-कबाबों, दुनियावी भोगों से नफरत करो, जितने ऐशों - इशरत है, उतने ही दुःख, जितने भोग उतनी ही बीमारियां । हम दुनिया के कामों में दस-बारह क्या चौदह घंटे भी दे देते हैं, पर नाम की ओर घंटा, दो घंटे भी नहीं लगाते। यह सारी दुनिया परमात्मा की बनाई हुई है, मनमुख, पापी, पुष्यात्माएं भी, लेकिन जो नाम की कमाई करते हैं वही उसकी दरगाह में जाते हैं, बाकी नहीं । शब्द धुन के लिए जितना अधिक हमारा प्रेम होगा उतनी ही अधिक हमें शांति मिलेगी व रूहानी उन्नति। सारे जपों का जप, सारे तपों का तप, संपूर्ण संयमों का संयम, समग्र पवित्रता या शुचिता का निचोड़ - वह नाम ही है।
नाम की महिमा बयां करने के लिए संतों को भी उचित शब्द नहीं मिलते कि उसका नमूना दुनिया में है ही नहीं, अल्लाह, परमेश्वर आदि लफ़्ज हैं नाम नहीं जो केवल आत्मा को नाम के साथ जोड़ने के लिए है, समझाने-बुझाने के लिए है। सच्चा कीर्तन (शब्द) सबके अंदर हर समय हो रहा है अखंड है हम सो जाते हैं, वह नहीं सोता पर हमें मिलता नहीं सौभाग्य से गुरू कृपा से मिल सकता हैं गुरू-से-गुरू मांगो या प्रभु, सचखंड के अतिरिक्त कुछ नहीं मांगना चाहिए । संसार में गुरू सम हमारा कोई सहायक नहीं गुरू- तुल्य तो गुरू ही है। गुरु की उत्तम सेवा यह कि शिष्य उद्देश्य का पालन करें। आंतरिक गुरु साथ है सदा आपके - जो भीतरी दरवाजे पर आपके पहुँचने पर स्वागत करने के लिए बड़ी उत्सुकता से इंतज़ार कर रहा है । पर सतगुरु के नूरी स्वरूप के दर्शन कर लेंगे तो गुरु हर जगह नज़र आएगा व मन इतना शक्तिशाली हो जाएगा कि दूसरों की कमियों को देखकर उन्हें दोषी ठहराना आपके लिए प्राय: असंभव हो जाएगा। गुरु को सेवक अपने बच्चों से भी अधिक प्यारे होते हैं तो बाल-बच्चे केवल संसारिक धन - दौलत के हकदार होते हैं जबकि सत्संगी उनकी रूहानी दौलत के हकदार होते हैं। नाम दान के चुनाव में गुरु कभी भी गलती नहीं करता केवल उन्हीं को नाम मिलता है जिन्हें मालिक वापस बुलाना चाहता है, वह मालिक अपने कुछ चुने हुए जीवों को ही शब्द भेद देता है गुरु दाता है मांगता नहीं देने आता है कुछ लेने नहीं पुन: सिमरन भी सुहाता है कि अजीब कारीगरी है, हवा मिट्टी अग्नि पानी व आकाश का पुतला बना उसके अंदर करोड़ों खजाने रखे हैं, करोड़ों देश खंड ब्रह्मांड बल्कि खुद मालिक इसी अंदर रहता है; अंदर चढ़ो वह देखो अकाल पुरुष ने क्या-क्या रखा है, लेकिन हम मन के मुरीद हैं; मुर्शिद के शिष्य नहीं यदि बने तो तुरंत पर्दा खुल जाता है क्योंकि इस चौथे स्तर के युग में सदाचार निम्न स्तर पर है तब भी संतगुरु आकर सत्संगी जीवों की विशेष संभाल करते रहते हैं। इतना सुनने के पश्चात यह बंदा अपने अभिन्न दोषी अंगों संग कुछ निराश उदास हो जाता है पर मंच से बहुत कुछ नव-नव आता जाता है जो परे-से-परे, ऊंची-से- ऊंची अवस्था अकाल पुरुष की है वह सतगुरु है जो हमारे अंदर है लेकिन जब तक देह स्वरूप में ना मिले हमें कोई फायदा नहीं: भजन के लिए सत्संग उसी तरह है जिस तरह फसल की रक्षा के लिए बाड़, सत्संग वह पानी है जिसके द्वारा भजन ताजा वह हरा भरा रहता है अतः सत्संग में लगे रहो, सुलगती आग को फूंक मारते रहेंगे तो किसी-न-किसी दिन भड़क ही जाएगी, अगर संतो के पास रहने व आज्ञा पालन करने का प्रभाव शीघ्र प्रतीत न हो तो निराश नहीं होना चाहिए क्योंकि अभी हमारे जन्म-जन्म के संस्कार मन में भरे पड़े हैं जो धीरे-धीरे दूर होंगे जो पहले तो दब जाते हैं फिर धीरे-धीरे मिटते चले जाते हैं। अतः तब तक संतो की सेवा में लगे रहना चाहिए व विश्वास हो कि एक दिन यह संस्कार अवश्य दूर होंगे अति अंतरिक संस्कारों को धोने के लिए समय की आवश्यकता होती है, यह जल्दबाज़ी का काम नहीं है। गुरु मिलाप, सत्संग, नाम मिलना, सर्वोच्च सौभाग्य होता है पर कमाई ना कर व्यर्थ नहीं गंवाना चाहिए, सफलता तभी मिलेगी जब दिल में सतगुरु प्रेम के सिवाय और कोई प्यार बाकी ना रहे। भजन में किसी-न-किसी वजह से नागा होने पर और अगर सच्चा पश्चाताप हो तो वह अपने में एक तरह का भजन है ऐसी भावना से मन अंदर की ओर झुका रहता है वस्तुतः अभ्यास में बिताए गए हर क्षण की गिनती होती है जिसे सिमरन से प्यार नहीं उसे गुरु के इश्क की हवा तक नहीं लगी मानो जबानी जमा खर्च सेवह नहीं मिलता जो सिर दे नहीं सकता वह प्रभु को भी नहीं पा सकता अत: दुनिया वी प्यार छोड़ना जरूरी है ।
फिर रहस्योद् घाटन हुआ कि जब ध्यान तीसरे दिल में जाता है तो गुरु के साथ प्रेम पूर्ण बातें होती है, 'ध्यान की एकाग्रता हो जाती है वहां घंटे की धुन सुनाई देती है वह अवस्था अनोखी है जिसका वर्णन जुबान नहीं कर सकती, सफलता हेतु मौन, कम खाना, कम सोना व एकांत (जहां तक बने अकेले रहना) की कोशिश को प्राथमिकता दी जाती है, वही लाभकारी होती है, भजन के समय नींद आए तो साधक को उसका लाभ उठाते हुए तीसरे तिल में जाने का प्रयास यूं करे कि उनींदा पन हो पर बिल्कुल सो नहीं जाओ, यह 'जाग्रता निंद्रा' की अवस्था बड़ी आनंद प्रद हो सकती है, कुछ दिन अभ्यास करें व देखें कि यह आंतरिक उन्नति में कितनी सहायक होती है पर सावधानी रखते देखें कि न तो सो जाएं न पूरी तरह से जागते रहें इस अवस्था में हमारा मन ब्रह्मांडी मन के साथ एक हो जाता है और कई नज़ारे व दृश्य देखता है व भजन करते समय और भजन के बाद कभी न सोएं, प्रतिदिन भक्ति हो, मन के साथ ज़बरदस्ती भी करनी पड़े तो जरूर करनी चाहिए क्योंकि यही चीज अंत समय हमारे साथ जाएगी। बड़ी ओच्छी बात है कि अगर कोई हमारी अकला नुसार भक्ति नहीं करता तो उसे बुरा भला कहे या डंडे तलवारें लेकर डराने धमकाने लगें, हमें प्यार से समझाना चाहिए कि देख भाई हमें इस राह पर चलकर यह फायदा हुआ है अगर तेरी समझ में आता है तो तू भी इस राह चलकर फायदा पा सकता है, हमें चलते. फिरते उठते बैठते भी शब्द नाम की कमाई में लगे रहना चाहिए
सतगुरु किसी देश विशेष के लोगों के नहीं होते, पूरी दुनिया के होते हैं और कैसे होते हैं यह उदाहरण अमेरिकी शिष्य जूलियन पी जनसन (शिष्य संत महाराज सावन सिंह के संबंध में उनका पत्र दिनांक 9.8.1932 कराची भारत से प्रकट होता है)
''प्रकाश स्वरूप सतगुरु के पर्याय अमेरिकन बच्चों, समय आ गया है कि मैं आपको भारत में अपने अनुभवों के बारे में एक और विवरण भेजूं गुरु से मुलाकात के 2 माह बाद 2 तारीख को मैंने डायरी में लिखा है " पिछले 25 वर्ष से मेरी प्रार्थना व कामना थी कि कभी वह दिन आए जब मैं किसी सतगुरु के सामने खड़ा होऊँ पर मात्मा का शुक्र है कि अब मैं उनके चरण कमलों में बैठता हूं उनकी आंखों में टकटकी बांधकर देखता हूं और उनकी प्रेरणा भरी वाणी सुनता हूं जब वे सत्संगि योंब, गैर सत्संगियो के सामने अपनी शिक्षा के ऊँचे सिद्धातों की स्पष्ट व्याख्या करते हैं; मैं हैरान हूं कि यह कैसे हो गया, पर है यह एक सत्य कि जिससे मैंने अनुभव किया है इस सुंदर सत्य की मेरी अनुभूति दिन प्रतिदिन और अधिक तेज होती जा रही है; और सतगुरु की पुनीत उपस्थिति मेरी आत्मा को प्रतिदिन और अधिक आनंद विभोर कर देती है फिर कह चेतना पर सतगुरु प्रभाव गहराता जा रहा है कोई नव जिज्ञासु उसका अनुमान भी नहीं लगा सकता, कई बार तो बरसों लगातार उनके साथ रहने पर भी सत्संगी पूरी तरह से समझ नहीं पाता कि वे वास्तव में क्या हैं, मन बहुत नादान है और युगो से अंधेरों में भटकता रहा है पर परमपिता बड़ा दयालु है जो पिघल जाता है वह देह स्वरूप सतगुरु उस निरंकार का प्रत्यक्ष रूप होता है वही साकार सत्य है वह एक छोर पर मनुष्य है और दूसरे छोर पर परमात्मा। मनुष्य चोले में होते हुए भी उसका तार मालिक के साथ निरंतर जुड़ा रह जाता है, हम सतगुरु द्वारा परमात्मा से जुड़ते हैं तो हमारे अंदर उसके जरिए प्रेम भक्ति जाग्रत करता है उसके आदेश गुरु द्वारा मनुष्य तक पहुंचते हैं और मनुष्य की भक्ति व प्रार्थना सतगुरु के ज़रिए ही प्रभु तक पहुंचती है। सतगुरु देह धारी शब्द है जब हम उसे अपनी श्रृद्धा व भक्ति अर्पित करते हैं, तो हम तुरंत अपने अंदर के शब्द से जुड़ जाते हैं, गुरु भक्ति वास्तव में शब्द की ही भक्ति है तब शब्द और कोई नहीं कुल मालिक ही है तब उस सर्वोच्च शक्ति तक तुच्छ असमर्थ जीव अपनी कोशिशों से उस तक नहीं पहुंच सकता तब प्रभु खुद नीचे उतरकर मनुष्य के स्तर पर आकर अपना हाथ पकड़ा उस तक पहुंचाता है मन के काबू करने में भी वहीं सहायक रहता है मौलाना रूम इसीलिए कहते हैं तू कोयल की तरह दिन-रात कूकू करके अपनी विरह को जुबान दे और दर वेशों (संतो) से गुप्त रूहानी खजाने का ज्ञान ले, तू मुर्शिद की दर - दर, गली-गली घूम कर तलाश कर, उसकी तलाश कर और तलाश कर तभी उसके सच्चे रबी ईश्वरीय रूप को पहचान सकेगा यह तो रब जाने तुझे मेहनत का फल मिलेगा या नहीं पर तू कोशिश में कमी ना कर । रूहानी ज्ञान का केवल अनुभव ही किया जा सकता है उसका वर्णन या व्याख्या संभव नहीं देहधारी संत ज्ञान का सागर है; जो सर्वोत्तम होता है वह निरंतर अपने स्रोत, प्रभु से जुड़ा रहता है वह जहां भी मौजूद होता है वहीं रूहानियत का वातावरण पैदा हो जाता है - जो भी उसके संपर्क में आता है वह अपनी योग्यता व ग्रहण शीलता अनुसार लाभ उठाता है जैसे रोटी, पानी शरीर के लिए आवश्यक है उसी तरह से गुरु शिष्य की आत्मा का आधार होता है, उपदेश से उत्तम उदाहरण अनुसार गुरु वही सिखाता है जिसका अनुभव उसे खुद रहता है, यानी अभ्यास वह जीता जागता प्रमाण है अनुभव का न कि उसकी शिक्षा किताबी है बल्कि अमली है तो हम भी उसकी तरह इस संसार में मोह के बंधनों से परे हो सकते हैं; उसकी दीक्षा रूहानी यात्रा में कदम - कदम पर सहायक होती है; सतगुरु का हुकुम हर रूहानी मंडल में चलता है क्योंकि वह स्वयं प्रभु द्वारा नियुक्त है | बाइबल अनुसार, क्योंकि परमात्मा ने उस पर अपनी मोहर लगाई है अतः अपने निजधाम पहुंचने की आशा सत्संगी अपने सतगुरु के सहारे ही कर सकता है, खुद अपने बूते पर कभी नहीं; सच्चा रुहानी ज्ञान किसी अधूरे या भेष धारी गुरु से कभी प्राप्त नहीं हो सकता जिसमें खुद भवसागर पार करने की शक्ति न हो वह औरों को कैसे पार लघा सकता है इसे कबीर साहिब ने यूं स्पष्ट किया जा का गुरु है आंध्रा चले निपट निरंध ( अंधे अंधा ठेलिया, दोऊ कूप परंत) ऐसे ही नानक साहब फरमाते हैं कि गुरु जी नां का अंधला चेले ना हीं ठाव, बिन सतगुरु नाओं पाई ए बिन नावैं क्या सुआओ । आदि ग्रंथ (पृष्ठ 55 ) भावार्थ यह है कि जिसका गुरु अंधा है उस शिष्य का कोई ठिकाना नहीं मिलता, बिन सतगुरु नाम नहीं मिलता और बिना नाम जीवन व्यर्थ है ।
यदि किसी अंधे को ऑप्रेशन द्वारा दृष्टि मिल जाती है तो वह डॉक्टर का कितना एहसान मानता है, अंदर की आंख तो बाहर की आंखों से लाखों गुना अधिक मूल्यवान है इस बिना हम परमात्मा के दर्शन नहीं कर सकते व जन्म मरण में भटकते रहते हैं । संत मौत लोक और सचखंड के बीच चल रहे नाम के जहाज के कप्तान हैं। सच्चे संत अंधकार से प्रकाश तक पहुंचने का मार्ग ही नहीं बताते बल्कि वे खुद अलग-अलग आत्मिक मंडलों में हमारे साथ रह कर हमारी अगुवाई करते हैं व हमारे सच्चे मित्र, साथी व मार्ग दर्शक हैं। सतनाम का अर्थ है, सच्चा नाम या प्रभु का शब्द । परमात्मा का कोई नाम नहीं है वह अनामी है पर उसके भक्त उसे अनेक नामों से याद करते हैं जो वर्णनात्मक होते हैं जो उस अनंत के किसी गुण को प्रकट करते हैं जैसे करतार, (कि वह रचना करता है, रहीम की वह रहम या दया का स्रोत है समय अनुसार सब बोलियां खत्म हो जाती है' और यही हाल प्रभु के उन सब नामों का होता है पर सत का भाव है अविनाशी जो कभी नहीं मिटता, जो संपूर्ण स्थाई हो, यह वह रचनात्मक शक्ति है जिसका कोई आदि या अंत नहीं; गुरु अर्जुन, जिहवा तेरे कृत्रिम नामों को दौहरा सकती है पर सतनाम तेरा आदि नाम है किरतम नाम कथे तेरे जिह्वा सतनाम तेरा पर पूरा बल्ला आदि ग्रंथ 1083.
जीते जी मरने से भाव है कि मौत से डरना नहीं यह तो आत्मा का शरीर से विदा होने को दिया गया नाम है न कुछ घटे न बढ़े, रूप बदलता है बस । संतों के लिए मृत्यु कोई रहस्य की बात नहीं है, वह तो अपने मानवीय शरीर को छोड़कर नित्य ऊंचे मंजिलों की यात्रा पर जाते हैं उनकी संगति से सब मृत्यु पर विजय की विधि सीख सकते हैं। शरीर को छोड़कर जाने पर भी अभ्यासी को पूरा होश होता है और वापिस लौटने पर अंदर के दृश्य और अनुभव उसे स्पष्ट रूप से याद रहते हैं । जिस व्यक्ति की आत्मा उनकी मृत्यु से पहले ही रूहानी मंजिल में जा आती है वही जानता है कि जीते जी मरना क्या है । बुद्धि में यह रहस्य समझने की सामर्थ्य नहीं अतः सत्संगी ही बस मृत्यु के भाव से मुक्त हो सकता है बल्कि मौत खुशी की बात होती है पर उनकी जिन पर दया मेहर हुई हो, यह यथार्थ है कोई कल्पित कहानी नहीं । सार यह है कि मनुष्य पहले आया धर्म बाद में बने मनुष्य धर्म के लिए नहीं बना बल्कि धर्म मनुष्य के लिए बनाए गए। पहले सभी धर्मो का ध्येय प्रभु प्राप्ति था वह इनके मूल में मौजूद रूहानी आधार भी एक है, वस्तुत: उसका क्या नाम हो सकता है जब उसका कोई नाम है ही नहीं, उसे किसी भी नाम से पुकारा जाए वह जवाब देगा। आज आम आदमी के लिए कर्मकांड प्रभु से अधिक महत्वपूर्ण हो गए हैं, जो व्यक्ति किसी गुजरे हुए संत या उसकी धर्म पुस्तकों में विश्वास करता है उसे धर्मात्मा कहा जाता है; अफसोस लोग अपने ही महात्मा, धर्म ग्रंथों का आदर करते हैं पर दूसरों के महापुरुषों व ग्रंथों से घृणा जताने लगते हैं, यह संकीर्णता तंगदिली अमरबेल समान है जो धर्मों पर पलती है और धर्मो का ही खून चूसती है नतीजा यह कि धर्म के मूल तत्व का लोप होना, बस ढांचा रहता है, हम अन्य देशों के चिकित्सकों, वैज्ञानिकों को आदर भाव से देखते हैं पर मत हों या संतों को नहीं, यहां हम अपने महात्माओं की शिक्षाओं का ही अनादर कर रहे होते हैं कारण स्पष्ट है कि बाहर मुखी नीतियां सिद्धांतों पर जोर देने की वजह से आपसी दुर्भावना, भेद-भाव पैदा होता है इससे निपटने का एक तरीका है रूहानियत को एक विज्ञान के रूप में संसार के आगे लाना । मनुष्य जिस धर्म को चाहे अनुयायी बने पर साथ ही रूहानी विज्ञान का अभ्यास करने और अंतर में अपनी आत्मा को परम पुरुष के साथ जोड़ने में लगा रहे, यही मनुष्य का निजी रूहानी धर्म है यह व्यक्तिगत रूप से अंतर में परमात्मा को प्राप्त करना ही धर्म सार है।
संतों द्वारा बताया गया मत पूर्णता: विज्ञान आधारित है जैसे साइंस का विद्यार्थी प्रयोगशाला में जाकर दरवाजा बंद कर लेता है कि कोई शोरगुल उसका ध्यान न बंटाए, सारे औजार मेज पर रख लेता है, वहीं उसका अध्यापक समीप खड़ा रहता है, निर्देशानुसार प्रयोग शुरु करता है उसका पहला या दूसरा प्रयास भले ही सफल ना हो पर कभी अंत में अवश्य सफल हो जाता है। इसी प्रकार आत्मिक अभ्यासी अपने शरीर के अंदर अपनी वृति रूख को मोड़ता है, वह बाहर के द्वार बंद कर के अंदर के द्वार खोलता है, इस अंदर जाने का अर्थ है अपने ध्यान या ख्याल को बाहर से समेटकर शरीर के अंदर उसके स्थाई केंद्र पर स्थिर करना दूसरे शब्दों में बाहरी संसार में फैले हुए तथा शरीर के कण. कण समा उसे गतिशील करते खयाल को आंखों के बीच तीसरे तेल पर समेटकर लाना कि उसे अपनी कोई सुधि न रहे। उस समय अभ्यासी को अपने रूहानी मार्गदर्शक सतगुरु का ख्याल । स्वरूप ध्यान में रखना चाहिए ताकि ख्याल को टिक कर खड़े होने में सहारा मिल जाए। अंतत: शब्द आत्मा को प्रभु धाम पहुंचाता है, वही मूल घर है जहां से आत्मा सृष्टि रचना के समय उतरकर इस सुख-दुख वाले संसार में आई थी। विभिन्न प्रकार की विद्या प्राप्ति के लिए सब अलग अलग संस्थानों में जाते हैं तो प्रभु की खोज हो तो चाहिए हम सत्संग जाएं क्योंकि सत्संग में प्रभु स्वयं निवास करता है। चंचल मन को वश में करने का एकमात्र उपाय गुरु मुर्खो की संगति है; सत्संग में जाकर मन की शंकायें दूर होने लगती हैं, मिलाप की युक्तियां, विधियां रूपष्ट हो समझ में आने लगती है अत: सत्संग एक रूहानी पाठशाला के साथ-साथ एक अनोखा धोबी घाट भी है जहां मन के मैल धूल जाते हैं, प्रभु से प्रेम भक्ति की विधि सिखाई जाती है, सत्संग सबसे उत्तम तीर्थ है कि सुनने से भी अनेक प्रकार के पाप कट जाते हैं व मन विकार मुक्त होता है।
कुछ लोग थोड़ी सी सेवा भक्ति करके सोचते हैं कि उन्हें स्वामी के दर्शन क्यों नहीं हुए, यह ठीक है कि सेवा से प्रसन्न स्वामी वश में हो जाते हैं पर चरणों में कम-से-कम इतना प्रेम तो होना चाहिए जितना अपने शरीर, घर, पुत्री, स्त्री व धन-धाम से होता है, यदि इतना भी नहीं है तो सेवा प्रेम अपर्याप्त होता है, वह लजाने वाली बात करता है, स्वामी कल्पवृक्ष समान मनचाहा फल देने वाला होता है तो उसकी सेवा से जी चुराना निकम्मा पन दर्शाता है जबकि प्रीति ऐसे हो कि सेवक को त्याग भी दिया जाए तो वह स्वामी को छोड़ और कहीं ना जाए क्योंकि सच्चे सेवक को एकमात्र अपने स्वामी का ही सहारा होता है। ऐसे सेवक का फिर कोई कभी बाल भी बांका नहीं कर सकता, उसे किसी का डर नहीं रहता वह सदा के लिए अभय हो जाता है, सतगुरु की अलौकिक रूहानी शक्ति का हम अनुमान भी नहीं लगा सकते उनके समीप पर रहते हम कितने निश्चिंत व हर तरह के युद्ध के दौरान उमड़ने वाले खतरों से भी भय मुक्त हो सामान्य जीवन यापन कर सकते हैं, इसका प्रमाण महाराज चरण सिंह के एक शिष्य लुईस हिलगर के पत्र दिनांक अगस्त 19, 1965 से मिल जाती है जब वह डेरा राधा स्वामी व्यास पंजाब के प्रवास पर था, व पड़ोसी देश जिसकी सीमा डेरे से अधिक दूर नहीं थी उसने आक्रमण किया व डेरे से बिल्कुल साथ लगते सेना के शस्त्रागार पर भी गोले दागे। सितंबर 19, 1965 पृष्ठ 175 (पुस्तक अनमोल खजाना) कि यहां जो कुछ भी सीमा पर हो रहा है आप बीबीसी रेडियो पर सुन रहे होंगे। महाराज जी की दया मेहर से अभी तक हम पूरी तरह सुरक्षित हैं, वे बयास रेलवे स्टेशन पुल, और डेरे के सामने के शास्त्रागार पर बम डालना चाह रहे हैं बम दाएं और बाएं गिर रहे हैं लेकिन किसी लक्ष्य पर नहीं । लोग ज़रा भी घबराए हुए नहीं है लड़ाई में हिंदुस्तान का ही पलड़ा अभी तक भारी है वही हिंदुस्तान वही राष्ट्र अपने आप से युद्ध कर रहा है, कितनी शर्म की बात है। स्वतंत्रता के समय देश का विभाजन करना बड़ी भूल थी, किसी दिन इस बात को यह दोनों समझेंगे, हमारी फिक्र मत करो हमें डेरे से अच्छा कोई सुरक्षित किला नहीं मिल सकता था, महाराज जी की रक्षा का हाथ हम सब पर है, कभी-कभी मुझे लगता है कि मेरा वह पुराना व्यक्तित्व फिर से मेरे साथ है पर फिर मुझे अपने पुराने साथियों की कमी महसूस होती है और मैं कभी-कभी काफी दुखी हो जाता हूं। हमेशा इतने प्रेम और कृपा के बीच रहते हुए भी यह आश्चर्य है कि मैं फिर भी यहां नहीं हूं, मैं अच्छी तरह समझ सकता हूं कि तुम कितना अकेलापन महसूस कर रहे होंगे पर अगर दूसरे दृष्टिकोण से देखो तो तुम्हें खुश होना चाहिए कि कम-से-कम तुम्हें अपने लिए समय तो मिलता है और कुछ समय अपने साथ शांति व चैन से बिता सकते हो ।
अकेले रहना एक दुर्लभ मौका और सुविधा है खासकर जब कि हम परिवारिक जीवन के इतने आदी हो चुके हों । हम सोच सकते हैं अपने अंदर झांक सकते हैं तब पता चलता है कि हम व्यर्थ ही अपने आप को धोखा देने की कोशिश करते हैं कि कोई हमारा है या हम किसी के हैं। यह जान लेना कि हम अकेले हैं और इस दुनिया में हमारा कुछ भी नहीं है, परमपिता की देन है उसकी दया मेहर है, फिर हम स्वभाविक ही इस अकेलेपन को दूर करने के लिए उससे मार्गदर्शन और सहायता मांगते हैं और आखिर यही हमारा लक्ष्य भी है; फिर भी मैं इतना भाग्यशाली नहीं हूं मैं अकेला हो सकूं क्योंकि या तो सत्संग के कार्य मुझे घेरे रहते हैं या मित्र या परिवार जन फिर भी मुझे परिस्थिति के अनुसार निभाना और अपने आप में खुश रहना पड़ता है मैंने अपने आप को पूरी तरह उस कर्तव्य व ध्येय के प्रति अर्पित कर दिया है जो मेरे कंधों पर डाला गया है और अपनी तुच्छ कोशिशों से उन्हें अच्छी-से-अच्छी तरह पूर्ण करने में जुटा हूं। मैं अपने सतगुरु का बहुत कृतज्ञ हूं कि उसने मुझे इतनी ताकत बख्शी है कि इस रोज की दिनचर्या का पालन कर सकूं और व्यवस्था की परेशानियों का सामना कर सकूँ महाराज जी की निजी फाइल में से कुछ पत्रों के अंश ( 177 पुस्तक - अनमोल खजाना' शांति सेठी नौवां संस्करण 203 से यह सिद्ध ) होता है कि हमारी इच्छा - ध्येय व सेवा कार्य का रूख किस ओर होना चाहिए कि यह जन्म सार्थक हो व सर्वोत्तम सिद्ध हो जाए। हमारा गेस्ट हाउस अतिथि गृह करीब-करीब सभी राष्ट्रों से आए विदेशियों से भरा हुआ है (नवंबर 4, 1977) और वह मुझे अपनी व्यक्तिगत समस्याओं, मुलाकातों और शाम की मीटिंग की वजह से काफी व्यस्त रखते हैं । मेरा कार्य बहुत सुबह 3:30 या 4:00 बजे से शुरू होता है और रात को 10:00 बजे खत्म होता है दोपहर के भोजन के बाद 1 घंटे के विश्राम को छोड़कर मुझे जरा भी फुर्सत नहीं मिलती, इधर उधर जाने, लोगों से मिलने आदि में व्यस्त रहता हूं दुर्भाग्य से मेरे लिए कोई इतवार नहीं आता और छुट्टी के दिनों का तो सवाल ही पैदा नहीं होता । तुम्हें जानकर आश्चर्य होगा कि आज मैंने इस पद पर 26 वर्ष पूरे कर लिए हैं, मुझे विश्वास नहीं होता कि मैं इसको इतने समय तक निभा पाया हूं फिर भी मैं यहीं हूं व तुम्हारे पत्र का जवाब दे रहा हूं। कानून में यदि किसी को उम्र कैद की सजा होती है तो उसे 12-14 साल बाद छोड़ दिया जाता है लेकिन सच संतमत में उम्र कैद का मतलब है जब तक मृत्यु हम पर दया ना करे तब तक । फिर भी मैं अपने कर्तव्यों को निभा रहा हूं और मुझे अफसोस नहीं है बल्कि मैं तो अपने सतगुरु की दया मेहर और मदद का शुक्रगुजार हूं अपनी उम्र के लिहाज से मेरी तबीयत ठीक है पर मैं अक्सर थक जाता हूं संभव है कि अब यह उम्र का असर हो - उसकी दया मेहर से मुझे पारिवारिक या आर्थिक समस्याएं नहीं है। मई 21, 1980 पत्रानुसार, मैं अप्रैल भंडारे से ही बहुत व्यस्त रहा हूं पहले देहली में नाम दान था फिर उज्जैन में लग रहे कुंभ मेले को देखने के लिए मेरी यात्रा और वहां फोटो -ग्राफी देखने पर विश्वास हो जाता है कि धर्म के नाम पर किस तरह लोगों का शोषण हो रहा है, बीसवीं सदी में भी लोग जितने अंधविश्वासों और अज्ञानता में रह रहे हैं और उनके लिए ईश्वर प्राप्ति के सबसे जरूरी और अंतिम साधन रीति रिवाज - कर्मकांड आदि ही हैं चाहे फोटोग्राफी की दृष्टि से तो वहां स्वर्ग ही था, हजारों आदमी और औरतों का गंदे पानी में स्नान और प्रायः नग्न घूमते फिरना, खासतौर पर आदमियों का अपने शरीर पर राख मलना और जनता का उन्हें आदर पूर्वक नमन करना । ( पत्र मार्च 22, 1984 पृष्ठ 183) पंजाब में चारों ओर फैले तनाव का कोई अंत दिखाई नहीं दे रहा है, मालिक की दया मेहर से हम यहां कलोनी में बिल्कुल शांति से हैं हालांकि सब ने समझ लिया है कि हम ज्वालामुखी पर बैठे हैं ।
यह बड़े शर्म की बात है कि लोग धर्म के नाम पर एक दूसरे से घृणा करते हैं गले काटते हैं जबकि प्रभु के लिए प्रेम भक्ति जाग्रत होनी चाहिए जब हम संतों के असली उपदेश को भूल जाते हैं और उन्हें व्यर्थ के कठोर संगठनों में जकड़ कर धर्म या संप्रदाय का रूप दे सकते हैं तो ऐसा ही होता है, धर्म यदि हमें देवता नहीं तो कम-से-कम इंसान तो बनाए ।
आप जानते हैं कि ये लोग हमें किस दिशा में ले जा रहे हैं, जब कोई रूपए - पैसे लेने वाला पुरोहित - पुजारी किसी संत की शिक्षा का प्रचार करने लगता है तो उस शिक्षा का रूप तो बदलेगा ही । लोगों का धर्म के नाम पर शोषण होता है, उन पर अत्याचार होते हैं पुरोहित और राजनीतिक नेता अपने अंह-भाव को पूरा करने व अपनी जेबें भरने में दिलचस्पी रखते हैं न कि संतों महात्माओं के उपदेश को जानने, समझने और उन पर अमल करने में। ..... खैर, हम सब अब यहां पूर्ण सुरक्षित है। मई 19, 1984 ....... पंजाब की परिस्थिति भयानक है और हर रोज बदतर होती जा रही है - चारों ओर गोलियां चल रही है, पर मालिक की दया - मेहर से डेरे में शांति व अमन चैन है और हम इसे बनाए रखने की पूरी कोशिश कर रहे हैं। आश्चर्य यह है कि इस सब के

बावजूद सत्संग में हर रोज़ ज़्यादा लोग आते जा रहे हैं और अब हमारे संक्रांत तथा इतवार के सत्संग छोटे भण्डारे जैसे हो गए हैं जुलाई 11, 1987 :- मैं नहीं जानता इस प्यारे प्रांत का क्या होने वाला है यह बड़े शर्म की बात है कि लोग वहीं खून बहा रहे हैं, जहां इतने संतों और सतगुरुओं ने लोगों को प्रभु प्रति प्रेम व भक्ति से भरपूर कर दिया था, इंसा - को - इंसा के पास ला दिया था लेकिन महाराज जी की दया - मेहर से यहां कॉलोनी में और ब्यास अस्पताल में सब ठीक है ।
देहली सत्संग 25-11-1989 दौरान स्वयं महाराज ने फरमाया कि विज्ञान आधारित इतनी तरक्की व सुख-सुविधा जनित जिन्दगी के बावजूद फिर हमें महात्मा लोग दु:खी क्यों कहते हैं हमें हर चीज़ मिली हुई है - या तो हमारे सोचने में दोष है या महात्माओं के समझाने में कुछ फर्क है- जब झोपड़ियों में थे सारा परिवार एक जगह रहता - दिन भर काम करते - शाम को इकट्ठे बैठ खाना खाते - एक दूसरे प्रति प्रेम था, एक साथ नाचते, गाते हुए ढोलक आदि बजाते फिर रात को बड़े आराम से गहरी नींद सो जाते। फिर कोठियाँ बनाई कुल्लर, टी. वी., फोन लगे-पलंगों पर मोटे गद्दे आए पर नींद नहीं आती थी, गोलियां भी खानी पड़ती, सुबह उठते तो भी थके हुए से रहते । पहले माता-पिता की इज्जत थी, उन्हें बच्चों से बहुत प्यार था अब माता-पिता ही देर रात पार्टियों से वापस आते हैं सब सुबह देर से उठते हैं अत: संबंध बदले हैं सार यह है कि आज अमीर खा नहीं पाते कि हज़म नहीं होता, गरीब को ज़्यादा कीमतों कारण मिलता नहीं तब ज़्यादा पैदावार का फायदा किसे - ? अब लोग शादियां अपनी मर्जी से करते हैं वह बहुत जल्द तोड़ने पर भी आमादा रहते है पहले तलाक से पहले ही माता-पिता संबंधी मिल बैठ समझाते व झगड़े निपटा देते थे - अब दूसरी शादी भी फटाफट सुनाई देती है तो विकास का क्या लाभ व किसे हुआ । अब फुरसत में भी कोई नहीं लगता, घर लोग जो बैठकर हंस - खेल - बोल लेते रहे अब चैन नहीं । परिवर्तित जीवन शैली का नतीजा है हृदय रोग, शुगर, बी. पी पूरी जिंदगी कृत्रिम अब हँसना - रोना भूले, मुस्कानें भी नकली है व आंसू भी ।
यह विकास का दोष नहीं- हम चीजों के कैदी बन गए, जो फायदे के लिए बनी थी हम उनके पुर्जे बन रह गए- मालिक न बन गुलाम बने- अगर जीवन मूल्यों -विहीन बने तो तरक्की किसी काम की ? अतः कहा गया- "तजो मन यह दुःख - सुख का धाम " । यहां पाप-पुण्य की नगरी है हिसाब देने आते रहना पड़ेगा सुख - दुख दोनों मिलेंगे बेहतरी भक्ति में है - मालिक के प्यार में है सो " लगो तुम चढ़कर अब सतनाम " ।
संत किस तरह से प्रभु से घुले-मिले होते हैं इसका आभास उनकी इस शक्ति से होता है जो कि उन द्वारा नियुक्त / भेजे जाने वाले सत्संगकर्त्ताओं पर भी लक्षित होता है। जनवरी 20, 1964 के एक वृतांत अनुसार आपने कलकत्ता के उपद्रवों का हाल अखबार में पढ़ा होगा - संयोग से मैं इन दिनों सत्संग के लिए वही था मोहमडन पार्क में सत्संग था उस दौरे में अपनी जिंदगी का अनोखा अनुभव हुआ ।
जब मैं सत्संग कर रहा था हमारी नज़र के सामने गोलीबारी और आगज़नी हो रही थी, बन्दूकें चल रही थी । उस समय सत्संग में करीब तीन हजार व्यक्ति मौजूद थे, लेकिन उनमें से एक भी हिला-डुला नहीं और न ही चारों तरफ के हालात से कोई परेशान हुआ। ऐसा विश्वास व प्रेम देखकर आश्चर्य हुआ। सत्संग करीब दो घंटे चला और जैसे ही खत्म हुआ सेना ने इंतजाम अपने हाथ में लेकर वहां कर्फ्यू लगा दिया । हरेक सत्संगी सुरक्षित अपने घर चला गया, और हम में से किसी को भी कोई चोट नहीं लगी । भारत-पाक युद्ध के सारे समय में डेरे में ही रहने वाले एक सत्संगी का ब्यान था कि एक रात करीब दस बजे हमारे सचिव खन्ना साहब एक फौजी अफसर को हमारे पास लाए - वह बोला कि उन्हें खबर मिली है कि डेरे के पास फौज के गोला बारूद के डिपो पर रात को बमबारी होने वाली है, इस से डेरे को भी खतरा है। अफसर ने सुझाव दिया, “आप यहाँ खाइयां खोद लीजिए, हम लोग जरूरत के समय सायरन बजाएंगे, उस समय यहाँ के निवासी उन खाइयों में
चले जाएं। हमने कहा हमारे यहां के ज़्यादातर लोगों की उम्र साठ साल से अधिक है खाइयों में जाते समय उनमें से आधे तो पैर तोड़ बैठेंगे व कुछ खबर सुन बेहोश हो सकते हैं इस लिए यही ठीक होगा कि हम कुछ न करें। जो हो देखा जाएगा। फिर अफसर से पूछा कि डेरे के आसपास कितनी एण्टी एयर क्राफ्ट गन लगी है- पहले तो वह जवाब देने में झिझका, फिर बोला “केवल आप ही हमारी एण्टी एयर क्राफ्ट गन है " महाराज जी की दया - मेहर से डेरे में या नजदीक में, कहीं कोई दुर्घटना नहीं हुई सारा समय शांति से निकल गया, दो-एक दिन बाद सेना के गोला-बारूद के डिपो के आसपास कई एण्टी एयर क्राफ्ट गन जरूर लग गई ।
"लुईस हिलगर, जो उस समय वहां मौजूद थी, बोली कि युद्ध की वजह से लोगों को फिजूल ही कितना कष्ट व दुःख उठाना पड़ता है- मैंने जवाब दिया कि अगर राजनीतिज्ञों को लड़ने भेजा जाता तो उन्हें पता चलता कि सैनिकों पर क्या बीतती है लेकिन वे वातानुकूलित कमरों में बैठे रहते हैं व सैनिकों को युद्ध का हुकुम देते हैं अगर उन्हें मोर्चे पर भेजा जाए तो पता चले युद्ध क्या होता है ये आज के युद्ध तो पिछली सभी लड़ाइयों से बदतर है, बुरे हैं। अब तो नागरिकों को भी उतना ही खतरा होता है जितना जवानों को । शायद कुछ ज्यादा ही कि बचाव व सुरक्षा का कोई साधन तक नहीं होता, अगर आधी रात को बम गिरता है तो सैकड़ों के प्राण व्यर्थ ही चले जाते हैं, संत गुरु ने जिज्ञासुओं के पत्रोत्तर मैं एक बार लिखा कि हमारी पूरी जिंदगी असल में कर्मों का हिसाब चुकाने का एक सिलसिला है यह कहना मुश्किल है कि हमारे लिए क्या अच्छा है सब मालिक पर छोड़ देना व वह जो करें उस में खुश रहना बेहतर है। परेशान बिल्कुल न हों, भजन सिमरन की ओर ध्यान दें आप मालिक की मौज में रहकर ही खुश रहेंगे अपने रिश्तो में आसपास की हर चीज़ को इस दृष्टि से देखें कि यह संसार अपना लेन-देन निपटाने के लिए है- जो कुछ मालिक ने दिया है उसके लिए उसका शुक्र करें और अपने मन को भजन- सिमरन में लगाएं।
प्रेम का यह अर्थ नहीं कि हम अपने कर्त्तव्य न निभाएं, दुनियावी ज़िम्मेदारियों की ओर से मुँह फेर लें। प्रेम हमें एक आदर्श व्यक्ति बनाता है, औरों के लिए मिसाल बनाता है- तुम्हे देख सम्भव है और लोग भी संत मत के प्रति आकर्षित हों तो इस भावना के साथ कि सतगुरू हमेशा तुम्हारे साथ है व तुम्हारी सहायता कर रहा है, अपने परिवार के प्रति अपने कर्त्तव्य बराबर निभाओं । सतगुरू से प्यार करो पर परिवार का हक भी चुकाओ ।
ब्यास के संतमत के संतों की एक विशेषता यह है कि वे आमतौर पर अपने शिष्यों के प्रारब्ध में दखल नहीं देते। वे इस बात पर ज़ोर देते हैं कि अगर शिष्य प्रभु की रज़ा में राज़ी रहे तो रूहानी तरक्की में मदद मिलती है । वे व्यापार, परीक्षा, या मुकदमें में सफलता दिलाने की बात नहीं करते व न ही अच्छी नौकरी दिलाने का वायदा करते हैं; बल्कि इस बात पर जोर देते हैं कि हमें सुःख-दुःख, सफलता-असफलता, हर्ष - शोक आदि सभी में संतुलन या समता बनाए रखना होगा व अपना रूहानी अभ्यास इन बदलती हुई परिस्थितियों में भी करते रहना चाहिए। ऐश्वर्य व सुख के समय खुशी से फूल कर या दुःख व मुसीबतों से तंग आकर रूहानी अभ्यास करना भूल जाएं, तो फिर अभ्यास कब करेंगे ।
शिष्य को चाहिए कि ज़िन्दगी में जो कुछ होता है उसे शांति से भुगतें और अपना आध्यात्मिक कार्य संसार में रहते हुए करें। वे इस बात पर भी महत्तव देते हैं कि साधारण मनुष्य की तरह रहें व औरों से अलग नज़र आने के लिए किसी भी प्रकार का बाहरी दिखावा न करें ।
संत मत में नाम की कमाई, शब्द की कमाई व सुरत शब्द की कमाई; सब का एक ही अर्थ है। संत मत को सुरत-शब्द योग भी कहा जाता है क्योंकि यह सुरत या आत्मा को शब्द अर्थात प्रभु से जोड़ने का मार्ग है इसमें सुमिरन द्वारा फैले हुए ख्याल को नौ द्वारों से समेट आँखों के पीछे एकत्रित किया जाता है, पूर्ण एकग्रता में सूरत स्वयं नाम से जुड़ती है, शब्द जिसे खींच प्रभु - विलीन करता है । मुक्ति का यही एक मात्र साधन होता है । अत: संतमत एक विशुद्ध रूहानी दर्शन है जिसका उद्देश्य आत्मा का उद्धार है, जीव का आर्थिक या भौतिक विकास नहीं । संतमत जीव के आर्थिक, सामाजिक व राजनीतिक जीवन में हस्तक्षेप नहीं करता, न ही किसी राजनीतिक दल की किसी आर्थिक प्रबंधन या विचारधारा का समर्थन करता है, न ही विरोध हर जीव सांसारिक समस्याओं के प्रति अपनी सूझबूझ के अनुसार निजी दृष्टिकोण अपनाने को स्वतंत्र होता है । कभी घरबार त्याग को नहीं कहता है, न ही किसी धर्म विशेष या कर्मकांड की वकालत या विरोध करता है, गृहस्थ की सब जिम्मेदारियों पूरी करते हुए और निज धर्म में रहते नाम की अन्तर्मुखी साधना पर बल दिया जाता है, इन्द्रियों का दमन नहीं करना मन को साध कर रूहानी तरक्की के लिए कहा जाता है गुरूजन जिस प्रेम व पूर्ण विश्वास को जता बतलाते हैं प्राय: जिज्ञासु या साधक वह कार्य इतना सरल / सुगम नहीं पाते व शंका जताते हैं तब उन सफल साध-संतो के अनुभव कुछ इस प्रकार सांझा किए जाते है कि ज्ञान हो जाए कि वाकई संभव है बस प्रयास अपरिहार्य होता है पुनश्चः " अपने प्यार की पहली कहानी सुनते ही, मैंने तेरी तलाश शुरू करदी । यह सरासर मेरी नादानी थी, नासमझी र्थी प्रेमी अन्त में मिलते नहीं, वे सदा एक-दूसरे में समाए होते है।"
रूमी ।
“हैरान हूँ मैं दुनिया के लोगों पर, जो कभी खुद का भला नहीं सोचते ! लगता है उन्हें खुद पर बहुत गर्व है, पर अंत में कौन मददगार होगा उनका ! वे इतने लापरवाह क्यों है ? क्या जवाब देंगे वे मौत के फरिश्ते को ? क्या भूल गए हैं वे कि उन्हें भी मरना है ? किस बात से इतने खुश हैं वे ? क्या हो गया है उनकी अक्ल को ? ऐसा कौन सा काम है जिसे वे कर नहीं सकते ? प्रभु को याद करके वे, बन्धनों से मुक्त क्यों नहीं हो जाते ? इसका कोई मूल्य तो नहीं चुकान पड़ता उनको ! - संत तुकाराम ।
“रत्ती भर अभ्यास मन भर ज्ञान से कहीं अच्छा है। संतमत के सिद्धांतों का ज्ञान किस काम का, अगर उनके अनुसार हमारी रहनी न हो ।
अमल और अभ्यास रहित विद्वान उस पशु के समान है जिसकी पीठ पर किताबों का भार लदा हो । उपदेश देने से अभ्यास करना हज़ार गुणा अच्छा है । " - महा0 जगत सिंह ।
“यह जगत नाशवान है व सब असबाब भी इसका नाशवान, अकलमंद याानि चतुर मनुष्य वह है कि जिसने इसके कारोबार को अच्छी तरह जाँचकर, उसे फानी या कल्पित व मिथ्या जान इस मानवीय शरीर को कुल मालिक का भजन सुमिरन कर सफल किया और जो चीजें उस कर्ता ने अपनी दया से इस नर देही में दी है, उनसे लाभ उठा कर जौहर बे-बहा यानि तत्त्व वस्तु अनमोल जो कि सुरत यानि जीवात्मा है, उसको स्थान असली पर पहुँचाया। स्वामीजी महाराज ।
“आप कोई कल्पना नहीं कर रहे हैं । कुछ समय बाद आप महसूस करेंगे और जान लेंगे कि जो कुछ आप देख रहे है वह बाहरी जगत की तुलना में कहीं अधिक वास्तविक है। प्रेम और भक्ति भजन - सिमरन में सफलता पाने की कुंजी है । - महाराज चरन सिंह ।
इस क्रम मे बताया जाता है कि अपने अत्यंत नज़दीकी सम्बन्धियों के साथ भी अपने आंतरिक रूहानी अनुभव सांझे नहीं करने चाहिए। अगर खाना खाने बाद उल्टी आए तो रूहानी शक्ति कैसे बढ़ेगी ? इससे उन्नति रूक जाने और हौंमैं में वृद्धि हो जाने का डर होता है - इसके विपरीत जितना अधिक आंतरिक उन्नति का भेद छुपा कर रखते हैं और उसको अंदर हज़म करते है, उतनी अधिक उन्नति होगी । कि
“यह ध्वनि सबके अंदर रम रही है व सबकी प्राण और आधार है । यह चेतन की धारा अति सूक्ष्म है, जिसे सुनने के लिए उतने ही सूक्ष्म कान चाहिएं ... यह शब्द निरंतर हो रहा है फिर हमें सुनाई क्यों नहीं देता ? कारण यह कि हमारे अंदर मन की तरंगे उठ रही है और "मैं - मेरी " का अंहकार भरा है" - महाराज सावन सिंह ।
जब आपकी एकाग्रता करीब-करीब पूरी हो जाएगी, तब तीसरे तिल में अंधकार के बदले चिनगारियां व प्रकाश की चंचल किरणें / झलकें दिखाई देने लगेंगी। फिर प्रकाश स्थिर हो जाएगा और तब आत्मा खुद ही शरीर छोड़कर तीसरे तिल में प्रवेश करेगी । - महाराज सावन सिंह ।
वस्तुतः प्रभु और उसका नाम संसार की मीठी-से-मीठी व प्यारी-से-प्यारी चीज़ से कहीं ऊपर है- उसी के बनाए संसार की कोई वस्तु भला उसका क्या मुकाबला कर पाएगी । अतः ध्यान लगाने वाले ज्ञानी कहते है- “ हे प्रीतम ! तेरे आलौकिक सौंदर्य की कहानियां तो बहुत सुनी हैं, पर अब जब तेरे दर्शन प्राप्त हुए तो पाया कि तू वास्तव में इन वर्णनों से हज़ार गुणा बढ़कर है।- ख्वाज़ा हाफिज़ ।
चाहे तुम बात उच्च स्वर में कहो या धीमे स्वर में, वह तो छिपी हुई बातों और अत्यंत निहित बात को भी जानता है । अल्लाह ! उसके सिवा कोई 'इलाह' (पूज्य) नहीं। उसके सभी नाम शुभ हैं। - कुरान मजीद ।
जो व्यक्ति अन्दर लगातार प्रार्थना (सुमिरन ) करते रहने की आदत डाल लेता है, उसे बड़ा सकून मिलता है व उसे लगातार प्रार्थना करते रहने की इतनी ज़बरदस्त आवश्यकता महसूस होती है कि वह इसके बिना रह नहीं सकता । - दि वे ऑफ - ए. पिलग्रिम ।
संसार में परमात्मा से हमेशा बातचीत करते रहने से बड़ी व पूर्ण प्रसन्नता और कोई नहीं है, जो लोग इस प्रसन्नता के लिए अभ्यास करते हैं और जिनको इस खुशी का अनुभव होता है, केवल वही इसकी असलियत को जान सकते है- ब्रदर लॉरेंस ।
आत्मा को जबरदस्ती ऊपर चढ़ाने की कोशिश मत कीजिए - समय आने पर आत्मा अपनी राह अपने आप पा जाएगी । - महाराज सावन सिंह।
"तीसरे तिल पर सब कुछ है जिसकी शान - महिमा का अंदाजा हम कल्पना द्वारा सपने में भी नहीं कर सकते । खजाना आपके अंदर है व वहां आपके लिए रखा हुआ है। आप जब भी अंदर जाएंगे, उसे पा सकेंगे। आप मेरी बात मानिए व हमेशा के लिए समझ लीजिए कि हरएक चीज - यहाँ तक कि सिरजन हार भी - आपके अंदर है, और जिस किसी ने उसको प्राप्त किया है तीसरे तिल अंदर जा प्राप्त किया - महाराज सावन सिंह
हर समय हर हालात में और हर स्थान पर प्रार्थना करना संभव है, अक्सर बार-बार बोलकर की गयी विनतियों से ऊपर उठकर मन द्वारा व मन से भी ऊपर उठकर हृदय द्वारा विनती करना संभव है। ऐसी प्रार्थना से हमारे अंदर एक दम परमेश्वर के दरबार के पट खुल जाते है । - सेंट जॉन काईसोसटोम।
"जब आप आँखें बंद करते हैं तब आप वहीं होते है जहाँ आपको होना चाहिए। वहाँ रहते हुए सुमिरन करें, ध्यान जमाएं। जब आप आँखे बंद करते हैं तब आप कहीं बाहर नहीं होते। आप यहाँ आँखों के केन्द्र में होते है । महा. चरन सिंह ।
असल में भजन शरीर को छोड़ने की तैयारी मात्र है । यही भजन का असली उद्देश्य है मंच पर नाटक खेलने से पहले आप अपने पार्ट को कई बार दोहराते हैं, ताकि अपनी भूमिका अदा करने में पूरी तरह कुशल हो जाएँ। इसी प्रकार भजन मृत्यु का दैनिक रिहसल या पूर्वाभ्यास है, ताकि हम जब भी और जिस तरह से भी मरेंगे, उसके लिए पूरी तरह तैयार हो जाएं । - महाराज चरन सिंह
जीव फिर कहते हैं कि जिसे मीठी चीज़ मिल जाए, उसका फीकी चीज़ की ओर ध्यान किस तरह जा सकता है ? जिसे जवाहारात मिलने शुरू हो जाएं वह कौड़ियों के पीछे क्यों दर-ब-दर ठोकरें खाता फिरेगा ।
"कोई भी व्यक्ति अपने आप में सम्पूर्ण टापू नहीं है, हर व्यक्ति रचनारूपी महाद्वीप का एक अंग है । - जॉनडन्न।
कुछ हममें ऐसी भी कमी है कि हम आज, अपने वर्तमान में खुश रहना नहीं चाहते, या तो जो कर चुके हैं उसको सोच - 2 परेशान होते रहते हैं या फिर जो होने वाला है उसकी चिन्ता में डूबे रहते हैं। अपने वर्तमान का, आज के क्षणों का हम पूरा फायदा उठाना नहीं चाहते- गर वर्तमान खुशी से गुजारें तो हमारा बीता हुआ समय भी अपने आप सुखपूर्ण हो जाता है व भविष्य के लिए चिन्ता करने को समय ही नहीं रहता । अतः ज़िन्दगी में जो कुछ भी आए उसे स्वीकार हमें अपना समय खुशी-खुशी गुज़ारना चाहिए व हर पल खुशी से बिताना ाहिए, तब सुमिरन भी इसमें मदद करता है। क्लेमेन्स ह्यूमिलिस का कहना था कि- अनन्तता की ओर से देखा, जीवन एक-कालिक है, समय की ओर से देखा, जीवन क्रमिक है। अतीत व भविष्य वर्तमान की अन्नतता में समाये हुए है। अनन्तता का वर्तमान में पूरी तरह समाए होने का एहसास, जीवन के गतिशील दृश्यों के काफिले की अपेक्षा कहीं अधिक पूर्ण व प्रभावशाली है।" जॉन लैनन अनुसार जीवन उन्हीं घटनाओं का ही नाम है जो आप पर उसी समय घट रही है, जबकि आप दूसरी योजनाएं बनाने में लगे हुए हो। मूलत: हम सब शब्द जीव हैं जो कि मनुष्य होने का अनुभव कर रहे हैं- हम इसबात से भयभीत नहीं कि हम अधूरे है, डर है इस बात का कि हम शक्ति शाली हैं- बे हिसाब शक्तिशाली । यह हमारा अपना प्रकाश है, हमारा अंधकार नहीं जो हमे सर्वाधिक डराता है । हम स्वयं से पूछते है, मैं कौन हूँ- इतना प्रकाशवान, शानदार, प्रवीण, अद्भुत ? वास्तव में तुम ऐसे न होने वाले होते कौन हो ?
तुम परमात्मा के बच्चे हो ! तुम्हारे तुच्छ बन जाने से दुनिया को क्या लाभ ! मात्र इसलिए सिकुड़ जाना कि आसपास के लोग, खुद को असुरक्षित न समझे, कोई ज्ञान की बात नहीं है। हम तो जन्में ही इसी लिए है कि स्वयं में निहित प्रभु का गौरव, शान उजागर करें। जो हम हरेक में है व ज्यों-ज्यों हमारा प्रकाश चमकता है, हम अनजाने ही दूसरों को प्रेरित करते हैं यही करने के लिए ....
समग्र उपर्यक्त उल्लेखों - उद्धरणों-वक्तव्यों - अनुभवों-प्रवचनों-उपदेशों से प्रभावित विक्रमार्क पूर्ण सहमत था कि उसके लिए यह सब सत्य पटल की ऐतिहासिक इबारतें थी जो महापुरुषों द्वारा तप - खप कर निजी जीवन को निचोड़ कर, निज चमड़ियों को उधेड़ कर कही गई थी - व्यक्तिगत जीवन में उसने गौर किया तो स्तब्ध था कि संत मत से सम्पर्क में उस से बहुत पहले भी छुटपन मे की गई बहुत सी इच्छाएं विधाता पूरी करता आया था- कभी - कभी किसी सही जन द्वारा की गई भविष्यावाणी भी उसके संबंध में' सत्य सिद्ध हुई थी वे भी उन्हीं लोगों द्वारा की गई थी जो किसी शुल्क/ सेवा लिए बिना की गई थी- यहां तो पहुँचे हुए सिद्ध जन का तो कहना ही क्या ! सारा संसार एक नाटक शाला ही तो है - वही सब निर्धारित करता है व कभी कुछ जो हमें अच्छा नहीं लगता या अधिक नहीं सुहाता - वह भी आगे चल हमें कैसे क्या-क्या लाभ पहुँचाता है वह बाद में समझ आता है और फिर हम धन्यवाद ज्ञापित करते हैं कि इस बिन तो हमारा जीवन यापन भी असंभव रहता । अत: अब वह यथा शीघ्र संत मत से जुड़ना चाहता था । प्रारम्भ में यदा-कदा उसमें भी उसका दिल खोल स्वागत तो हुआ पर वहां पूर्ण कालिक कार्यकर्ता का जो आवश्यक क्रम अपनाया परंतु फिर भी खुद उसने धीरे-धीरे अलग होने का क्रम अपनाया कि पीछे के पारिवारिक दायित्व उचित स्थिति में आने लाने पर ही पूर्ण अवसर दिया जाना था- इस बीच नव नियुक्त पूर्ण कालिक व्यक्तिव ने चाहे अपनी स्थिति सुदृढ़ करने हेतु कुछ शब्दों में राईट अप लिखने को कहा तो बंदे ने जल्द ही इस प्रकार व्यक्त किया- ' अध्यात्म में सेवा' - संसार के 11 धर्मों, वेदों, दर्शनों का मूल संदेश है जीव का चौरासी बाद मनुष्य जन्म प्रभु मिलन के लिए है। यह भक्ति/प्रेम उसकी मर्जी, उस द्वारा भेज गुरू द्वारा संभव है। 'नाम में भगवान है' (भगवान के नाम में) भोलेपन से की गई सेवा के दो रूप हैं- नाम का सिमरण ध्यान भजन (धुन) तथा सत्संग व बाहरी सेवा । अहंकार हटाने, शुद्धि के लिए कुछ तन, धन सेवा जरूरी है- वास्तविक सेवा 'नाम' की है जो जीव हित में है, सेवा की हमें जरूरत है, सेवा को नहीं जो सौभाग्य से मिलती है महक चिरकाल तक रहती है, जिससे जीवात्मा मूल में समा अखंड आनंद में रहती है। इसी क्रम में बाद में परिभाषा दी- मीनिंग ऑफ लाइफ इज़ वैरी-वैरी लॉन्ग जरनी ऑफ लरनिंग एंड टर्निंग इन टू गुड ह्युमन बिईंग, विच् टेक्स मिलियनस ऑफ ईयरस्, गोल ईज मर्जर इन गॉड टू एसकेप ऑल मिसरिज़ टू लिव इन कानस्टेंट पीस, हैपिनेस इन हिज़ लैप, विच डिपैण्ड्स ऑन-ए-कंडीशन ऑफ डिवोशनल एसोसिएशन ऑफ ए ट्र्यु सेन्ट गुरू । वि. जी.
तत्पश्चात यह स्पष्ट था कि वर्तमान काल का बेताल सिर्फ सुनाता ही नहीं है, सुनता भी है, और प्रश्न पूछने की आदतानुसार उसने विक्रमार्क से पूछा:- उतना सब ज्ञात होने के उपरांत भी तुम भव सागर से उबरने का समुचित प्रयास क्यों नहीं करते और क्या इसी जन्म में तुम्हारा उबरना संभव है ? उत्तर के रूप में विक्रममार्क ने कहा- एक व्यक्ति ने ज्योतिषी को हाथ दिखाया तो उसने बताया कि पैंतीस वर्ष की आयु तक तुम गरीब रहोगे - उसे आशा जगी कि फिर कायाकल्प होगा अतः उत्साहित हो पूछा- तत्पश्चात क्या सब बदल जाएगा ? ज्योतिषी - उसके बाद तुम्हें गरीबी की आदत पड़ जाएगी । अतः हमारी आदतें तो पैंतीस करोड़ वर्ष से भी पुरातन जान पड़ती है, फिर भी हमारा कार्य प्रयास करना है - परीक्षा देना है, फल देना परीक्षक का काम होता है जो कि विलक्षता है, अत: विश्वास है कि आज नहीं तो कल कभी-न-कभी सफलता मिल ही जाएगी - यह सुन बेताल निरुतर लगा ।
परंतु अपने जोंकनुमा स्वभावनुसार मनबेताल बात को शीघ्र छोड़ने वाला नहीं था और कहने लगा यह रूहानियत विज्ञान कैसे हुई- विक्रमार्क को स्मरण हो आया कि पूर्ववर्ती विश्व0 11 वीं कक्षा में राजनीति शास्त्र को भी विज्ञान सिद्ध किया जाता रहा । कारण स्पष्ट किया था कि भौतिक/ जीव विज्ञान के सिद्धांतनुसार जो परिभाषाएं थी उनका आधार यही रहा कि मान्यता, धारणा या परिभाषा आदि को परीक्षणों की कसौटी पर पहले परखा जाता है, फिर परिणाम सदा एक समान रहते हैं, बार-बार परीक्षणों या परख में कभी बदलते नहीं व उनके संबंध में एक स्थाई धारणा/सत्य स्थापित हो जाता है जिसे सिद्धांत या विज्ञान की संज्ञा दी जा सकती है/ अतः समान्यतः वैज्ञानिक नियम यह नहीं बताता कि यह धारणा या नियम क्यों अस्तिव में है - बस जो परिभाषाएं - मान्याताएं - अनेक परीक्षणों व अवलोकनों उपरांत खरी उतरती है उन्हें ही प्राकृतिक नियम आदि घोषित किया जाता है- यूं प्रकृति के नियम, तर्क व दुनियावी घटनाओं के संबंध में क्रम में एक नियमितता पाई जाती है जो शर्तों के एक सैट (गुच्छे) के अनुसार पूरा खरा उतरता है व स्थाई नियम सिद्ध होता है- बदलता नहीं - उसे जब भी परखा जाए, परिणाम वही रहता है तो उन भौतिक नियमों को विज्ञान कहा जाता हैं जो जगत के अपनिवर्तन शील तथ्य हैं परन्तु फिर भी कोई नया तथ्य या साक्ष्य मिलता है जो उस नियम के विरूद्ध हो तो विज्ञान का वह नियम असत्य सिद्ध हो सकते हैं जबकि रूहानियत के नियमों में ऐसा नहीं होता जो विक्रमार्क ने ज़ोर दे कहा कि वे तो स्वंय प्रभु रचित हैं जो स्वयं बहुत बड़ा ही नहीं सर्व कालिक - (सर्वश्रेष्ठ महावैज्ञानिक है) जिसकी सदा हरेक अवधारणा-परिभाषा-सूत्र - अनुप्रयोग - प्रयोग - अनुभव - स्मृतियां - प्रमाण आदि सदा एक से रहते हैं जो विशेष परिस्थितियों में भी एक बुनियादी सिद्धांत सम सर्वदा सार्वभौमिक सत्य रहे और अपनी बात की पुष्टि हेतु कहता - गया पाँच तत्त्वों की बात करें तो मनुष्य तत्त्वों के आधार पर जीव जगत् का सिरमौर है चौरासी लाख में निम्नतम स्तर पर एक तत्त्वीय जीव (वनस्पति 30 लाख) प्रकार की होती है कि मूली गाजर में 90 प्रतिशत जल होता है। पक्षी कीट पतंगे (वायु + अग्नि) युक्त होते हैं। 14 लाख तरह के चौपाए पृथ्वी तत्त्वीय भी हैं तो 9 लाख प्रकार के जलीय (समद्रीय) जीव हैं व 4 लाख तरह के आकाश तत्त्व लिए मनुष्य (भूत+प्रेत+यक्ष-देव-किन्नर आदि) योनियां लिए - यह विवेक तत्त्व इन्हें सर्वश्रेष्ठ बनाता है जो वह प्रभु भक्ति द्वारा मुक्ति पा सकता है - जेल खाना तज कर व आवश्यक नियम पालन द्वारा जो प्रभु युक्त पूर्ण संत गुरु को अपना कर यानि यह अनिवार्य शर्त है मैल आदि हटाने की जोकि प्राय: हौमें (अम) की होती है। इस बीच बेताल - जकड़ कुछ ढीली जान पड़ी तो विक्रमार्क को लगा बात उसे कुछ समझ आ रही है, उसे पता है बाकी सब भोग योनियां भटकाती हैं - यही दुर्लभ अवसर उबार सकता है- वह उसे मुखातिब हो कहने लगा भाई तुम भी कभी कुछ क्षण थम कर उस गुरु द्वारा बताई बात पर ध्यान दो और जो अमृत रस चखने की बात हेतु निज भीतर जाने की कहता है तो तुम भी धन्य हो जाओगे, बात अटकती तब तक है जब तक चखा या जाना न हो- पंरतु विपरीत स्वभाव की प्रवृत्ति प्रायः जल्द नहीं जाती- अत: और प्रभाव अपना पूर्ण असर दिखाए उससे पूर्व ही मन बेताल उड़ कर मस्तिष्क शिखर पर पुनः जा चमगादड़ की तरह उल्टा लटक गया, यह सुने बिना ही कि रूहानियत (नाम दान एक सदाबहार पूर्ण विज्ञान तो है ही प्रभु का एक अत्यंत कल्याणकारी अभियान भी है।

सही बंदगी तो अंतर्मुखी ध्यान तिलक पीछे बिंदु का,
कहें भाव-कोशिश से लांघना संभव भव सिंधु का,
प्रायः सम्प्रदायों को धर्म समझ अनसुनी रहे रूहानियत
गर जानें मानें तो सुनिश्चित मोक्ष, वर्तमान चमके इंदु सा ।
रुहानी-विज्ञान
( आचार-विचार 9)
डॉ. विक्रमजीत

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रचनाएँ
रूहानी विज्ञान
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रूहानी विज्ञान (आचार-विचार-9) सदा सहायी, अनंत सुखदायी, सदा रूहानी रहनुमाई; धन आवाजाई से बचाने वाले परम संत बाबाजी (ब्यास) को
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परिचय

2 नवम्बर 2023
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परिचय डॉ. विक्रमजीत जन्म : मार्च 4, 1955 (टोहाना) हरि. शिक्षा : हिन्दी, अंग्रेजी एवं राजनीति विज्ञान में एम. ए. डिप. लिब. एससी, नेट पी-एच. डी. (हिन्दी) डी. लिट. लेखन : पत्र-पत्रिकाओं में रचनाओं का

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अथ् वार्तालाप

2 नवम्बर 2023
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नित्य प्रतीक्षारत धरा जगे सूर्य की उष्मा पाने हेतु अन्यथा समस्त पस्त सा रहे जगत्, वनस्पति जगत को चाहिए धूप - बदरा जो अपेक्षित गतिशील जीवों के संचालन हित- और उनमें से श्रेष्ठ मानव को क्षुधा पूर्ति पश्च

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6 नवम्बर 2023
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सुबोध राय मनमौजी किस्म का अपनी ही तरह का आदमी निकला कि छोटे-से-छोटे ओहदे पर रहते हुए भी तेवर बड़े-बड़े दिखा जाता विशेषतः बड़े आहदे वालों के सम्मुख, जबकि साथी-संगियों के साथ रहता तो ऐसे दर्शाता कि उनसे

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6 नवम्बर 2023
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घुमंतु छुटपन भाई जी को लगने लगा कि यह भौतिक संसार प्राचीन काल में भी जनश्रुति द्वारा सुदूर प्रान्तों (देशों) की सूचनाएं प्राप्त कर पैदल या पशुओं के सहारे लम्बी-लम्बी दूरी की यात्राएं कर अन्य देशों-जात

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6 नवम्बर 2023
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हर तरह के साधु-संतों व धर्मिक स्थानों के सत्संग आदि सुनने के पश्चात मियां लोभ-लाभ जी को भी मध्यम वय में एक पूर्ण संत के सत्संग में पहुँचनें का अवसर मिला तो एक अति भव्य - विहंगम दृश्य अपस्थित हो चौंकान

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8 नवम्बर 2023
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श्री आदी नाथ उर्फ (वस्तुत: व्याधि ग्रस्त अपराधी सम) कि उम्र बीतनेकेसाथ-साथ पापोंका लादान भी बढ़ता ही रहता हैक्योंकि जिन पदार्थो/अनाज़ों पेड़ पौधों या बनस्पति का हम प्रतिदिन भोग करतेहैं वह भी जीवन युक

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6 नवम्बर 2023
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माननीय अपरिपक्व सिंह जी उम्र के उस पड़ाव पर थे जहाँ लोग खुद को बूढ़ा या सठिया जाने वाली अवस्था में पहुँच बतलाने-जतलाने लगते हैं कि व्यवहार में कुछ भुलक्कड़पन, नादानी दिखाने या हैरानी देने वाली बात, हर

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6 नवम्बर 2023
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दु:खी मन राय (विगत खंडों के सभी जन का मिश्रण / व्यक्तित्व) अंत्तः स्वयं को ऐसे मुकाम या मचान के समीप पाता है जहां प्राय: उम्र देखकर तो जिंदगी की ढलान कह देते हैं पर वह अनुभव कहता है कि बाम पर है, मचान

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