वैराग्य की पराकाष्ठा
वैराग्य की पराकाष्ठा मनुष्य का अपने शरीर तक से मोहभंग करवा देती है। वह इस असार संसार के साथ-साथ स्वयं अपने को भी विस्मृत कर देना चाहता है। इसीलिए कह बैठता है-
क्या तन मांजता रे आखिर
माटी में मिल जाना।
अर्थात् इस शरीर को क्या माँजना इसने तो आखिरकार मिट्टी में ही मिल जाना है।
इस पंक्ति के अनुसार शरीर को सजाना-संवारना व्यर्थ है। लोग नाहक ही इस शरीर पर चौबिसों घण्टे ध्यान देते रहते हैं। इसे खूबसूरत दिखाने के लिए हरसम्भव प्रयास करते हैं। ब्यूटी पार्लर में हजारों रुपए व्यय करते हैं। जिम जाते हैं, योग के नाम पर एक्सरसाइज़ करते हैं, डायटिंग करते हैं, प्लास्टिक सर्जरी करवाते हैं। यानी शारीरिक सौन्दर्य सदा बना रहे, इसके लिए प्रयत्नशील रहते हैं।
अपने शरीर को दिन-रात सजाने के चक्कर में वे अपने अहं कार्यों की ओर से विमुख हो जाते हैं। इसलिए उन्हें अपने घर और परिवार के दायित्वों से अधिक अपने शरीर की ओर ध्यान देना अधिक उपयुक्त लगता है।
ऐसे विचार रखने वालों की इस धरा के किसी भी कार्य-कलाप में कोई दिलचस्पी नहीं रहती। वे सभी कार्यों को करते समय निर्लिप्त रहते हैं। परन्तु कभी-कभी कुछ लोग इन सांसारिक दायित्वों से किनारा भी कर लेते हैं। इसे पलायनवादी प्रकृति भी कहा जा सकता है। भौतिक संसार के सभी रिश्ते-नातों से स्वयं को दूर करते हुए मनुष्य ईश्वर के समीप होने लगते हैं। दिन-रात वह प्रभु का नाम जपने में स्वयं को व्यस्त रखना चाहते हैं।
यह शरीर हमें ईश्वर ने एक साधन के रूप में दिया है। जिसके माध्यम से हम इस संसार में अपने हिस्से के दायित्वों को पूर्ण कर सकें। यदि हम इसकी सार-सम्हाल नहीं करेंगे तो यह रोगी हो जाएगा। तब न ईश्वर की भक्ति होगी और न ही सांसारिक दायित्व पूरे हो पाएँगे। दूसरे शब्दों में कहें तो - 'माया मिली न राम' वाली हमारी स्थिति हो जाएगी।
घर में हम वाहन रखते है तो समय-समय पर उसका परीक्षण करवाना, उसमें ईंधन डलवाना, नित्य उसकी साफ-सफाई रखना आवश्यक होता है अन्यथा वह कबाड़ बनकर हम पर बोझ बन जाता है। इसी प्रकार शरीर को यदि साफ-सुथरा न रखा जाए, इसे समय पर भोजन न दिया जाए तो यह भी अपने और अपनों पर रोगी होकर बोझ बन जाता है।
इसलिए इसका स्वस्थ रहना बहुत ही आवश्यक है। इस शरीर को बेशक आप साध्य न माने पर यह ईश्वर तक जाने का साधन तो है ही। हमारे सभी ऋषि-मुनि इस शरीर को साधन मानकर इसका पूरा ध्यान रखने का परामर्श देते हैं।
यह सच है कि हमें केवल इस शरीर के लिए ही नहीं जीना चाहिए। मात्र इसी को सजाते-संवारते रहें और इसकी देखरेख के लिए ही पानी की तरह पैसा बहाते रहें। सारा-सारा दिन ब्यूटी पार्लर में जाकर सजते रहें अथवा नित नए बालों के स्टाइल बनवाते रहें। उस पर विभिन्न प्रकार के इत्र या परफ्यूम या डियो डालकर इसे नकली सुगन्ध से महकाते रहें। इस तरह इसको खूबसूरत दिखाने के चक्कर में हम दीन-दुनिया ही भूल जाएँ। घर-परिवार के दायित्वों से मुँह मोड़कर नित्य ही कलह-क्लेश करते रहें।
इसके साथ-साथ यह भी उतना ही सच है कि शारीरिक सौन्दर्य कुछ सीमित समय के लिए ही रहता है। जहाँ मनुष्य आयु को प्राप्त करने लगता है अर्थात् वह वृद्धावस्था की ओर बढ़ने लगता है, वहीं उसके चेहरे पर झुरियाँ आने लगती हैं। इसके अतिरिक्त किसी प्रकार की दुर्घटना का शिकार होने पर अथवा किसी रोग के आ जाने पर भी शरीर की सुन्दरता मुँह मोड़ने लगती है।
उस समय जिस शरीर की सुन्दरता पर हमें बड़ा मान होता है, वह साथ निभाने से इन्कार कर देती है। तब हमारा यह सुन्दर शरीर सामान्य-सा रह जाता है। इसीलिए गुणीजन कहते है कि इस शरीर पर गर्व नहीं करना चाहिए। यह हमारा सौन्दर्य स्थायी नहीं है। जब यह नहीं रहता, तब हमें बहुत दुख होता है।
अति वैराग्य की चर्चा को यदि हम छोड़ भी दें, तो भी इस बात का विशेष ध्यान अवश्य रखना चाहिए कि यह शरीर ही सब कुछ नहीं है। इसके पीछे भागने का कोई लाभ नहीं होता। इसके अन्दर रहने वाली उस आत्मा के विषय में भी सोचना चाहिए। तभी हम सब अपने मानव होने के धर्म को सार्थक करके अपने जीवन को सफल बना सकते हैं।
चन्द्र प्रभा सूद