पिता की भूमिका
बच्चों के सर्वांगीण विकास के लिए पिता की भूमिका बहुत महत्त्वपूर्ण होती है। वह अपनी सन्तान के सुरक्षित भविष्य के लिए स्वयं स्वेच्छा से खटता रहता है। दिन-रात उसके उज्जवल भविष्य की चिन्ता में ही घुलता रहता है। 'नीतिशास्त्रम्' ग्रन्थ की निम्न उक्ति हमें समझाते हुए कह रही है-
स पिता यस्तु पोषक:।
अर्थात् पिता वही है जो पोषक है।
इस उक्ति का यही महत्त्वपूर्ण सन्देश है कि पिता अपनी सन्तान का भरण-पोषण करता है, उसको पालता है। उसके लिए सुख-सुविधा के सारे साधन जुटाना चाहता है जो इस दुनिया में विद्यमान हैं। इसीलिए वह पिता कहलाता है।
पिता के कन्धे पर बैठा हुआ बेटा जब वहाँ खड़ा होकर उससे यह कहता है- 'देखो पापा मैं आपसे बड़ा हो गया हूँ।' तो पिता उसकी नादानी पर मुस्कुरा उठता है।
वह उसे समझाते हुए कहता है- 'बेटा इस गलतफहमी में मत रहना। जिस दिन मेरा हाथ छूट गया, उस दिन तेरे सुन्दर-से रंगीन सपने के साथ तेरा कोमल हृदय भी तार-तार हो जाएगा।'
वास्तव में उस समय बच्चे के पाँव जमीन पर नहीं होते। वह ऊँचा दिखने की होड़ में ऐसे प्रयास करता रहता है। पिता को वास्तविक खुशी उस समय मिलती है, जिस दिन उसका बेटा जमीनी सच्चाई को समझकर वास्तव में सही मायने में बड़ा हो जाता है। योग्य बनकर वह अपनी एक विशेष पहचान बना लेता है। उस समय वह अपने पिता के कन्धे पर खड़ा नहीं होता बल्कि उसके पैर जमीन पर होते हैं। तब उसे नीचे गिरने का भय नहीं होता।
जिन बच्चों के पिता का देहावसान उनके जन्म से पहले या उनकी अल्पायु में हो जाता है, आयुपर्यन्त उनकी इस कमी को कोई पूरा नहीं कर सकता। यद्यपि माता अपनी ओर से बच्चे की सारी सुविधाओं का ध्यान रखती है, तथापि उसके मन का कोई कोना रीता रह जाता है। चाहकर भी वह उस स्थान को भर नहीं सकता। उसके मन में पिता के न होने की कसक जीवनभर बनी रहती है।
बच्चा जब पिता से अधिक योग्य बनकर उच्च पद पर आसीन हो जाता है अथवा अधिक कमाने लगता है, तब पिता का सीना गर्व से चौड़ा हो जाता है। उस समय उसे अपनी सन्तान से किञ्चित भी ईर्ष्या नहीं होती अपितु वह उस पर मान करते नहीं थकता। सारी कायनात को वह अपनी सन्तान के होनहार बन जाने की सूचना देने के लिए लालायित हो जाता है।
'वाल्मीकिरामायणम्' में महर्षि वाल्मीकि पिता के महत्त्व को प्रतिपादित करते हुए कहते हैं-
नह्यतो धर्माचरणं किञ्चिदस्ति महत्तरम्।
यथा पितरि सुश्रुषा यस्य वा धर्मक्रिया।।
अर्थात् पिता की सेवा अथवा उनकी आज्ञा का पालन करने जैसा महत्त्वपूर्ण कार्य और धर्माचरण इस संसार में और दूसरा कोई नहीं है।
पिता जो अपने बच्चे का मान होता है, उसका आदर्श होता है, उसकी अवहेलना करने के बारे में मन से भी कभी नहीं सोचना चाहिए। आयुपर्यन्त पिता की आज्ञा का पालन करना और उसकी सेवा-शुश्रुषा करना हर सन्तान का परम कर्त्तव्य है। इस दायित्व से उसे कभी भी मुँह नहीं मोड़ना चाहिए।
अपनी सन्तान के सुख में, दुख में यानी हर कदम पर पिता उसके साथ खड़ा रहता है। विपरीत परिस्थितियों से उसे अपनी ओर से उबारने का यथासम्भव यत्न करता है। जितनी उसकी सामर्थ्य होती है, उससे भी बढ़कर वह अपनी सन्तान के हित के लिए सोचता है और सहायता भी करता है।
पिता का मूल्य किसी भी तरह से कम नहीं आँकना चाहिए। कुछ अपवादों को छोड़ दिया जाए तो यही कहा जा सकता है कि उसके होने से ही सन्तान का अस्तित्व होता है और उसकी सुरक्षा होती है। उसके होने से ही सन्तान का हित होता है। उसके मार्गदर्शन में बच्चे फलते-फूलते हैं और समाज में अपना एक मुकाम बना पाते हैं।
चन्द्र प्रभा सूद