मनुष्य का वास्तविक हित
सन्मित्र का मिलना बड़े सौभाग्य का विषय होता है। वह मनुष्य के लिए एक एसैट की भाँति होता है। उसे गँवा देने की मूर्खता मनुष्य को कभी नहीं करनी चाहिए। सुमित्र मनुष्य का सच्चा सहायक होता है। बातचीत के स्तर की मित्रता तो इन्सान हर किसी से रख सकता है परन्तु जिसके पास बैठकर उसे अपनेपन का अहसास हो, वही वास्तव में उसका मित्र होता है।
ऐसे सन्मित्र की मित्रता भले ही मनुष्य को आजीवन न मिल पाए किन्तु कुमित्र से मित्रता कभी भी किसी शर्त पर उसे नहीं करनी चाहिए। अच्छा तो यही है कि वह किसी से दोस्ती करे ही नहीं। निम्न श्लोकाँश में कवि ने हम मनुष्यों को समझाते हुए बताया है -
वरं न मित्रं न कुमित्रमित्रम्।
अर्थात् कुमित्र के साथ मित्रता करने से अच्छा यही है कि मनुष्य बिना मित्र के रह ले।
बिना मित्र के रहने की बात यह पंक्ति कर रही जो इस सत्य का संकेत करती है कि कुमित्रों की संगति में रहकर कुमार्गगामी होना मनुष्य के लिए श्रेयस्कर नहीं होता। ऐसे लोगों की संगति में रहता हुआ मनुष्य इच्छा से अथवा अनिच्छा से गलत रास्ते पर चलने लगता है। वहाँ उसे शार्टकट मिलता है धन-वैभव कमाने के लिए। उसे भी लगता है कि मतलब तो है समृद्धि पाने का चाहे वह कैसे भी मिले।
कुमित्र इसलिए है क्योंकि वह अपने तथाकथित मित्रों को धन, बल आदि आकर्षणों का लालच देकर उन्हें बुराई की ओर धकेलता है। उनकी चकाचौंध ही ऐसी होती है कि उससे किसी की भी आँखें चुंधिया सकती हैँ। इस प्रकार मानो किसी सम्मोहन के कारण वह उनके प्रति खिंचता ही चला जाता है और फिर अपने पैर पर कुल्हाड़ी मारने का काम कर लेता है। वह अपनी स्वतन्त्रता को उन दुष्ट मित्रों के पास गिरवी रख देता है।
भ्रष्टाचार, धोखाधड़ी, रिश्वतखोरी, बेईमानी, हेराफेरी, किसी की जेब काटना, दुर्व्यसनों में लिप्त होना, स्मगलिंग करना आदि कोई भी कार्य हो सकता है। समाज विरोधी गतिविधियों में घसीटने वाला कभी सुमित्र नहीं हो सकता, ऐसा कार्य कुमित्र ही कर सकता है। इन राहों पर एक बार यदि कदम बढ़ जाएँ तो उन्हें वापिस लौटा लाना असम्भव-सा कार्य होता है।
इस राह का मुसाफिर किसी समय विवेक जागने पर यदि इन कार्यों का त्याग करना चाहे तो उसे ऐसा करने नहीं दिया जाता। फिर भी यदि वह दुस्साहस करने का यत्न करे तो उसे वहीं समाप्त कर दिया जाता है। इसका कारण राज खुलने का भय होता है। इसीलिए इस दलदल में फँसा व्यक्ति चाहकर भी इन कार्यों को त्याग नहीं सकता। इसमें दोष कुसंगति का ही माना जाता है जो बड़े ही लुभावने प्रलोभन देकर पथभ्रष्ट कर देती है।
कुमित्रमित्रेण कुतोऽभिनिर्वृतिः।
अर्थात् कुमित्र से किसी को शान्ति की प्राप्ति कैसे हो सकती है?
कुमित्र शान्ति देने वाला नहीं अपितु दुख और परेशानियाँ पैदा करने वाला होता है। उसके साथ रहने से मनुष्य को कभी मानसिक शान्ति नहीं मिल सकती। उनका कुसंग मनुष्य के अधोपतन का कारक होता है। पुलिस व कानून से डरता हुआ मनुष्य दिन-रात कभी भी चैन की बाँसुरी नहीं बजा सकता। हर समय एक तलवार उसके सिर पर लटकती रहती है। उससे भयभीत वह कभी स्वयं को सुरक्षित अनुभव नहीं कर पाता।
जीवन में सुख और शान्ति की कामना करने वालों को कुमित्र की परछाई से भी बचना चाहिए यानी उन्हें उससे दूर रहना चाहिए। वे कभी भी, किसी भी अवसर पर डंक मारने से नहीं हिचकिचाते। उनका संसर्ग स्वयं अपने और अपनों के दुख का कारण बनता है। उनसे दूरी बनाए रखने में ही मनुष्य का वास्तविक हित निहित होता है और तभी उसे सच्चा सुख मिल पाता है।
चन्द्र प्रभा सूद