घबराहट है, डर का साया है
आतंकवाद ने घमासान मचाया है
मजहब या कि जिहाद के नाम पर
आतंकवाद ने मौत का खेल खिलाया है
आतंकी किस मजहब का ?
यह तो मानवता का दुश्मन
इसमें बस आतंक समाया है
मासूमों की जान से खेला
आतंकी ने सब में डर को है घोला
यह ना हिन्दु, ना यह मुस्लिम
यह तो बस आतंक का जाया है
इसने मजहब पर नहीं
मानवता पर अस्त्र-शस्त्र चलाया है
बन्दुकों की गोली का
कोई धर्म, ईमान नहीं होता
बारूदों पर लिखा
किसी मजहब का नाम नहीं होता
मरता हिन्दु भी, मुस्लिम भी है मरता
आतंकवाद किसी को क्षमा नहीं करता
इसमें बस गोलियों की बौछारें होती
मानवता खून से लथपथ है रोती
डर के साये रातों को भी है छाये
आतंकवाद ने क्या-क्या जुल्म है ढाये
कब तक खूनी खेल चलेगा
आतंकवाद के नाम पर
इन्सां मानवता की सूली चढ़ेगा
इस घबराहट, डर को
आतंक के खौफ सहर को
अब निर्मुल तो करना होगा
आतंकवाद से देश नहीं
पूरी दुनिया को लड़ना होगा।