आदिकाल से ही इस सृष्टि के समस्त जीवों का मात्र एक ही लक्ष्य समान रूप से सर्वमान्य है और वह यह है कि उसका परमात्मा से साक्षात्कार कब होगा ? उस परम परमात्मा से ही साक्षात्कार हेतु जीवों का सम्पूर्ण क्रिया-कलाप अध्यात्म के चतुर्दिक गतिशील रहता है। जिसमें जीव, आत्मा और परमात्मा का अन्तर्सम्बन्ध ही अध्यात्म की मूल विषय वस्तु के रूप में युग-युगान्तर से क्रियाशील है। इस सृष्टि के समस्त जीवों का सर्वप्रथम साक्षात्कार अध्यात्म से होता है, परन्तु बाद में भौतिकवादी विचारधारा विज्ञान जनमानस को अध्यात्म के प्रति उदासीन बना देती है। हालांकि विज्ञान जीवन को बाह्य दुनिया की चकाचौंध का दर्शन कराने में पूर्ण सक्षम है, मगर उस अदृश्य शक्ति से साक्षात्कार करा दे सके ऐसी क्षमता विज्ञान में अभी तक विकसित नहीं हो पायी है। आदिकाल से ही भारतीय धर्म और दर्शन में अध्यात्म का ही बोलबाला रहा है, मगर इस आधुनिकीकरण ने इसके प्रारूप को बदलना शुरू कर दिया है जिससे अध्यात्म का अस्तित्व ही खतरे में पड़ता नजर आ रहा है। इस प्रकार हम कह सकते हैं कि अध्यात्म विद्या और भारतीय धर्म व दर्शन के बिना जीवन का उद्देश्य ही शून्य हो जायेगा। यदि मनुष्य के पास अध्यात्म का ज्ञान नहीं है तो उसके पास सब कुछ होते हुए भी वह सम्पूर्ण निर्धन है। आदिकाल से ही इस सृष्टि के समस्त जीवों का मात्र एक ही लक्ष्य समान रूप से सर्वमान्य है और वह यह है कि उसका परमात्मा से साक्षात्कार कब होगा ? उस परम परमात्मा से ही साक्षात्कार हेतु जीवों का सम्पूर्ण क्रिया-कलाप अध्यात्म के चतुर्दिक गतिशील रहता है। जिसमें जीव, आत्मा और परमात्मा का अन्तर्सम्बन्ध ही अध्यात्म की मूल विषय वस्तु के रूप में युग-युगान्तर से क्रियाशील है। इस सृष्टि के समस्त जीवों का सर्वप्रथम साक्षात्कार अध्यात्म से होता है, परन्तु बाद में भौतिकवादी विचारधारा विज्ञान जनमानस को अध्यात्म के प्रति उदासीन बना देती है। हालांकि विज्ञान जीवन को बाह्य दुनिया की चकाचौंध का दर्शन कराने में पूर्ण सक्षम है, मगर उस अदृश्य शक्ति से साक्षात्कार करा दे सके ऐसी क्षमता विज्ञान में अभी तक विकसित नहीं हो पायी है। आदिकाल से ही भारतीय धर्म और दर्शन में अध्यात्म का ही बोलबाला रहा है, मगर इस आधुनिकीकरण ने इसके प्रारूप को बदलना शुरू कर दिया है जिससे अध्यात्म का अस्तित्व ही खतरे में पड़ता नजर आ रहा है। इस प्रकार हम कह सकते हैं कि अध्यात्म विद्या और भारतीय धर्म व दर्शन के बिना जीवन का उद्देश्य ही शून्य हो जायेगा। यदि मनुष्य के पास अध्यात्म का ज्ञान नहीं है तो उसके पास सब कुछ होते हुए भी वह सम्पूर्ण निर्धन है।
सच तो यह है कि विज्ञान, अध्यात्म का ही एक अंश मात्र है, क्योंकि विज्ञान जिस पदार्थ का अन्वेषण व विश्लेषण करता है, अध्यात्म उसी पदार्थ का प्रणेता है। अर्थात् अध्यात्म और विज्ञान दोनों ही एक दूसरे के पूरक हैं, ना कि विरोधी ! अध्यात्म की गति व गतिविधि दोनों ही अनन्त होती है, परन्तु विज्ञान की गति एवं गतिविधि दोनों नियमों व सिद्धांतों में बँधी रहती है। अर्थात् अध्यात्म जहाँ विश्वास को जन्म देता है, वहीं विज्ञान विनाश का पोषक है। प्राचीन काल में अध्यात्म और विज्ञान दोनों का आपसी सामंजस्य बहुत ही प्रगाढ़ था, परन्तु आज के इस आधुनिक युग में दोनों एक दूसरे से पृथक और पूर्ण स्वतंत्र हैं। यही कारण है कि आज के दौर में जहाँ अध्यात्म रूढ़िवादी विचारधारा से ग्रस्त है, वहीं विज्ञान मानवता के प्रति उदासीन हो चुका है। इन दोनों विचारधाराओं में प्रतिद्वंद्वी भाव भविष्य में सृष्टि के सबसे सुंदरतम् सृजन जीवन के लिए खतरनाक सिद्ध हो सकता है। अतः हमें यानि सृष्टि के सबसे श्रेष्ठ जीव मानव की यह सबसे बड़ी जिम्मेदारी बनती है कि इन दोनों विचारधाराओं में सामंजस्य स्थापित कर, समस्त जीवों की रक्षा करे। अंत में बस इतना कहना चाहूँगा कि अध्यात्म और विज्ञान दोनों ही एक सिक्के दो पहलू मात्र हैं, इनमें आपसी प्रतिद्वंद्विता की स्थापना सदैव ही अहितकारी होगी।
मिथलेश सिंह मिलिंद