विधा :- हरिगीतिका
मात्रा भार :- 28(16/12 पर यति) अंत लघु गुरू
मापनी :- 11212 ,11212 ,11212 ,11212
शीर्षक :- जन मानस व्यथा
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विकराल तांडव नाथ फिर इतनी धरा पर कीजिए ।
हर पाप का बदला यहाँ नटराज बनकर लीजिए ।
इन घोर निर्दय पापियों पर दूर से मत खीझिए ।
कर जोड़ बेबस जो खड़ा अब ध्यान उन पर दीजिए ।
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जब भी कभी विपदा पड़ी प्रभु इस धरा जग आन पर ।
गर में हलाहल नाथ धारण कर लिया रस मान कर ।
उपकार यह इतना बड़ा करता सदा गुणगान नर ।
मजबूर फिर कर जोड़ यह कहता इसे भगवान भर ।
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इन पापियों पर तेज चाबुक नाथ क्यों बरसा नहीं ।
इस भूख पावक से निशाचर बोल क्यों झुलसा नहीं ।
यह पाप तरु जड़ नाथ आखिर देख क्यों हुलसा नहीं ।
इतना भरा जब छीन कर मगरूर क्यों तरसा नहीं ।
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हरकत बुरी करता मगर रहता बड़े अभिमान से ।
अब खेलता यह जिन्दगी पर मोल रखकर शान से ।
करता बड़ा यह पाप पर डरता नहीं भगवान से ।
कुछ तो करों तुम नाथ अब दम घुट रहा अपमान से ।
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रचना :- मिथलेश सिंह "मिलिंद"-आजमगढ़