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कहानी (जीयो और जीने दो)

4 फरवरी 2022

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“जीयो और जीने दो “ ( कहानी -प्रथम क़िश्त)

वैसे तो महेश और सुरेश राजपुत सगे भाई हैं पर पिछले तीन वर्षों से उनके बीच छत्तीस का आंकड़ा है। वे एक दूसरे क चेहरा भी देखना भी पसंद नहीं करते हैं । इसकी मूल वजह है पैत्रिक अचल संपत्ति का बंटवारा ।
वास्तव में उनके पिता स्वर्गीय शंकर राजपूत दुर्ग शहर के जाने माने चिकित्सक थे । अपने 40 वर्षों की चिकित्सकीय जीवन में उन्होंने अच्छी खासी प्रापर्टी बनाई थी । उनके नाम से ग्राम समोदा में 50 एकड़ खेती की ज़मीन है । दुर्ग पद्मनाभपुर में उनके नाम से दो बड़े बड़े मकानात हैं । दुर्ग बस स्टैन्ड के पास दस हज़ार स्क़्वे फ़ीट का प्लाट, मोती पारा व स्टेशन रोड पर दो बड़ी बड़ी ज़मीनें हैं । साथ ही दुर्ग शहर से 5 किमी दूर ग्राम पोटिया में 10 हज़ार फ़ीट के तीन बड़े बड़े प्लाट्स हैं । इसके अलावा उनके नाम से 50 लाख रुपिए के फ़िक्स डिपासिट थे । डा शंकर राजपुत का निधन हुए 3 वर्ष गुज़र गए हैं और उनकी पत्नी तो उनसे पहले ही स्वर्ग सिधार चुकी हैं । 

पिताजी के निधन के बाद दोनों भाइयों में प्रापर्टी के बंटवारे को लेकर विवाद प्रारंभ हो गया । धीरे धीरे उनके बीच मनमुटाव बढते गया । आज यह स्थिति है कि दोनों एक दूजे के सामने जाने से भी कतराते हैं ।
 
वैसे खेती की ज़मीनें और नगद पैसों को बांटने में कोई समस्या नहीं आई । लेकिन दुर्ग और पोटिया की ज़मीनों मे बंटवारे में समस्या मुंह बाएं खड़ी हो गई । शुरुवात में दोनों चाहते थे कि कि दुर्ग शहर की तीनों प्लाट्स मुझे मिल जाए और पोटिया की तीनों प्लाट्स दूसरा भाई लेने को सहमत हो जाए । दोनों भाई जानते थे कि दुर्ग शहर के प्लाट्स की बाज़ार क़ीमत लगभग 10 से 12 करोड़ रुपिए है वहीं पोटिया स्थित प्लाट्स की क़ीमत 1 से 2 करोड़ रुपिए से ज्यादा नहीं होगी । बड़ा भाई चाहता था कि मैं बड़ा हूं अत: मुझे परंपरा के अनुरूप जेठासी के तौर पर कुछ ज्यादा मिलना चाहिए। जबकि छोटा भाई का तर्क था कि उसे मां और बाबू ज्यादा चाहते थे अत: मुझे कुछ ज्यादा मिलना चाहिए। इस तरह बंटवारे के मद्दे- नज़र दोनों भाइयों के बीच विवाद बढते गया । कुछ दिनों तक तो सिर्फ़ तू तू मैं मैं होते रहा । फिर गाली गलौज का वातावरण बना । उसके बाद हाथा पाई की नौबत आ गई । अंत में एक दूसरे का मु;ख देखना भी दोनों को गंवारा नहीं रहा । 
वैसे तो दोनों को जो पैत्रिक प्रापर्टी मिलनी थी , वह अपनी जगह थी पर दोनों का अपना अपना स्थापित कारोबार भी था। दोनों की अपनी अपनी दुकानें इंदिरा मार्केट में अगल बगल थीं । महेश मोबाइल की दुकान का मालिक था तो सुरेश टीवी का बड़ा डीलर था । वे दोनों ही सफ़ल व्यापारी थे और आर्थिक रुप से संपन्न थे । सुख सुविधाओं से दोनों का घर भरा था फिर भी पैत्रिक ज़मीन के नाम से दोनों एक दूजे के दुश्मन बन चुके थे । 
महेश के परिवार में कुल चार सदस्य थे महेश , उनकी पत्नी सुमीत्रा , पुत्र गणेश और पुत्री राधा ।  सुरेश के परिवार की संरक्षना भी महेश जैसी ही थी । पत्नी मीरा , पुत्री सुधा और पुत्र राकेश । दोनों के बीच के विवाद को सामाजिक स्तर पर भी सुलझाने का प्रयास किया गया पर वहां भी बात बनी नहीं । वास्तव में समाज व परिवार के कुछ लोग महेश को तो कुछ लोग सुरेश को उकसाते रहे कि तुम दुर्ग की ज़मीनें किसी भी हालात में मत छोड़ना , वरना जीवन भर पछ्ताओगे। 

फिर तो दोनों साल भर के अंदर कचहरी चले गए । दोनों ने शहर के नामी गिरामी वक़ीलों की सेवाएं ले लीं । अदालत में  केस को रजिस्टर्ड हुए 5 वर्ष हो गए पर उन्हें तारीखें ही मिलती रही । कोई फ़ैसला नहीं आया । दोनों को वक़ीलों को हर पेशी में 5000) 00 देने पड़ते थे । चाहे केस में बहस हो या तारीख मिले । इसके अलावा पेशी के दिन दोनों के 4 से 5 घंटे कोर्ट में ज़ाया होते थे ।
 
जब 5 सालों में भी केस का फ़ैसला नहीं आया तो महेश और सुरेश के बच्चों ने अपने अपने पिताजी को समझाने लगे कि इस विवाद को मिल जुल कर सुलझा लीजिए आपसी लड़ाई में दोनों परिवार का धन और यश दोनों ही बर्बाद हो रहा है । धन की भरपाई तो शायद हो भी जाए पर मान सम्मान अगर  चला जाए तो फिर उसे हासिल करना कठिन होता है । लेकिन दोनों भाइयों के सर पर पैसों का अंकगणित इतना हावी हो चुका था कि कोई भी पीछे हटने को तैयार नहीं हुआ । दोनों की सबसे बड़ी चाहत थी कि दुर्ग बस स्टैंड की ज़मीन जिसकी क़ीमत लगभग 10 करोड़ रुपिए होगी मेरे हिस्से में आए। दोनों सोचते थे कि इतना पैसा तो जीवन भर मेहनत करें तो भी नहीं कमा पाएंगे । इस बीच दोनों के वक़ीलों ने दोनों का भरपूर दोहन किया । दोनों की ज़ेब से वक़िलों ने 5/5 लाख रुपिए निकाल लिए पर महेश और सुरेश को यह इल्म नहीं हुआ कि वक़ील गण सिर्फ़ अपना उल्लू साध रहे हैं । 
ज़मीन के कारण दोनों भाइयों के बीच हाथापाई भी हो चुकी थी और दोनों ने थाने में एफ़आईआर भी दर्ज़ करवा दिए थे ।  इस विवाद के कारण अब दोनों ने एक दूजे की खेती के कामों में भी व्यवधान पैदा करने लगे थे । धीरे धीरे दोनों के बीच नफ़रत की खाई इतनी गहरी हो गई कि उनका बस चले तो एक दूजे का कत्ल कर दें ।

इस बीच दुर्ग में 15 दिनों के लिए जैन मुनि क्षीरसागर जी पधारे। पद्मनाभपुर दुर्ग में उनका 15 दिनों का कार्यक्रम रखा गया । 15 दिनों तक रोज़ सुबह 10 से 2 बजे तक मुनि जी का प्रवचन होता था और संद्ध्या 5 से 8 बजे के बीच में पूजा , पाठ , आरती व दीक्षा के कार्यक्रम होते थे । सुरेश राजपूत के अधिकान्श दोस्त जैन समुदाय के थे । सुरेश अपने जैन दोस्तों के साथ इस कार्यक्रम में एक स्वयं सेवक का काम करने लगा । वह सुबह 9 बजे स्थल पर आ जाता और रात्रि 10 बजे अपमे घर लौटता । 2/3 दिनों के बाद सुरेश को लगने लगा कि मुनि क्षीरसागर जी जो कह रहे हैं वे सभी जीवन के लिए महत्वपूर्ण हैं व ज़िन्दगी को सुखी बनाने के लिए मददगार भी हैं । क्षीरसागर महाराज के प्रवचनों में प्रेम , मुहब्बत , शान्ति, सदभावना, संतोष व मानवता ही मूल तत्व होते थे । क्षीरसागर जी यह कहते थे कि जिस इंसान ने इनको साध लिया तो समझो उसे ईश्वर प्राप्त हो गया । सुरेश को मुनी जी की बातें बहुत प्रभावित करने लगीं । अब सुरेश जी अपनी कारोबार को अपने स्टाफ़ के भरोसे छोड़कर खुद चौबीसों घंटे मुनि क्षीरसागर के सानिद्ध्य का लाभ उठाने लगे । चौथे दिन सुरेश ने मुनि क्षीरसागर से निवेदन किया कि महाराज वैसे तो मैं एक राजपूत कुल में पैदा हुआ हूं पर अब मैं जैन पंथ अपनाना चाहता हूं । बस आपकी आज्ञा और सहमति की ज़रूरत है । प्रतिउत्तर में क्षीरसागर जी ने कहा कि बेटा इस विषय में 2/4 दिन और मनन कर लो। अपने घर वालों से सलाह लेकर आगे का कदम उठाओ। यह कोई छोटा मोटा निर्णय नहीं है । किसी पंथ या धर्म को अपनाना तो सरल है पर उस पंथ या धर्म के नियम कायदे , आचार व्यौहार का पालन करना और उस पंथ की गरीमा को बनाए रखना अधिकांश समय बहुत कठिन होता है ।

 [ क्रमश; ]
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जीयो और जीने दो। (कहानी )
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सुरेश और महेश सगे भाई थे । दोनों के बीच प्रापर्टी की लड़ाई इतनी बढ़ी की दौनों एक दूजे के खून के प्यासे हो गए। इसके बाद सुरेश एक जैन मणि श्री क्षीरसागर महाराज के सम्पर्क मे आता है। उसके बाद उसके अंदर बहुत से बदलाव आते हैं।
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