[ कहानी __ [जीयो और जीने दो दूसरी क़िश्त ]
[अब तक क्षीरसागर महाराज ने सुरेश से कहा कि और 2/4 दिन विचार कर लो किसी नए धर्म या पंथ को अपनाना तो सरल है पर उस पंथ की गरीमा को अक्षुण बनाए रखना बहुत कठिन होता है ]-----
यह काम कोई योगी प्रवित्ति का व्यक्ति ही कर सकता है । जवाब में कहा महाराज जबसे मैं आपके प्रवचन सुन रहा हूं , तब से मेरी सोच बदलने लगी है । मुझे जीवन भर पैसों के पीछे भागना व व्यापार में सफ़लता पाने के लिए उल्टा सीधा काम करना अब मिथ्या लगने लगा है । मैं मानता हूं कि जीवन में पैसों का महत्व तो है पर पैसा को ही जीवन मान लेना वाजिब नहीं है । जब तक एक आर्थिक रुप से सामर्थय्वान व्यक्ति अपने सामर्थ्य का उपयोग गरीबों व असहाय लोगों की मदद पहुंचाने में न करे तो उसके सामर्थ्य होने का क्या मतलब ? ऐसे लोग तो रेगिस्तान में एक ताड़ के वृक्ष की तरह हैं , जो किसी यात्री को छाया भी मुहैया नहीं करा सकता फिर भी सीना तानकर खड़ा रहता है । मान्यवर भगवान का दिया मेरे पास सब कुछ है । साथ ही मेरा बच्चा मेरे व्यापार को संभाल चुका है । अत: मुनि जी मुझे आशीर्वाद दें व दीक्षीत करें कि मैं कुछ कदम ही सही त्याग मे मार्ग पर चल सकूं । तब क्षीरसागर महाराज ने कहा कि बच्चे मैं तुम्हारी भावना को समझ रहा हूं पर इतने उतावले भी न बनो। मनुष्य को धर्म और त्याग की कथाएं सुनना तो अच्छा लगता है पर इस मार्ग पर चलते वक़्त अच्छे अच्छे लरखड़ा जाते हैं । सुख सुविधाओं से मुख मोड़ लेना हर किसी के बस की बात नहीं है ।
11 वें दिन दीक्षा समारोह संपन्न हुआ । बहुत सारे लोगों ने दीक्षा लिया । उसमें से बहुत कुछ लोग घर परिवार को छोड़कर साधू बनने की ओर अग्रसर हो गए। कुछ लोग जैन पंत स्वीकार करके गृहस्थ जीवन गुज़ारते हुए पंथ की अच्छी बातों को जीवन में उतारने का संकल्प लिया । दीक्षा लेने वालों में एक महत्वपुर्ण नाम सुरेश राजपूथ का भी था । उसे क्षीरसागर महाराज ने दीक्षा दिलाई और उन्हें एक नया नाम दिया सुरेश्वर मणि।
13 वें दिन सध्या के समय जब क्षीरसागर महाराज अपने कमरे में आराम कर रहे थे और सुरेश्वर मणि उनका पैर दबा रहे थे । सुरेश्वर जी ने क्षीरसागर महाराज से कहा कि महाराज मेरे मन में एक उलझन है । आपसे इस उलझन का निवारण चाहता हूं । महाराज ने कहा , कहो-तब सुरेश्वर मणि ने कहा कि मेरे और मेरे बड़े भाई महेश जी के बीच पैत्रिक प्रापर्टी को लेकर पिछले 20 वर्षों से विवाद चल रहा है । हमारा प्रकरण एक लंबे समय से न्यायालय में लंबित है पर नतीज़ा शून्य है । कृपिया इस विवाद को समाप्त करने हेतु मेरा मार्गदर्शन करें । फिर सुरेश्वर ने कहा कि हमारे परिवार के पास दुर्ग शहर व दुर्ग के पास स्थित ग्राम पोटिया में बराबर मात्रा में प्लाट है । मेरे बड़े भाई चाहते हैं कि उन्हें दुर्ग शहर की क़ीमती ज़मीनें मिल जाए और मैं पोटिया स्थित ज़मीनों को स्वीकार कर लूं । मैं उनसे कहता हूं कि दोनों जगहों की ज़मीनों को बराबर बांट लेते हैं पर बड़ा भाई मुझे दुर्ग शहर का एक इंच ज़मीन भी देने को तैयार नहीं हैं । वे इस मुद्दे पर कभी कभी दादागीरि भी दिखाते हैं । क्या मैं शहर की क़ीमती ज़मीनों को त्याग कर पोटिया की सस्ती ज़मीनों के लिए हामी भर दूं । तब क्षीरसागर महाराज ने प्रतिउत्तर में कहा कि अगर मैं धर्म के दायरे में बात कहूं तो सुनो धर्म का मूल मंत्र ही त्याग है । अत: तुम बेझिझक पोटिया की ज़मीनों को स्वीकार कर लो और दुर्ग शहर की ज़मीनें उन्हें अपनी इच्छा अनुसार लेने दो।
सुरेश्वर जी – धर्म की बात तो आपने समझा दी पर न्याय क्या कहता है ?
क्षीरसागर महाराज – न्याय के दायरे में देखें तो न्याय इंसान के दायरे में आता ही नहीं । असली न्याय तो उपरवाला करता है। आज नहीं तो कल न्याय और अन्याय क फ़ल हर किसी को मिल ही जाता है, अन्यायी को भी और मज़लूम को भी । अत: हे पुत्र तुम न्याय-अन्याय की चिंता न करो। वास्तव में ये सारी धरती तो ईश्वर की है । हम मनुष्य लोग तो बस इसकी देखभाल करने को यहां आते हैं । आज जो हमारे हवाले है वह कल किसी और के हाथों में होगा । ईश्वर ही शाश्वत है । हमारी उपस्थिति तो यहां क्षणभंगुर है।
( क्रमशः )