[ जीयो और जीने दो ----कहानी चौथी क़िश्त ]
इस बीच दुर्ग शहर के दायरे में क विशेष घटना हुई । दुर्ग नगर निगम की बैठक में आम सहमति से यह निर्णय लिया गया कि अब वर्तमान बस स्टैन्ड शहर की ज़रूरत के हिसाब से छोटा पड़ने लगा है । हर समय बस स्टैन्ड में बसों के बहुत ज्यादा आवागमन के कारण अफ़रा तफ़री का माहौल रहता है। अत:बस स्टैन्ड को पोटिया शिफ़्ट कर दिया जाया ।
उसी बैठक में यह निर्णय भी लिया गया कि जनता की सहूलियत व मांग के मद्दे-नज़र मोतीपारा और स्टेशन रोड में सुलभ शौचालय का निर्माण किया जाए । इसके लिए आगे जो स्थान चिन्हित किया गया वे दोनों स्थान महेश जी की ज़मीनों के ठीक बगल का स्थान था। ये दोनों निर्णय 3 महीनों के अंदर लागू हो गए और दुर्ग का बस स्टैड पोटिया शिफ़्ट हो गया । पोटिया में जिस स्थान पर बस स्टैड शिफ़्ट हुआ उसके ठीक सामने सुरेश जी की तीस हज़ार स्क़्वे फ़ीट ज़मीन थी । इस तरह नगर निगम दुर्ग के निर्णयों से सबसे ज्यादा प्रभावित महेश राजपूत व सुरेश्वर जी ही हुए । सुरेश्वर जी की ज़मीन की क़ीमत जहां आसमान छूने लगी वहीं महेश जी की ज़मीनों की क़ीमतें धराशायी हो गईं ।
महेश की सारी प्लानिंग धूल धूसरित हो गई। बैंक से लोन में उटाए 30 करोड़ रुपियों में से आधी मशीनें आ चुकीं थी। महेश ने सोचा था कि बाकी 20 करोड़ का प्रबंध वह दुर्ग की ज़मीनों को बेचकर कर लेगा । इस संबंध में किसी पार्टी से बात भी चल रही थि पर बस स्टैन्ड के पोटिया शिफ़्ट हो जाने के कारण वह पार्टी पीछे हट गई । जो नए लोग इस ज़मीन को खरीदने की मन्शा जता रहे थे वे उस ज़मीन की क़ीमत वर्तमान परिवेश में 1 करोड़ से ज्यादा नहीं आंक रहे थे । इस तरह इन तीन महीनों में महेश की क़िस्मत आसमान से ज़मीन पर आ गई थी । वह शेष 20 करोड़ का प्रबंध करने में खुद को असमर्थ पा रहे थे । उन्होंने इधर उधर बहुत हाथ पैर मारे पर नतीज़ा सिफ़र ही रहा । फ़ैक्ट्री का निर्माण रुक गया । देखते ही देखते 6 महीने गुज़र गए। उधर बैंक से लिए गए लोन की रकम 30 करोड़ का ब्याज महेश को 30 लाख रुपिए हर महीने पटाना ही पड़ रहा था । उन्होंने एक दो महीने जैसे तैसे पैसे पटाए पर उसके बाद उनके हाथ खड़े हो गए। जब बैंक का पैसा पटना बंद हो गया तो बैंक ने कानूनी कार्यवाही करते हुए सारी प्रापर्टी को अपने कब्ज़े में ले लिया । फ़ेक्टरी के अलावा महेश जी की इंदिरा मार्केट वाली दुकान और उनका घर भी बैंक के कब्ज़े में चला गया । इस तरह महेश और उनका परिवार सड़क पर आ गया । अब वे लोग बैगापारा में एक किराए के मकान में रहने लगे । महेश इस संकट और इस संकट के कारण पैदा हुए सदमे से खुद को उबार नहीं पाए और मानसिक रुप से विक्षिप्त हो गए। कुछ दोस्तों व चाहने वालों से मदद मांगी गई पर सबने पीठ दिखा दी । धीरे धीरे खाने पीने के भी लाले पड़ने लगे ।
परिवार वालों को समझ नहीं आ रहा था कि करें तो करें क्या ? कभी तो वे आत्महत्या की भी सोचने लगे थे ।
( क्रमशः )