मैंने गिरगिड़ा अपनी प्यार क़ी दुहाई देती रहीं..थी
फिर भी वो मिलना आखिरी मुलाक़ात हो गई थी
कितना हीं तो तन मन धन सब हीं लुटाया था उसपे
पर उसे तो मेरी हर हरकत बकबास लगने थे..लगे
कैसे कैसे ना यक़ीन दिलाये उसे के मैं मर रहीं हुँ तुझपे
फिर भी नजर ना... हीं फेरी वो एक बार भी मुझपे..
इतना सितम भी ढाता.. हैं कोई क्या अपने चाहने बालों पर
परवाह ना.. हीं हो रहीं उसे के मैं हुये जा रहीं हुँ.. बेघर..
क्या ऐसे भी तड़पा तड़पा के मारता हैं कोई अपनों को...
नादान थे वे अपना माने जा रहीं थी....ऐसे हीं वो सबको
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