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अमूल्य सम्पदा है संतोष :-- आचार्य अर्जुन तिवारी

8 अप्रैल 2023

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                               *मानव जीवन पाकर के प्रत्येक मनुष्य जीवन भर अनेकों प्रकार की संपदा एकत्र करता रहता है परंतु विभिन्न प्रकार की संपदा का भंडार होने के बाद भी मनुष्य सुखी नहीं देखा जाता ! उसका एक कारण है कि मनुष्य के भीतर संतोष नहीं होता है जबकि संतोष अनुपम संपदा है ! मनुष्य के असंतोष के कई कारण होते हैं यह जीवन में मानसिक व्यग्रता लाकर बौद्धिक क्षमता को विक्षुब्ध कर देता है जिसके परिणाम स्वरूप निराशा , उदासीनता , तनाव , द्वेष और मानसिक पीड़ा के साथ लोग ऐसे दब जाते हैं कि कोई भी कार्य करने की अपनी क्षमता खो देते हैं और चारों और दुख ही दुख दिखाई पड़ने लगता है ! इसका कारण एक ही है कि मनुष्य को संतुष्टि नहीं मिल पाती है जबकि यह सत्य है कि जो संतुष्ट है वही सुखी है ! संतोष मानव जीवन का श्रृंगार है ! पूर्व काल में मनुष्य के पास अधिक संपदा तो नहीं होती थी परंतु उनके जीवन में संतोष होता था जिससे वे प्रसन्न चित्त रहते हुए सुख का अनुभव करते थे ! संतोष तीन प्रकार का होता है ! "पहला" ईश्वर से संतुष्ट अर्थात जितना जैसा और जब भी ईश्वर ने दिया उस में संतुष्ट रहना ! "दूसरा" अपने आप से संतुष्ट अर्थात अपने आपको अपने गुण और गुणों के साथ स्वीकार करना और "तीसरा" सर्व संबंध और संपर्क से संतुष्ट अर्थात हर आत्मा को उनके गुण अवगुण के साथ स्वीकार करते हुए प्रत्येक के भीतर किसी न किसी सकारात्मकता के भाव को खोजना ! जिनके भीतर संतोष के तीनों विभागों को जानने की क्षमता है वह कभी भी दुखी नहीं हो सकता क्योंकि संतोष प्रत्यक्ष रूप से प्रसन्नता देता है ! इसी प्रसन्नता के आधार पर प्रत्यक्ष फल यह मिलता है कि ऐसे लोगों की स्वत: ही सभी के द्वारा प्रशंसा होती है  !*


*आज बहुत ही कम लोग ऐसे मिलते हैं जिन्हें सुखी कहा जा सकता है क्योंकि आज मनुष्य के जीवन में संतुष्टि है  ही नहीं ! सारा जीवन और अधिक , और अधिक प्राप्त करने के लिए प्रयास करते करते व्यतीत हो जाता है और अंततः मनुष्य असंतुष्ट होकर ही मृत्यु को प्राप्त हो जाता है ! नया जन्म प्राप्त करते ही वही भागदौड़ फिर से प्रारंभ हो जाती है ! यह क्रम जन्म - जन्मांतर तक तब तक चलता रहता है जब तक कि जीव संतोष और संतुष्टता का गुण धारण नहीं करता ! जो सदा संतुष्ट रहता है वह सदा प्रसन्न रहता है ! मैं "आचार्य अर्जुन तिवारी" आज देख रहा हूं कि लोग करने को तो बहुत कुछ करते हैं , अनेकों प्रकार की सुख - संपत्ति , लक्ष्मी उनके पास विद्यमान है परंतु संतुष्टि उनके चेहरे पर परिलक्षित नहीं होती ! असंतुष्ट लोगों के अंदर हवा में महल बनाने की आदत होती है जबकि सत्य में ऐसे लोग जीवन में कभी भी कुछ नहीं कर पाते हैं क्योंकि वह पूरी तरह इस बात को समझ ही नहीं पाते हैं कि जीवन में दोनों सिरों को मिलाने के लिए एक कड़ी मेहनत अनिवार्य है ! अत: यह कहना उचित ही होगा कि केवल सही समझ के साथ ही उचित लक्ष्य को पाया जा सकता है ! कहने का तात्पर्य यह है कि मनुष्य को संतोष रूपी धन को छोड़कर अन्य प्रकार के धन को प्राप्त करने के पीछे अपना अमूल्य समय रूपी धन बर्बाद नहीं करना चाहिए क्योंकि संतोष के बराबर कोई भी धन नहीं है ! संतोष के समकक्ष कुछ भी नहीं है अगर हम संतुष्ट हो जाएं तो हमारे सारे कष्ट स्वत: समाप्त हो जाएंगेे !*

*असंतुष्ट रहना ही सभी समस्याओं की जड़ है ! इसी से कष्ट आता है ! संतोष जीवन का सार है जीवन की गति प्रगति संतोष के पहिए से होती है अतः प्रत्येक मनुष्य को सदा ही संतुष्ट रहने का प्रयास करना चाहिए !*

     
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रचनाएँ
जीवन दर्शन
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निरंतर अन्तर्मुखी एवं बहुर्मुखी विकास में संतुलन बनाये रखना चाहिए मनुष्य एक विकासशील प्राणी है , इस धरती पर जन्म लेने के बाद वह निरंतर विकास करता चला जाता है क्योंकि मनुष्य का जीवन भी विकास की यात्रा है | मनुष्य का विकास दो प्रकार का होता है अंतर्मुखी एवं बहिर्मुखी | अंतर्मुखी विकास करने वाले मनुष्य महामानव की श्रेणी में आते हैं क्योंकि केवल बहिर्मुखी विकास से मनुष्य को कभी भी आत्मिक शांति एवं तृप्ति नहीं प्राप्त हो सकती | तृप्ति , आनंद और शांति प्राप्त करना मनुष्य की आवश्यकता भी है और अधिकार भी ! परंतु इसे प्राप्त करने के लिए मनुष्य को अपने अंदर उतरना पड़ता है , अंतर्यात्रा प्रारंभ करनी पड़ती है ` ऐसा नहीं है कि मनुष्य अंतर्यात्रा करते समय बहिर्मुखी विकास को भूल जाय ! मनुष्य को बाहर और अंदर के विकास का संतुलन बना कर रखना चाहिए ऐसा नहीं होना चाहिए कि भौतिक संपदा का अंबार लगा रहे परंतु मन की शांति और प्रसन्नता अंतर्ध्यान हो जाय ! ऐसा भी नहीं होना चाहिए कि मनुष्य के जीवन की न्यूनतम न्यायपूर्ण आवश्यकताएं भी ना पूर्ण हो ! वह सिर्फ शांति की खोज में ही लगा रहे | इसलिए मनुष्य को दोनों में संतुलन बना कर रखना चाहिए | मनुष्य को बहिर्मुखी तथा अंतर्मुखी दोनों ही धरातल के ऊपर संतुलित होना चाहिए | चार पुरुषोर्थों में के धर्म के साथ अर्थ तथा काम के साथ मोक्ष सम्मिलित है , परंतु इतना सब कुछ जानने के बाद भी मनुष्य जितना प्रयास बाहरी उन्नति के लिए करता है उतना आंतरिक विकास के लिए नहीं करता इसीलिए उसे जीवन में कभी भी शांति नहीं प्राप्त होती | अंतर्यात्रा करना इतना सरल भी नहीं है | जब मनुष्य आंतरिक सुख शांति की खोज में अंतर्यात्रा प्रारंभ करता है तब उसके हृदय में ही दैवी और आसुरी वृत्तियों का संग्राम प्रारंभ हो जाता है | यही देवासुर संग्राम तथा महाभारत है , और यह संग्राम तब तक चला करता है जब तक मनुष्य को पूर्ण आध्यात्मिकता नहीं प्राप्त हो जाती | जो निरंतर सजग रहते हुए प्रयत्नशील रहता है सफलता उसी को मिलती है | आज भौतिकता का प्रभाव चारों ओर देखने को मिल रहा है | आज का मनुष्य बहिर्मुखी विकास करने के लिए पागल सा होता चला जा रहा है | अपने बहिर्मुखी विकास के इस उपक्रम में वह प्रकृति से संघर्ष करता हुआ निरंतर नए नए उपकरणों का निर्माण कर रहा है , तथा नित्य नये भोग और सुरक्षा के साधन बुलाता चला जा रहा है | निरंतर बहिर्मुखी विकास करने वाला मनुष्य कभी संतुष्ट नहीं हो पाता , क्योंकि इसका मुख्य कारण होता है विकास में सफल होने के बाद मनुष्य का लोभ बढ़ जाता है और जब मनुष्य को लोभ हो जाता है तो निरंतर और अधिक पाने की इच्छा उसे कभी शांति से जीने नहीं देती | मैं "आचार्य अर्जुन तिवारी" महाराज ययाति के चरित्र को पढ़कर मन में यह अनुभव करता हूं महाराज ययाति ने सभी प्रकार के भोगों को भोगने की लालसा में अपने पुत्र का यौवन लेकर के अपनी बुढ़ापा उसको दे दी थी परंतु फिर भी उनकी तृष्णा नहीं मिटी | अंततोगत्वा महाराज को कहना पड़ा कि:- उन्होंने अपने पुत्र का यौवन लेकर भोगों को भोगने का प्रयास तो किया परंतु सत्य यह है कि मैंने भोगों को नहीं भोगा बल्कि भोगों ने मुझको भोग लिया | इसी प्रकार मनुष्य बहिर्मुखी विकास करते करते एक दिन थक कर बैठ जाता है और तब वह पछताता है कि मैंने तो अपना सारा जीवन व्यर्थ के कार्यों में बिता दिया | यह विचार आने के बाद जब मनुष्य अंतर्मुखी विकास करने का प्रयास करने लगता है तब तक बहुत देर हो चुकी होती है | इसीलिए कहा गया है कि मनुष्य को अंतर्मुखी एवं बहिर्मुखी दोनों प्रकार के विकास में संतुलन बना कर रखना चाहिए | जो भी इस विकास यात्रा में संतुलित होकर के जीवन पथ पर बढ़ता है उसका जीवन आध्यात्मिक एवं भौतिक में सामंजस्य पूर्ण होता है और वही मनुष्य अपने जीवन में सफल हो सकता हैं | इसलिए प्रत्येक मनुष्य को बहिर्मुखी विकास के साथ-साथ अंतर्यात्रा अर्थात अंतर्मुखी विकास भी करते रहना चाहिए | बहिर्मुखी विकास करने के चक्कर में जो अंतर्मुखी विकास पर ध्यान ना दे , या फिर अंतर्मुखी विकास में सतत प्रयासरत होने के बाद बहिर्मुखी विकास को भुला देना बुद्धिमत्ता नहीं कही जा सकती इसलिए निरंतर दोनों में संतुलन बनाए रखना चाहिए | ×××××{{×××××××××××××××××××××××××××××××××××××××× ××××××××××××××××××××××××××××××××××××××××××××××× २ --: सुख की चाह को मिटा देना ही सच्चा सुख है :-- *इस संसार में जन्म लेकर जब मनुष्य समझदार होता है तो वह संसार के सारे कार्य अपने मन के अनुसार करना चाहता है | मनुष्य यही विचार करता है कि उसके मन में जो आए भगवान उसे पूरा करते रहे परंतु भगवान मन की सारी बातें पूरी नहीं करते हैं | यह भगवान का मनुष्य के प्रति कोई द्वेष नहीं है बल्कि इसमें भी भगवान की कृपा भरी हुई है , क्योंकि यदि मनुष्य के मन की सारी बातें पूरी होने लगेगी तो ऐसी भयानक स्थिति पैदा हो जाएगी जिसकी कल्पना भी नहीं की जा सकती | मनुष्य अपने मन की सारी कामनाएं पूरी करके सुखी होना चाहता है जबकि वास्तविकता यह है कि मनुष्य को अपने सुख और दुख का ज्ञान ही नहीं है | मनुष्य अपने मन की बात पूरी होने को सुख और बात पूरी ना होने को दुख मानता है | जब मनुष्य सचमुच दुखी हो जाता है तब उस समय उसको किसी प्रकार के सुख भोग में प्रवृति नहीं होती और भोग वासना का अंत हो जाता है | जब संसार से अरुचि हो जाती है तब वह दुख मनुष्य को प्रभु से मिला देता है क्योंकि सुख भोग की रूचि और प्रवृति से ही मनुष्य उन से विमुख होता है और भोग वासना की निवृत्ति से भगवान के सम्मुख और संसार से विमुख होता है | तो विचार कीजिये कि जब मनुष्य को दुख मिलता है तभी वह भगवान की शरण में जाता है तो यह भगवान की विशेष कृपा हुई कि नहीं हुई ? यदि मनुष्य के मन की सारी बातें पूरी होती रहे और उसको कभी दुख ही ना हो तो भगवान की शरण में नहीं जाएगा और जब मनुष्य भगवान की शरण में नहीं जाता तो यह मान लो कि उसके ऊपर भगवान की कृपा नहीं हुई है | इसीलिए हमारे महापुरुष सांसारिक भोग वासना से निवृत्त होकर ईश्वर की ओर उन्मुख होते रहे हैं और इससे उन्हें जो चिरस्थाई सुख प्राप्त हुआ उसका वर्णन कर पाना हमारी लेखनी के बस में नहीं है | प्रत्येक मनुष्य को सच्चा सुख ढूंढने का प्रयास करना चाहिए और सच्चा सुख सुख भोग की चाह मिटाने में ही मिल सकता है |* *आज आधुनिक युग में प्रत्येक मनुष्य सुखी ही रहना चाहता है परंतु प्रत्येक सुख मनुष्य को मिल नहीं पाता | मनुष्य दो प्रकार के जीवन का उपयोग करता है :- सुखी जीवन एवं दुखी जीवन | दुखी एवं सुखी जीवन के पहले यह जान लिया जाए कि जीवन क्या है ? क्योंकि जिसको लोग जीवन कहते हैं वह तो जीवन है ही नहीं ! वह तो मृत्यु का ही दूसरा नाम है | एक अवस्था की मृत्यु को ही दूसरी अवस्था का जन्म कहा जाता है | मैं "आचार्य अर्जुन तिवारी" बताना चाहूंगा कि जिस प्रकार बीज की मृत्यु के बाद ही पौधे की उत्पत्ति होती है ! बाल्यावस्था की मृत्यु और कुमार एवं युवावस्था की क्रम से उत्पत्ति होती है | इनमें कोई व्यवस्था स्थाई नहीं है , प्रत्येक क्षण परिवर्तनशील है | जिस शरीर को सुखी रखने के लिए मनुष्य अनेकों प्रकार के विषय भोगों की कामना करता है वह शरीर तो वास्तव में एक अस्थिपिंजर मात्र है | इसकी चाह ने आत्मा की चाह को अर्थात अमर जीवन की चाह को ढक कर रख दिया है | भोग की चाह ने मनुष्य को ईश्वर से विमुख कर दिया है इसीलिए मनुष्य दुखी है क्योंकि ईश्वर से विमुख रहकर कोई भी सुखी नहीं रह सकता है | इसीलिए प्रत्येक मनुष्य को इंद्रियों एवं विषयों के संबंध से होने वाले सुख भोगो की चाह को मिटा कर भगवान के सम्मुख होने का प्रयास करना चाहिए |* *जब मनुष्य को सारे ऐश्वर्य प्राप्त हो जाते हैं फिर भी उसे कुछ न कुछ अभाव का अनुभव ही होता रहता है | इच्छाओं की पूर्ति कभी नहीं हो सकती | यदि सच्चे सुख की कामना है तो इच्छाओं का दमन करना होगा | जिस दिन मनुष्य सुख भोगने की चाह को मिटा देता है उसी दिन उसको सच्चा सुख प्राप्त होने लगता है |* ××××××××××××××××××××××××××××××××××××××××××××××× ××××××××××××××××××××××××××××××××××××××××××××××× ३ --:प्रत्येक दशा में मिलती है भगवत्कृपा:-- *इस संसार में जन्म लेने के बाद प्रत्येक मनुष्य भगवत्कृपा प्राप्त करना चाहता है | भगवत्कृपा तो सब पर निरंतर है , सभी अवस्थाओं में है , सभी स्थान पर है |  इस भगवत्कृपा का अनुभव हमारे पूर्वजों ने बहुत ही सूक्ष्मता से किया है | भगवत्कृपा क्या है ? इसका अनुभव कैसे किया जाय ? यह हमारे पूर्वजों के चरित्रों में देखने को मिलता है , जो ईश्वर प्रदत्त संसाधनों का उपयोग करते हुए जो मिला उसमें संतोष कर लेता है वह भगवान की कृपा स्वयं पर मानता है | केवल भोगपदार्थों या ऐश्वर्य प्राप्त हो जाने को ही भगवत्कृपा मानना बहुत बड़ी मूर्खता है | भोगपदार्थ , ऐश्वर्य , संपत्ति को भगवत्कृपा नहीं मानना चाहिए क्योंकि यह सब मनुष्य को माया के मोह के बंधन में बांधने वाले हैं | माया के मोह में बांध कर जो भगवान से अलग कर देने वाली चीज है वह भला भगवत्कृपा कैसे हो सकती है ! जब मनुष्य के हृदय से काम ,  क्रोध , लोभ , मोह , अहंकार , मत्सर ,  ईर्ष्या आदि मिट जायं ! मनुष्य सबमें समभाव देखने लगे तो समझो कि भगवत्कृपा मिल रही है | राजा बलि ने संपूर्ण विश्व को जीत लिया , सृष्टि के समस्त ऐश्वर्या एवं भोगपदार्थ उसके पास हो गए | देवताओं को भी जीतने का प्रयोजन करने लगा परंतु इतना सब कुछ हो जाने के बाद ही उसको विशेष भगवत्कृपा नहीं प्राप्त हुई | यद्यपि राजा बलि भगवान के बहुत बड़े भक्त थे और वे स्वयं पर भगवान की कृपा मानते थे परंतु उनको भगवत्कृपा तब प्राप्त हुई जब भगवान ने उनके सर्वस्व का अपहरण कर लिया | कुछ लोग यह भी कह सकते हैं कि जब वलि भगवान का भक्त था तो भगवान ने उसका सब कुछ क्यों ले लिया ? इसका उत्तर यही कहा जा सकता है भगवान ने अपनी कृपा प्रदान करने के लिए बलि के ऐश्वर्य का अपहरण किया , क्योंकि बलि को भी अपने विषय का अहंकार हो गया था |  कहने का तात्पर्य यह है कि भगवत्कृपा मात्र सुख में ही ना मानकर करके सुख एवं दुख दोनों में समान रूप से मानना चाहिए !* *आज के युग में बहुत से ऐसे लोग देखने को मिलते हैं जो भगवान का भजन करते हैं , भगवान के नाम का जप करते हैं ,  रामायण और गीता जी का पाठ करते हैं और संसार के भोगों की प्राप्ति में किंचित सफलता प्राप्त होने पर उसे भगवान की कृपा मान लेते हैं | जब किसी की कोई कामना पूर्ण हो जाती है ,  उसका कोई कार्य बन जाता है या लाभ हो जाता है तो यह समझता है कि मेरे ऊपर भगवत्कृपा बन गई है | परंतु मैं "आचार्य अर्जुन तिवारी"  ऐसे भी लोगों को देख रहा हूं जो अनुकूल परिस्थितियों में तो भगवत कृपा मानते है परंतु प्रतिकूल परिस्थितियों में उसके विचार भी प्रतिकूल हो जाते हैं | ऐसे अवसर पर मनुष्य सोचने लगता है कि भगवान बड़े निर्दयी हैं , भगवान की मुझ पर कृपा नहीं है , और अधिक कष्ट होगा तो वह यह भी कह देता है कि भगवान न्याय नहीं करते हैं | कई लोग तो ऐसे भी देखने को मिलते हैं जो यह भी कह देते हैं कि भगवान तो है ही नहीं ! यह सब कोरी कल्पना है , क्योंकि भगवान होते तो इतना भजन करने पर भी हमको इतना कष्ट क्यों मिलता ? ऐसा कहकर लोग भगवान को भी अस्वीकार कर देते हैं |  इसलिए अनुकूल स्थिति की प्राप्ति में भगवत्कृपा है यह मानना भूल है , परंतु आज जब मनुष्य को सफलताएं प्राप्त होती है तब तो वह उसमें भगवान की कृपा मानता है परंतु कुछ दिन बाद जब जब वह अधिक सफल हो जाता है तो भगवान की कृपा को भूल जाता है और यह मानने लगता है कि यह सफलता मेरी मेहनत से मिली है |  इस प्रकार मनुष्य को अपनी बुद्धि , का अपने बल का ,  अपने चतुराई का और अपनी कला का अहंकार हो जाता है | भगवान को भूल कर वह अपने अहंकार की पूजा करने लगता है | तो विचार कीजिए मनुष्य को भगवत्कृपा कैसे प्राप्त होगी ? भगवत्कृपा का अनुभव अनुकूल एवं प्रतिकूल दोनों परिस्थितियों में बराबर करना चाहिए क्योंकि बिना ईश्वर की इच्छा से इस संसार में कुछ भी नहीं होता |* *भगवान समदर्शी हैं , भगवत्कृपा बराबर सब पर बनी रहती है | मनुष्य का दृष्टिकोण कैसा है यह उस पर निर्भर करता है कि वह स्वयं पर भगवत्कृपा मानता है या नहीं मानता है !* ×××××××××××××××××××××××××××××××××××××××××××××××××× ×××××××××××××××××××××××××××××××××××××××{{×××××××××× ४ *मानव जीवन में मनुष्य के शब्दों का परिवार , समाज एवं स्वयं पर बहुत बड़ा प्रभाव पड़ता है | मनुष्य के क्रियाकलाप में सबसे महत्वपूर्ण है मनुष्य की वाणी और वाणी से निकले हुए शब्द | इन शब्दों के बिना मनुष्य की जिंदगी अधूरी है क्योंकि यह शब्द ही है जो मनुष्य और समाज को एक दूसरे के साथ जोड़ते हैं | शब्द शक्ति के बिना मनुष्य का जीवन कोरे कागज की भाँति ही होता है | अक्षरों की बिना मनुष्य की जिंदगी उस मरुस्थल की भांति है जिसमें कोई नदी नहीं या यूं कहें इस शब्दों के बिना मानव जीवन पशु जीवन के बराबर ही है | पूर्वकाल में आध्यात्मिक महापुरुषों ने शब्दों की शक्ति को समझा , शब्द इतने प्रभावशाली होते हैं कि कभी इनकी मृत्यु नहीं होती है | इनके अर्थों का संदेश दिमाग में कीटाणुओं की भाँति प्रवेश करके प्रभाव डालता है | प्रायः देखा जाता है कि जब कोई अभिवादन की मुद्रा में झुक कर प्रणाम करता है तो उसका संदेश इतना विनम्र तथा शांत होता है कि उस समय शरीर पूर्ण रोमांचित होता है , यह शब्दों की ही शक्ति है ! और वहीं दूसरी ओर जब कोई विरोधी या शत्रु आपके प्रति बुरे शब्दों का प्रयोग करता है तो निश्चय ही उन गंदे शब्दों के संदेश के कीटाणुओं का प्रभाव नकारात्मक होगा | यह गन्दे शब्द मस्तिष्क में प्रवेश करते हैं तो मन दुखी हो जाता है और कभी-कभी तो यह होता है यह हम शब्दों के अर्थ को समझने में भूल कर बैठते हैं जिसके परिणाम स्वरूप हमारे द्वारा ऐसे क्रियाकलाप हो जाते हैं जो कि नहीं होनी चाहिए | कभी इस पर विचार किया जाय कि आध्यात्मिक पुरुष , साधु , संतुलित मस्तिष्क के स्वामियों पर शब्दों का संदेश इतनी जल्दी प्रभावी नहीं होता क्योंकि वह शब्दों के संदेश को सुनकर उन शब्दों पर विवेकपूर्ण विचार करते हैं | विधिवत विचार करने के बाद उन शब्दों के प्रभाव को विवेक रूपी तराजू में तौल कर तब कोई निर्णय लेते हैं ! परंतु आज ऐसा देखने में नहीं मिल रहा है शब्द भी वही है , मनुष्य जीवन भी वही है बदला है तो सिर्फ मनुष्य के बोलने और उसके समझने का ढंग |* *आज संसार में यह चारों त्राहि-त्राहि मची हुई है लोग एक दूसरे को मरने मारने पर उतारू है तो इसका कारण कहीं ना कहीं से शब्द ही है | मनुष्य के शब्द यदि अमृत बनकर किसी को प्राण दान दे रहे हैं तो यही शब्द विष बनकर के लोगों के जीवन का हरण भी कर रहे हैं | परंतु मेरा "आचार्य अर्जुन तिवारी" का मानना है कि जो संतुलित मस्तिष्क के पुरुष होते हैं वे अपने विरोध में कहे गए शब्दों पर भी त्वरित निर्णय नहीं लेते क्योंकि वे विरोधाभास की अग्नि को दवा देने में सक्षम होते हैं | अपने प्रति कहे गए शब्दों की मिसाइलों को वे अपनी संतुलन की मिसाइलों के साथ मस्तिष्क में प्रवेश होने से पूर्व ही नष्ट कर देते हैं | क्योंकि मिसाइलों की भांति शब्द भी मस्तिष्क में प्रवेश करके तोड़फोड़ कर तबाही मचा देते हैं | प्रेम पूर्ण शब्दों से अपनत्व जबकि घृऩायुक्त शब्दों से दुराव पैदा होता है | बहुत से लोग ऐसे भी हैं जिन्हें शब्दों की शक्ति पता ही नहीं है क्योंकि वह दैनिक जीवन में दिन-रात इतने व्यस्त रहते हैं कि उन्होंने इस बारे में कभी सोचने का प्रयास ही नहीं किया | आज जो परिवारों में झगड़े , युद्ध , वाद-विवाद , ईर्ष्या इत्यादि देखने को मिल रहा है वह सब इन्हीं शब्दों की शक्ति का ही परिणाम है | प्रेम , श्रद्धा , आध्यात्मिकता सब का स्रोत शब्द ही है , इनकी अभिव्यक्ति शब्दों से ही की जा सकती है | जो लोग शब्दों की शक्ति को समझ लेते हैं वह बहुत कम दुखी होते हैं और बुरे लगने वाले शब्दों को मस्तिष्क में प्रविष्ट ही नहीं होने देते | इससे उनका संतुलन बना रहता है तथा विपरीतार्थी शब्दों का प्रभाव ग्रहण ही नहीं करते | ऐसा करके वह अपनी ओर आने वाले अनेक संकटों से स्वयं का बचाव तो करते ही हैं साथ ही अपने आसपास रहने वाले समाज को भी सहेजने में सफल होते हैं | किसी भी शब्द को सुनकर उन्हें विवेक रूपी तराजू पर तोलने के बाद ही कोई निर्णय लेना चाहिए |* *अंततः हम इसी निष्कर्ष पर पहुंचते हैं किस शब्दों की शक्ति को समझना ही जीवन है जिसके पास चाबी है वह प्रत्येक तरह के दिमागी तारों को खोल सकने की सामर्थ्य रखता है !* ×××××××××××××××××××××××××××××××××××××××××××××××××× ×××××××{{{{{{××××××××××××××××××××××××××××××××××××××× ५ *मनुष्य के मुख से निकली हुई वाणी का जीवन एवं व्यवहार में महत्त्व सर्वविदित है | वाणी का प्रयोग मनुष्य को सोच समझ कर करना चाहिए | कब बोलना है ! क्या बोलना है ! कब चुप रहना है ! यह व्यवहारिक जीवन की सफलता की दृष्टि से महत्वपूर्ण हो जाता है | आध्यात्मिक रूप से इसका महत्व और भी बढ़ जाता है | बिना सोचे कुछ भी बोलना किसी भी रूप में उचित नहीं रहता | ऐसे में बक-बक करने से नुकसान ही अधिक होता है लाभ कुछ भी नहीं | यह एक सर्वविदित तथ्य है कि वाणी हमारे शक्तिकोश को लपेटे हुए अभिव्यक्त होती है जिसमें उर्जा का क्षय होता है | लगातार बोलना व्यक्ति को थका देता है साथ ही इसके कारण भूल चुक की संभावनाएं भी बढ़ जाती है | बिना इच्छा के भी मुख से गलत बोल निकलने लगते हैं ऐसा हो जाने के बाद मनुष्य के पास पश्चाताप के अतिरिक्त कुछ भी शेष नहीं बचता | बिना सोचे समझे अनावश्यक शब्दों का उपयोग व्यवहारिक जीवन को भी जटिल बना देता है | रिश्तो में दरार पड़ती है एवं आपस में गलतफहमियां जन्म लेने लगती हैं | बिगड़े बोल परिवार एवं इष्ट मित्रों के बीच कलह का कारण बन जाते हैं जिसे यदि संभाला ना गया तो स्थिति दिन प्रतिदिन बिगड़ती ही जाती है | महाभारत का युद्ध वाणी की निरंकुशता के कारण ही हुआ था , यदि दोनों पक्ष की ओर से अपनी वाणी पर संयम रखा जाता तो शायद इतना विशाल संग्राम न होता | इसलिए प्रत्येक मनुष्य को देश काल परिस्थिति के अनुसार क्या बोलना चाहिए और क्या नहीं बोलना चाहिए ! कहां बोलना आवश्यक है और कहां मौन रहना आवश्यक है इस पर विचार अवश्य करना चाहिए | जो बिना विचार किये , बिना उचित अवसर के अपना वक्तव्य देने लगता है वह अंततोगत्वा विघटन का कारण बन जाता है जिसका परिणाम पश्चाताप के रूप में समुपस्थित होता है ! परंतु पश्चाताप करने के बाद भी मुख से निकली हुई वाणी वापस नहीं लाई जा सकती ! इसलिए सदैव सोंच विचारकर ही उचित समय पर बोलना चाहिए अन्यथा मौन रहना ही श्रेयस्कर होता है |* *आज बिना कुछ पूछे सलाह देने वालों की एक लम्बी कतार समाज में देखी जा सकती है | समाज में अनेक लोग ऐसे हैं जो बिना किसी आवश्यकता के भी बात बात पर अपनी सलाह दिया करते हैं | प्रत्येक बात पर टिप्पणी करना उनकी आदत हो जाती है | मैं "आचार्य अर्जुन तिवारी" स्पष्ट रूप से समाज में देख रहा हूं कि आज मनुष्य यह विचार करना ही नहीं चाहता कि हमें कब ? कहां ?? और क्या ??? बोलना उचित है और कहां मौन रहने की आवश्यकता है | हमारे सनातन ग्रंथों में यदि "मौनं स्वीकृति लक्षणम्" कहा गया है तो "अति सर्वत्र वर्जयेत्" की घोषणा भी की गई है | कवियों ने भाव दिया है :- "अति का भला न बोलना अति की भली न चूप" ! कहने का सीधा का तात्पर्य है कि मनुष्य को कब कहां कैसे वाणी बोलनी है इस पर विचार अवश्य करना चाहिए ! क्योंकि जिस प्रकार मनुष्य की एक मर्यादा होती है उसी प्रकार सबसे महत्वपूर्ण है मनुष्य के वाणी की मर्यादा भी होती है | समस्याएं वहीं उत्पन्न होती है जहां मर्यादा का उल्लंघन किया जाता है | इस संसार में सब की सीमा रेखा निश्चित है वाणी की मर्यादा भी सीमा रेखा के अंदर ही शोभायमान होती है | जो मनुष्य बिना सोचे समझे कहीं भी कुछ भी बोलने लगता है वह प्राय: विवाद का कारण बनता है इसीलिए मनुष्य को सदैव उचित स्थान पर , उचित समय पर , सोच समझ कर उचित वक्तव्य देना चाहिए ! जिस समाज में ऐसा होता है वहां आपसी सामंजस्य एवं प्रेम सद्भाव सदैव बना रहता है | अधिक बोलने से वाणी में स्वाभाविक रूप से हल्कापन आ जाता है और वाणी का हल्कापन व्यक्तित्व के हल्केपन को दर्शाने लगता है | इसलिए अपनी गरिमा को अक्षुण्ण बनाये रखने के लिए वाणी का प्रयोग करते समय विचार अवश्य कर लेना चाहिए |* *बात बात में विवाद करना , अधिक बोलना , दूसरों की निंदा , चुगली , पीठ पीछे दूसरों की बुराई आदि करना मनुष्य के व्यक्तित्व को मिटाने लगती है और इससे मनुष्य की चारित्रिक दुर्बलता की झलक मिलने लगती है | ऐसा व्यक्ति समाज में अप्रमाणिक हो जाता है |*
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*मानव जीवन प्राप्त करके मनुष्य का उद्देश्य होता है परम लक्ष्य की प्राप्ति करना ! परम लक्ष्य अर्थात मोक्ष प्राप्त करना ! चौरासी लाख योनियों में भटकने के बाद मानव शरीर पाकर मनुष्य चौरासी लाख योनिय

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नागपंचमी :- आचार्य अर्जुन तिवारी

9 अगस्त 2024
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सनातन धर्म आदिकाल से ही अपनी दिव्यता के लिए जाना जाता है | सनातन का सिद्धांत है कि ईश्वर सर्वत्र समान रूप से व्याप्त है | इसी को प्रतिपादित करते हुए गोस्वामी तुलसीदास जी ने लिखा कि :- "ईश्वर सर्व भूतम

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