आरंभ से 19 साल पहले। देहरादून से चौहत्तर किलो मीटर आगे पंचकूला नामक स्थान। यह जनवरी की ठिठुरती हुई सर्दियों की रात थी। श्रीधाम कॉलेज कैंपस में चारो तरफ कोहरे की घनी चादर फैली हुई थी। स्ट्रीट लैम्पों से टिमटिमाती हुई हल्की रोशनी निकल रही थी लेकिन धुंध की वजह से वो भी बहुत कम दिखाई दे रही थी। आधी रात हो चुकी थी, शायद बर्फ गिरने ही वाली थी। कॉलेज के बराबर में ही प्रोफ़ेसर रामानुज अपने बंगले के बेसमेंट में बने अपने शानदार ऑफिस में बैठ कर एक किताब पढ़ रहे थे। उनका मन उस किताब में बिल्कुल नही लग रहा था ना ही वो उसको समझना चाह रहे थे। दरअसल वो प्रोफ़ेसर काल नैय्यर का इंतज़ार कर रहे थे जो कि अभी उनसे मिलने आने वाले थे। उन्होंने सोचा ना जाने अभी और कितनी देर में वो आएंगे और उन्होंने उस किताब को अपनी साइड की टेबल पर रखा और अपनी कुर्सी के पीछे टेक लगा ली। वह अपनी आँखें बंद कर के दो दिन पहले की उन घटनाओं को याद करने लगे जो इन दो दिनों में घटी थी। ये दो दिन बहुत ही लंबे और कष्टकारी रहे थे, लेकिन आखिरकार वो और उनके तीनों साथी उस बच्ची को बचाने में कामयाब रहे थे जोकि पाँचवी दिव्यास्त्र धारक बनने वाली थी। उन्होंने एक लंबी साँस ली, तभी ऑफिस की सीढ़ियों पर आहट हुई और किसी ने दरवाज़ा खटखटाया, "आ जाओ" प्रोफ़ेसर ने कहा। एक बीस-इक्कीस साल का लड़का ऑफिस के भीतर दाखिल हुआ, जोकि दिखने में पतला, लंबा और गोरा था। उसके बाल लम्बे तथा काले थे और उसने काले रंग का लंबा कोट पहना हुआ था। गले में एक मफलर था, कपड़े उसकी सुंदरता को और निखार रहे थे, किन्तु उसके सुन्दर चेहरे को किसी गंभीर चिंता ने घेर रखा था। प्रोफ़ेसर ने अपनी आँखें खोल दीं। वो उस लड़के की तरफ देख कर मुस्कुराए, "आओ आदित्य! मुझे खुशी है कि तुम वापस आ गए। इस वक़्त मुझे तुम्हारे आने की बिल्कुल उम्मीद नहीं थी। बैठो और मुझे पूरी बात बताओ।" उन्होंने धीरे से कहा। उस लड़के ने दोनों हाथ जोड़कर प्रोफ़ेसर को प्रणाम किया और चारो तरफ नज़र डाली। वह प्रोफ़ेसर के सामने रखी दो कुर्सियों में से एक पर बैठ गया और बोलना शुरू किया। "प्रोफ़ेसर लड़की अब सुरक्षित है। उन्होंने उसका नाम निशीका रखा है। प्रोफेसर पशुपति अभी भी उनके बराबर के घर में हैं और उन्होंने वहाँ से नज़र रखी हुई है। उस लड़की पर से अघोरियों का खतरा टल चुका है।" क्रमशः