अशोक बंसल
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पढ़े लिखे और फिर शिक्षक बने , पढ़ाया -नहीं पढ़ाया और रिटायर हो गए . इधर उधर का पढ़ते रहे , लिखते रहे और छपते रहे . जब भी छपे कलेजा छत्तीस हुआ . नहीं छपे तो मुंह लटक गया . बुढ़ापे में भी यही हाल है. फीरोजाबाद , आगरा , मथुरा और दिल्ली देख देख दिन- साल-दर -साल गुजर गए . अब लेपटाप तेरा ही सहारा है.