एक किस्सा नायाब ---- बुलन्दी खंडहरों की: चंदवार
मथुरा म्यूजियम में प्रदर्शित डेढ़ हजार साल पुरानी एक विशाल प्रतिमा के नीचे इसके प्राप्ति स्थान --- चंदवार (फीरोजाबाद ) को पढ़कर मैं चौंक जाता हूँ . चंदवार वह स्थान है जहाँ के मैदान में कन्नौज के राजा जयचंद और मोहम्मद गौरी का युध्द हुआ था . यमुना किनारे बसा चंदवार वह स्थान है जहाँ मथुरा के चोबिया पाडे की तरह एक मोहल्ला भी है . इस मोहल्ले में मथुरा से पलायन किये चतुर्वेदी बस गए थे . यह पलायन मथुरा में अहमद शाह अब्दाली के हमले के बाद किया गया था . आज चंदवार का चोबिया पाडा एकदम वीरान और खंडहर की शक्ल में है.
आओ , चले चंदवार .
हमारे देश का पुरातत्व विभाग अपनी जिम्मेदारी कितने गैर जिम्मेदाराना ढंग से निभा रहा है, इसका जीता-जागता नमूना है चंदवार के खंडहर। देशभर में अनेक प्राचीन स्थल ऐसे हैं जहाँ खण्डहरों की शक्ल में मौजूद इमारतें प्राचीन सभ्यता और संस्कृति की मूक गवाह हैं, लेकिन चूडि़यों के शहर फीरोजाबाद से 6 किलोमीटर दूर यमुना किनारे बसा गाँव चंदवार, पुरातत्व विभाग के अफसरों और बड़े-बड़े इतिहासकारों की नजरों से एकदम अछूता है। सैकड़ों साल पहले बसे चंदवार की वैभवशाली संपदा को प्राप्त करने और फिर उसकी सुरक्षा करने के लिए अभी तक पुरातत्व विभाग ने चंदवार आने की योजना न तो बनाई है और न ही किसी इतिहास-लेखक ने चंदवार जैसे स्थल पर शोध करने की ठानी है, लेकिन मूर्ति-तस्करों की गिध्द जैसी नजरें चंदवार पर एक लम्बे समय से गढ़ी हैं। चंदवार के खंडहरों में से मिलने वाली प्राचीन मूर्तियों और स्वर्ण-सिक्कों के गायब होने का सिलसिला यहाँ आज भी बना हुआ है।
सन् 1977 में फीरोजाबाद पुलिस ने चंदवार क्षेत्र से दो विशाल प्रतिमाएँ बरामद कीं थी। मूर्ति-तस्कर इन मूर्तियों को एक बैलगाड़ी पर लाद कर ले जा रहे थे। वर्तमान में एक मूर्ति मथुरा संग्रहालय में और दूसरी दिल्ली में सुरक्षित है। एक जर्मन विद्वान ने मथुरा संग्रहालय की मूर्ति को कुषाणकालीन ;द्वितीय व तृतीय शताब्दी का माना है। इसी प्रकार देश के अनेक जैन मन्दिरों में ऐसी अत्यन्त प्राचीन और मूल्यवान प्रतिमाएँ प्रतिष्ठित हैं, जिन्हें चन्दवार के खंडहरों से प्राप्त किया गया है। फीरोजाबाद के चन्दवार मन्दिर में रखी स्फटिक पाषाण की मूर्ति को ढाई हजार वर्ष पुराना माना गया है। इसी प्रकार दिल्ली के कूचा सेठ में एक जैन मन्दिर में रखी मूर्ति को भी 8 वीं - 9 वीं शताब्दी का माना जाता है। इन दोनों मूर्तियों को चंदवार के खण्डहरों से प्राप्त किया गया था।
चन्दवार, जहाँ रहने वाले इन्सानों की संख्या आज दो-ढाई सौ से ज्यादा नहीं है, भव्य खण्डहरों से घिरा है। इन खण्डहरों में घूमने वाला आज भी कह उठता है कि निश्चय ही इस स्थान का अतीत अत्यन्त गौरवशाली रहा होगा।
14वीं शताब्दी में रचित एक जैन ग्रंथ में चंदवार को भगवान् श्रीकृष्ण के पिता वसुदेव से संबन्धित माना गया है। सन् 1192 में मोहम्मद गौरी और जयचन्द के बीच चन्दवार में हुए युध्द की घटना इतिहास के पन्नों में दर्ज है। इस युध्द में जयचन्द मारा गया था। मथुरा के इतिहासकार डाॅ. वी.के. शर्मा ( प्रो. के आर . डिग्री कालेज )का कहना है कि चंदवार का यह युध्द इसलिए बेहद महत्वपूर्ण है क्योंकि कन्नौज के राजा जयचन्द की पराजय के बाद विदेश आक्रान्ताओं ने उत्तर भारत पर आधिपत्य जमाना प्रारम्भ कर दिया था और भारत में गुलामी का बीजारोपण हो गया था। इस गुलामी से 1947 में हमें निजात मिली।
आगरा गजेटियर के मुताबिक 8वीं या 9वीं शताब्दी में राजस्थान के किसी भाग से मानिकराय नामक राजकुमार इस स्थान पर आया और यहाँ उसने चंदवार राज्य की स्थापना की।
चन्दवार पर चैहान वंश का शासन एक लम्बे अरसे तक रहा। इस वंश के राजा साहित्य और कला के पोषक थे। इसके साथ ही, उनमें स्वतन्त्रता की प्रबल भावना थी। 12वीं शताब्दी से लेकर 16वीं शताब्दी तक चंदवार का इतिहास युध्दों का इतिहास है। मोहम्मद गौरी के हमले के बाद दिल्ली का शायद ही कोई सुल्तान हो जिसने चंदवार पर चढ़ाई न की हो। एक स्वतन्त्र राज्य के रूप में चंदवार पर चैहान राजाओं का अधिकार बाबर के काल तक रहा। इसके बाद चंदवार मुगलों के अधीन हो गया। बाबर की आत्मकथा ‘बाबरनामा’ में पढ़ने को मिलता है कि सन् 1526 में अगस्त मास के कुछ पूर्व बाबर ने अपने एक सैनिक अधिकारी अहमद कासिम को यह ओदश भेजा कि वह हुमायूँ से चंदवार में मिले। अपनी आत्मकथा में बाबर ने तीन बार चंदवार जाने का जिक्र किया है।
चन्दवार में यमुना-किनारे पत्थर के घाट मिट्टी में दबे दिखलाई पड़ते हैं। कहा जाता है कि यहाँ नाव बनाने का बहुत बड़ा केन्द्र था और दिल्ली से इलाहाबाद तक चन्दवार की नावें प्रसिध्द थीं।
चूडि़यों के शहर फीरोजाबाद का नाम आज दुनियाँभर में विख्यात है। इस शहर का अस्तित्व सन् 1568 में आया। बादशाह अकबर के जमाने में राजा टोडरमल वर्तमान फीरोजाबाद से होकर गुजर रहे थे। मार्ग में लुटेरों ने उन्हें लूट लिया। वापस जाकर राजा टोडरमल ने बादशाह से शिकायत की। एक सेनापति फीरोजशाह को लुटेरों के दमन के लिए तत्काल भेजा गया। फीरोजशाह ने इस स्थान पर सैनिक छावनी डाल दी और धीरे-धीरे इस स्थान का नाम पड़ा फीरोजाबाद।
1860 में फीरोजाबाद में रेलवे लाइन बिछाई गई। नतीजतन, आवागमन के साधनों में नाव का नाम लुप्त हो गया। धन्धे की जुगाड़ में चन्दवार के मेहनतकश फीरोजबाद आकर बसने लगे और फीरोजाबाद पलायन शुरू कर दिया। आज फीरोजाबाद के आटावाला मुहल्ला में अधिकांश परिवार चंदवार से आये हुए हैं।
बीसवीं सदी के दूसरे दशक में फीरोजाबाद की जनसख्ंया मात्र 27 हजार थी। आज यह गिनती आठ लाख से ऊपर है। दूसरी ओर चंदवार जो अपने वैभव और संपन्नता के कारण मुगलकाल तक दूर-दूर तक प्रसिध्द था, धीरे-धीरे खण्डहरों में तब्दील होने लगा।
धीरे-धीरे डकैतों का सैरगाह बन गया चन्दवार। चंदवार के रईस शिवलाल की दिन-दहाड़े हुई हत्या के बाद चंदवार उजड़ गया . इस घटना से चन्दवार में दहशत फैल गई। तब बहुत से अमीर एक साथ फीरोजाबाद भाग गए। आज चन्दवार में शिवलाल की किलेनुमा हवेली में पक्षियों का बसेरा है।
एक किवदन्ती यह है कि चन्दवार के खण्डहरों में घूमने वाले को चैमासे के दिनेां में कुछ न कुछ प्राचीन वस्तु ;कभी कभी स्वर्णमुद्रा या मूर्ति हाथ लग जाती थी। 80 वर्ष पूर्व टीकाराम मल्लाह को खेत जोतते वक्त अशर्फियों से भरे दो घड़े जमीन में दबे मिले। एक दूसरे मल्लाह को सोने की दो डेली पुराने किले के पास मिली। एक जमींदार ने बन्दूक की नोंक पर स्वर्ण डेलियों को धरा लिया था।
1984 में कुख्यात डकैत अनार सिंह द्वारा पाँच पुलिसकर्मियों को पेड़ से बांधकर भूनने की घटना अखबारों की सुर्खियाँ बनी थी। यह लोमहर्षक घटना चंदवार में घटी। फीरोजाबाद में बसे लोग अपनी पैतृक सम्पत्ति देखने चंदवार जाने से कतराते रहे। फीरोजाबाद में सैकड़ों परिवार ऐसे हैं जिनके पूर्वजों की जमीन और मकान चंदवार में है। इन सबकी इच्छा है कि सरकार चंदवार को ऐतिहासिक स्थल के रूप में विकसित करे। इसके लिए उन्हें किसी प्रकार का कोई मुआवजा नहीं चाहिए।
मई 1986 में जैन मुनि विद्यानन्द जी ने करीब एक हजार वर्ष पुराने एक जैन मन्दिर को चन्दवार जाकर देखा। वहाँ एक अत्यन्त प्राचीन मन्दिर में अनेक जैन प्रतिमाएँ प्रतिष्ठित हैं। मुनि विद्यानन्द जी ने मन्दिर की दुर्दशा पर खेद प्रकट करते हुए इसके जीर्णोध्दार के आदेश अपने अनुयायी सेठों को दिए। फीरोजाबाद के जैन सेठों ने क्षणभर में उस जमाने में एक लाख रुपये इकट्ठे कर लिए।
श्री रतनलाल बंसल के कथनानुसार इतिहास में इस बात के पर्याप्त प्रमाण हैं कि एक समय में जैन धर्म के लोग चंदवार को तीर्थ-स्थल के रूप में मानते थे। यहाँ के जैन मन्दिर को संवत 1052 में राजा चन्द्रसेन द्वारा निर्मित माना जाता है। इस भूले-बिसरे जैन तीर्थ में अनेक जैन-ग्रन्थों की रचना हुई है। अभी तक अनुसंधानकर्ता जिन जैन-ग्रन्थों को प्रकाश में ला चुके हैं, वे 11वीं शताब्दी से 16वीं शताब्दी तक के हैं। 1173 ई0 में ‘भविस्यन्त कहा’ ग्रन्थ की रचना कवि श्रीधर, 1223 ई0 में ‘अणुवय रयणपईव’ ग्रन्थ की रचना कवि लक्ष्मण 1397 में ‘बाहुबल चरित’ की रचना कवि धनपाल ने चन्दवार में ही की थी। रद्दू, धर्मधर, पक्ष्मनन्दी आदि कवि भी चन्दवार में 14 से 15वीं शताब्दी तक रहे और अनेक महत्वपूर्ण काव्य-ग्रन्थेां की रचना की। इन सभी ग्रन्थों में अपने समय की चन्दवार की राजनैतिक गतिविधियों पर भी प्रकाश डाला गया है। रूपमती कवयित्री चम्पा ने चंदवार में रहकर ‘विरह शतक’ की रचना की। चम्पा की तुलना जायसी से की जाती है।
यदि सरकार का पुरातत्व विभाग चन्दवार का उत्खनन कराये तो उजागर तथ्यों के इतिहास पर अतिरिक्त रोशनी तो पड़ेगी ही, साथ ही इस बात की पक्की संभावना है कि वहाँ पुरातात्विक महत्व का ऐसा खजाना भी मिलेगा जो भावी पीढ़ी के लिए राष्ट्रीय धरोहर साबित होगा।
----------(यह किस्सा एक बार चंदवार का भ्रमण करने और पुस्तक-'' चंदवार का इतिहास '' पढने के बाद लिखा है . एक वृत्त चित्र -- बुलंदी खंडहरों की का निर्माण भी किया है जिसका लिंक इस प्रकार है ---)
BULANDI KHANDHAON KI CD.mpg ASHOK BANSAL
this documentary is about Chandwar and Firozabad.Raja jaichand was killed in a battle with Mohammad Gauri here.History of ओने