बच्चों को भेजो स्कूल तो खर्चे जाओ भूल
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पढ़े तो हम भी हैं स्कूल में परंतु आजकल के बच्चों और स्कूलों की महिमा अपरम्पार है, एक तो सुबह सबेरे के स्कूल और उस पर भी छोटे छोटे मासूम बच्चों की पीठ पर लदे इतने भारी भरकम बस्ते कि जिनको देखकर ही घबराहट हो जाए। आज हम यहां पर हमारे देश की शिक्षा नीति के बारे में कोई चर्चा नहीं करेंगे क्योंकि सरकार की शिक्षा के संबंध में जारी की गई नीतियां अलग होती हैं और स्कूलों के द्वारा घोषित एवं अघोषित नीतियां अलग होती हैं।
सबसे पहले तो हम उस सामाजिक और मानसिक स्थिति के बारे में विचार करें जिसके दायरे में आ कर एक सामान्य आर्थिक स्थिति का परिवार अपने बच्चों को बड़े और तथाकथित नामी स्कूलों में दाखिल कराने की मंशा रखता है, उस समय वो सिर्फ अपनी औलाद को ऐसे बड़े स्कूलों में पढ़ाने के कारण समाज में अपनी गर्दन ऊंची कर सकने, अपने परिचितों और रिश्तेदारों की देखादेखी बिना अपनी जेब और बजट के बारे में सोचे अंधी नकल करने, इन बड़े स्कूलों के द्वारा अपने विज्ञापनों में बड़े बड़े दावे करने आदि से भ्रमित हो कर एक ऐसा कदम उठा लेता है कि फिर उसकी स्थिति न उगलते बनती है और न ही निगलते।
स्कूलों में दाखिले के नाम पर लंबे चौड़े खर्चों की शुरुआत तो दाखिले के फार्म को खरीदने से ही हो जाती है फिर एडमिशन होने के बाद ट्यूशन फीस, बिल्डिंग फीस, लाइब्रेरी फीस, कॉशन मनी, ट्रांसपोर्टेशन चार्जेस आदि के नाम पर इतनी सारी रकम देने से ही तो बात खतम नहीं हो जाती है क्योंकि अब बारी आती है बच्चों की किताबें, कापियां और अन्य स्टेशनरी का सामान खरीदने की, जिसके लिए स्कूलों ने पहले से ही फलां फलां दुकान से अनुबंध किया हुआ है और आपको मजबूरी में वहीं से लेनी होंगी और वहां पर न तो कोई डिस्काउंट मिलेगा और न कोई छूट।
चलिए, दाखिला भी हो गया और पढ़ने के लिए पुस्तकें भी आ गईं मगर अब बारी है आपके यूनिफार्म के नाम पर हलाकान होने की, क्योंकि आपको अपने बच्चों के सिर्फ स्कूल यूनिफार्म के दो जोड़े ही नहीं खरीदने हैं बल्कि स्पोर्ट्स के लिए अलग, पी टी आदि के लिए अलग और कक्षाओं में बनाए गए अलग अलग हाउसेस के हिसाब से अपने बच्चे के हाऊस के रंग के अनुसार अलग ड्रेस और इन सब के बाद सर्दियों में पहनने के लिए स्कूल के द्वारा सुनिश्चित रंग का ब्लेजर और वो भी किसी तयशुदा दुकान से लेना ही पड़ेगा। हम अपने को बहुत सौभाग्यशाली मानते हैं कि हमारे समय में यह सब चोंचले नहीं थे और हमारे माता पिता को इन सब के पीछे अपव्यय नहीं करना पड़ा था।
अभी बच्चे को स्कूल जाते हुए कुछ ही दिन हुए थे कि ड्राइंग, डांस, म्यूजिक, हस्तकला आदि की ट्रेनिंग/प्रशिक्षण के नाम पर आपकी जेब ढीली करने का समय आ जाता है और साथ ही साथ स्कूलों में मनाए जाने वाले विभिन्न "डे" जैसे रोज डे, टीचर्स डे, फ्रेंडशिप डे आदि के लिए भी खर्चा करना पड़ता है। किसी किसी स्कूल में तो घुड़सवारी सिखाने, तैराकी सिखाने के नाम पर भी आपसे प्रभार लिए जाते हैं।
सबसे अधिक हैरान करने वाली बात तो यह है कि इतने बड़े बड़े और महंगे स्कूलों में पढ़ने वाले बच्चों को स्कूलों और उनके शिक्षक/शिक्षिकाओं द्वारा ही प्रोत्साहित/विवश किया जाता है उनके घर में जाकर ट्यूशन पढ़ने के लिए, आप सोचिए तो क्या आपके समय में नर्सरी और पहली क्लास वाले बच्चों को आपने ट्यूशन पढ़ने के लिए जाते हुए देखा था।
मैं आज तक नहीं समझ पाया हूं कि हमारे जैसे देश में जहां आज भी शिक्षा का प्रतिशत और स्तर बहुत ही कम है वहां इतनी महंगी पढ़ाई के बावजूद भी हर साल लाखों करोड़ों बच्चे अपनी पढ़ाई समाप्त कर के बेरोजगारों की लम्बी लम्बी लाइनों को बढ़ाने में मददगार बनते हैं और फिर धीरे धीरे तनाव में आ कर डिप्रेशन का शिकार होने लगते हैं। आप भी सोच कर देखिए कि यदि सरकारी स्कूलों में बच्चों को पढ़ाया जाए तो कितनी बचत होगी और माता पिता को भी आर्थिक स्थिति ठीक रखने में मदद मिलेगी और आजकल विभिन्न प्रतियोगी परीक्षाओं में बेहतर परिणाम दिखा रहे बच्चों में से अधिकांश बच्चे सरकारी स्कूलों से ही आ रहे हैं।
विनय बजाज