बहुत छोटी सी उम्र में बुआ के घर चली गईं विस्थापित हो गईं थी क्योंकि मेरे हालात ही कुछ ऐसे हो गए थे और मेरा माँ के यंहा से बुआ के घर जाना हो गया था पर मेरा आना -जाना आज भी नहीं रुका है मै आज भी पहले की तरह ही आ -जा रही हूँ शायद मेरे हाथ -पाँव की बीसों उंगलियों के चक्र का प्रभाव होगा.... शायद..
बुआ के घर जाते ही वंहा का प्राकृतिक परिवेश मेरा अपना हो गया वंहा सबकुछ मेरा था मेरे लिए था. बुआ की ही नहीं मै हर किसी की लाड़ली थी सब मुझे बहुत चाहते और छोटी बाई कहते थे. बुआ के घर आने वाले सभी लोगों से मेरी टुनिंग थी बॉन्डिंग थी.
बुआ अब अकेले नहीं रह गईं थी और बुआ के घर मेरे जाने से एक नई रौनक़ आ गईं थी. मै बुआ से बहुत सारी बातें पूछती थी शाम बुआ की गोद में बैठ जाती और बुआ से हर बात का सवाल करती मेरे इतने सवाल से बुआ भी कभी परेशान हो जाती थी.
बुआ दोपहर को ज़ब अपने पलंग पर लेट कर करवट लेकर विद्या की माँ या धीरोजा बाई या किसी भी मोहल्ले की आगंतुक महिला से बात कर रही होती तो मै इधर उधर से खेल कर आती और बुआ के उपर से कुल्हाटी लगाती बुआ के कमर के उपर से कुल्हाटी लगाती फिर भाग जाती खेलने. बुआ कुछ नहीं कहती बस सबसे यंही कहती -जागेश्वरी ऐसा करती है तो मेरे हाथ -पाँव व कमर के दर्द चले जाता है.
आम के दिनों में ज़ब हवा -धुंध आती तो घर में आँगन व छपरी में आम बिखरे होते कच्चे आम को जमीन पर और पके चूसने वाले मीठे आम को बाल्टीयों में पानी में डालकर रखते. मै सुबह उठकर मुंह धोकर आम चूसती थी.
कई बार सुबह उठती तो बुआ को पीछे किचन में मोटी मिश्रा की रोटी बनाते देखती. बुआ मुझे गर्म पानी देती ताकि मै मुंह धो लूँ हम लोग कोई मंजन करते थे तब. कई बार मुंह अँधेरे बुआ सामने छपरी के किनारे बैठकर मुंह धो रही होती मै भी उठकर बुआ से सटकर बैठ जाती. पहले बसंता आती थी मुंह अँधेरे गोबर उठाकर बाड़ी के घुड़ो में फेंकने के लिए. हमारे घर के सामने थी उनकी बाड़ी. कई बार बड़ी भाभी यानि बसंता की बड़ी बहु आती तो बुआ मज़ाक करती मुझे कहती तेरी भाभी से कहना -भाभी!तुम आम खाते हो तो गुही क्यों नहीं फेंकते. मै तुमको आम खाना सिखाउंगी.
मै हूबहू ऐसे ही बोलती तो बड़ी भाभी शरमा जाती थी. मुझे याद है तब बड़ी भाभी बहुत सुन्दर दिखती थी उसका नाम वारा था. बसंता आती तो बुआ जी को राम राम कहती. बसंता कम ही बोलती थोड़े देर कभी रूकती भी थी इधर -उधर मौसम की बात करती हवा -पानी,बद्द्ल की बात करते फिर वो अपने काम पर चल देती घर के काम जानवरों को छोड़ना -बाँधना उनकी सेवा पहले करते थे गांव वाले तब चाय पीते थे.
बुआ के घर नौकर आकर काम पर लगते थे बैलो व गौवों को छोड़ना, उन्हें दूसरी जगह बाँधना और उन्हें चराने ले जाने गायकी आता था. ये था ग्रामीण कृषक जीवन ज़ब घरों में पशु धन होता था. खेती करना प्रमुख व्यवसाय था. खेती वाले अनाज उगाते और खेती में बैलों की प्रमुख भूमिका थी. सभी खेती वाले पशु -धन रखते थे. हमारा तेली मोहल्ला था जंहा कुछ तेली घाने का तेल बेचते थे जो शुद्ध होता था.
अलसी का तेल तो बहुत ही अच्छा होता था ये स्वास्थ्य के लिए उत्तम होता था. अलसी पिसा कर तेल पिराते थे. पहले घाने होते थे पर अब मशीन आ गईं थी. सभी खेती वाले अलसी उगाते और पिराते जिससे घर का तेल हो जाता था ये तेल शुद्ध होता जिसमें पचने वाला फैट होता था अपने वसा के गुणों से भरपूर होता था अलसी का तेल उसमें बहुत सत्व होता जो कैंसर होने से रोकता था क्योंकि उसमें फाइबर होता था. अलसी की खल्ली तब गौवों को दी जाती जिससे दूध गाढ़ा मलाई वाला होता था.
मै ये सब विस्तार से इसलिए लिख रही हूँ क्योंकि हम नहीं जानते कि तब का खानपान कितना सेहतमंद होता था अब जो मशीनों का रिफाइंड आयल होता है उसमें वो सोंधा पन नहीं होता और भी जो देशी बीज थे अब उन्हें खत्म कर दिया गया है ये अच्छी बात नहीं है तब जो देशी बीज या जींस थे उनमें बीमारी से लड़ने की क्षमता थी.
इतना लिखने की वजह ये है कि अपने बचपन के दिनों को कहते हुए मै उस युग को भी दर्शा रही हूँ कि तब कैसा रहन -सहन था और लोग किस तरह से कम आय में भी खुद को स्वस्थ रखते थे.
एक तो हरियाली बहुत थी जंगल की लकड़ी लाने गाड़ा लेकर गांव वाले जाते थे पर उतना जंगल नहीं काटा जाता था जैसे आज फारेस्ट वाले और नेता -पुलिस मिलकर काटते है. यंहा तो कितने बरसों से एक शख्स फर्नीचर बनाता है कहते है उसे पुलिस के संरक्षण में ईमारती लकड़ी मिलती है कोई कुछ कहने वाला नहीं है.
जो खानपान था वो बहुत शुद्ध था जो अनाज उगाते थे वो देशी होते उनकी पोषण क्षमता बहुत ज्यादा होती थी धीरे -धीरे पुराने धान और दालों को खत्म कर दिया उसकी जगह जो होता वो नया और कम पोषण का था. इस तरह लूचाई चावल और लखोड़ी दाल को भी खत्म कर दिया उगाना बंद कर दिए तो खत्म ही हो गए देशी चावल और दाल.
गौओं का पालना और उनके कोठे भी खत्म हो गए गौओं के चरागाह पर कब्जा कर लिया गया सब कुछ छीन लिया प्रकृति ने जो इन पशुओं के लिए दिया था उन सबपर इंसान ने कब्जा जमा लिया.
मुझे वंही दिन अच्छे लगते है सुविधा नहीं थी पर इतनी गर्मी नहीं पड़ती थी बिना पंखा के दिन कट जाते थे. बाद में पंखा लक्सरी बना और एकाध घंटे के लिए चलाते थे. गर्मी इतनी नहीं पड़ती थी.
आप सोच रहें होंगे कि ये कौनसे किरदार है जिनपर मै बात कर रही हूँ तो ये हैं प्रकृति के किरदार जिनसे हम तादातम्य करके जीते थे.
मुझे तब हट्टा के हर गली और राह के पेड़, वनस्पति और घर सब कुछ याद है जंहा मै खेलने जाती थी.
चलिए जीवित किरदारों की बात करते है क्योंकि प्रकृति तो नित नूतन है और वो कभी नष्ट नहीं होती. बुआ के घर के आसपास बाड़ी थी बहुत बड़ी बाड़ी जंहा कई तरह के पेड़ों का जंगल या झुरमुट कहना उचित होगा ज़ब मैंने उदयन वास्वदत्ता पर स्क्रिप्ट लिखी थी तो कल्पना में मेरे वंही का झुरमुट था. बड़े ऊँचे पेड़, मंझोले पौधे और लता -कुंज ये सबकुछ उस जगह को तपोस्थली बनाता था जंहा कई तरह के किट -पतंगे और भृमर -तितली गुंजार कर रहें होते थे.
वंहा मै कई बार अकेले ही जाती पीछे के बरामदे के द्वार को खोल कर जाती और वंहा जंहा गोमची होती थी उसे अपनी फ्राक में समेट कर लाती. फिर गोमची को सामने की अलमारी में रखती जंहा पलंग बिछाते थे. उस अलमारी में मेरे कई खिलौने होते थे जैसे कि एक तिकोना सा ब्योस्कोप था जिसमें रोज सुबह चाय के बाद मै देखा करती थी कांच के टुकड़ों की चमकती आकृति को और बालसुलभ क्रीड़ा से आनंदित होती थी.
खेल का ये क्रम प्रतिदिन का होता था और वंही एक गोरसी होती जिसमें रात में कंडे जलाकर कमरे को गर्म कर के हाथ -पाँव सेंकते वंहा गोबर के कंडे की राख की ढिंडी को उठाकर खाती थी.
हिर्री में बड़ी बुआ के घर जो राख मुंह भरकर ठूंस कर खाती अब वो बड़ी शिष्टता से सीमा में रहकर थोड़ी सी खाती थी.
धीरोजा आती थी रोज..
धीरोजा बाई हमारी मेहतरानी थी जो प्रतिदिन आती थी.
उसका आना मेरे लिए बड़ा ही आनंदमय होता. धीरोजा हमारे घर आने वाली मेहतरानी थी पर मेरे लिए वो बहुत बड़ी शुभचिंतक और खास थी जो मुझे बेहद चाहती थी. वो घर के पाखाने को बहुत मुंह अँधेरे ही साफ कर जाती थी ज़ब लोग नहीं दिखाई देते थे. फिर वो हाथ -मुंह धोकर या नहा कर हमारे आँगन में पिछवाड़े आती और आँगन की ऊँची पार पर बैठ जाती थी. पीछे के आंगन में तुलसी चौरा भी था.
तो धीरोजा आकर बैठी रहती थी ज़ब मै भीतर से उठकर बाहर आँगन में आती तो वो राम राम जी नमस्ते छोटी बाई!की झड़ी लगा देती.
उसका ये अभिवादन मुझ छोटी सी बालिका को ऐसा अहसास कराता जैसे कि मै क्या हूँ न क्या नहीं... यंही स्नेह हमारे यंहा सभी काम वालों का बना होता था. जैसे बड़ी दीदी को हिर्री में गांव का कोतवाल देखता तो नमस्ते गुड्डा बाबा!कहकर चिढ़ाता था. दीदी अपनी सहेलियों के साथ होती तो बहुत शर्मिंदा होती पर वो कोतवाल राम राम गुड्डा बाबा की रट लगा देता था.
इसी तरह हमारी छोटी बहन मंजू को दशाराम नामक नौकर नमस्ते छोटी बाई कहकर बहुत चिढ़ाता था और वो इतना गुस्सा होती कि उसे बहुत चमकाती थी. ये हमारे कामवालों का स्नेह होता था जो बरसों हमारे यंहा काम करते और हमारे घर का ही हिस्सा बन जाते थे. मुझे अफ़सोस है कि हम अपने इतने स्नेहिल कामवालों को कोई उपहार तक नहीं दे सके ज़ब बड़े होकर बाबूजी के घर जाते तो काश!उन्हें कुछ उपहार देते तो मन को कितना सुकून मिलता.
मै तो आज भी अपने क्षेत्र हट्टा और हिर्री के लिए कितना कुछ करना चाहती हूँ पर मेरी कोई बिसात ही नहीं होने से बहुत उदास हो जाती हूँ पहले सोची थी कि मै मुंबई जाउंगी तो बहुत बड़ी स्क्रिप्ट राइटर और लिरिसिस्ट बनकर सफलता प्राप्त करूंगी तो सबको कुछ न कुछ बाटूंगी. पर ये नहीं हो सका किन्तु मेरे बेटे ने जरूर से मुंबई से आने के पहले 27000/रू peta इंडिया को दान किया डोनेशन दिया तो मैंने उसे नहीं रोकी.
तो धीरोजा बाई यंही कहती थी मै उस दीवानी मेहतरानी को तो वो कहती -आप हमको बाई मत कहो...
मै कहती तो क्या कहुँ?
तो वो कहती -सिर्फ धीरोजा कहो जी!
मै कहती -नहीं मै तो धीरोजा बाई कहूंगी...
फिर आगे मै कहती -तुम मेरे को तुम नहीं कहो...
वो कहती -मै तो तुम ही कहूंगी..
तो मै कहती मै भी धीरोजा बाई ही कहूंगी.
इसतरह की बहस हमारी रोज ही होती कि हमको बाई मत कहो, हमको तुम मत कहो.
मै उसे कहती मै तो तुम ही कहूंगी.
यार!कितनी छोटी थी मै पर पटर पटर बोलती तो धीरोजा को अच्छा लगता वो मुझे बहुत चाहती थी और उसके यंहा के बगीचे से मेरे लिए खूब सारे फल लाकर देती थी जिसे मै चाव से खाती. मुझे कोई फर्क नहीं पड़ता था कि वो मेहतरानी है और उसका छुआ तब लोग नहीं खाते थे. मेरे लिए वो सामान्य इंसान थी मेरी अपनी स्वजन थी और यंही बात धीरोजा के दिल को भाती थी कि मै उसके मेहतरानी होने से उससे छुआछूत नहीं करती थी.
धीरोजा मेहतरानी जरूर थी पर उसके पिता की इकलौती संतान थी. उसके पिता मोकासी जमींदार के जमादार थे तो उन्हें एक बंगला मिला था जिसमें चारों ओर घने पेड़ लगे थे फलदार वृक्ष लगे थे. कई बार मै धीरोजा के घर जाती जंहा पर आँगन में चारों ओर पार बनी थी उसपर अकेले ही नदी पहाड़ खेलती थी.
ये मेरा जलवा था हट्टा में कि मै दारू वाली बाई की लाड़ली भतीजी थी सभी मुझे चाहते और मानते थे बुआ को मुझे देखकर बहुत ख़ुशी होती थी. बुआ को ही सब उनके घर पहले शराब ठेका होने से कहते थे दारू वाली बाई... यंही नाम अंत तक चलता रहा ज़ब तक वो जीवित रही.
तो बात बात चल रही थी धीरोजा की जिसके साथ मै हर जगह घूमने जाती थी.मुझे मेहतरानी है इससे कोई शर्म नहीं महसूस होती थी क्योंकि वो तो मेरी अपनी सगी जैसी ही थी और कोई दूर भाव मेरे मन में नहीं था. शायद मुझे पहली बार स्कूल भी धीरोजा ने ही ले गईं थी.
मेरे लिए तो धीरोजा ही थी जो मुझे सब जगह घुमाने ले जाती थी बुआ तो खेत जाती थी और गांव में कभी -कभार ही कंही जाती थी. धीरोजा मेरी बाहरी गार्जियन थी जिसके साथ बड़ी बेफिक्री से मै जाती मस्त होकर. धीरोजा के साथ बाजार और गुजरी भी जाती थी. बाजार शुक्रवार को लगता और गुजरी रोज लगती थी.
धीरोजा जाने कब से मुझे सब जगह घुमाने ले जाती थी ये मुझे नहीं मालूम पर होश संभाली तब से मैंने पाई कि धीरोजा ही मुझे रामलीला ले जाती. तब तक सब सामने बैठ चुके होते पर धीरोजा मेरा हाथ पकड़कर ले जाती और सबको हटो कहकर सामने मुझे ले जाकर बिठा देती थी. सब बच्चे उसे देख कर हट जाते और मेरे लिए सामने जगह बन जाती थी.
मुझे अपने बचपन के इन साथियों से बड़ा लगाव है उनकी यादें मेरे लिए स्वर्ग तुल्य है ऐसा लगता है बुआ के यंहा मै ऐसे रही जैसे पुण्यात्मा स्वर्ग में रहते है.
राम लीला ही क्यों जादू के तमाशे देखने भी धीरोजा मुझे ले जाती थी और ज़ब ममै बहुत छोटी थी तब भी खेल तमाशा देखने वो ले जाती और मै ज़ब देखते देखते सो जाती तो वो मुझे गोदी में कंधे पर सुला कर लाती और बुआ जी को दे देती थी. मै बुआ और धीरोजा की लाड़ली नियामत थी उनका खजाना थी जिसे वो दोनों बड़े संभाल कर रखती थी. अब मेरा खेल -तमाशा देखना जरूरी नहीं था पर धीरोजा को लगता था गांव में नाच -गाना, खेल -तमाशा कुछ भी आये तो छोटी बाई को सबसे सामने बिठालकर देखने दो चाहे फिर मुझे कुछ समझे या नहीं. पर गांव में सब जानते थे कि दारू वाली बाई की भतीजी को धीरोजा सबको हटककर सामने ऐसे बिठा देगी जैसे वो सीट मेरी ही हो या मेरे लिए रिज़र्व हो. तब हम सब नीचे ही तातपटरी पर बैठकर देखते थे. कोई अपना फट्टा भी ले जाते. बस सब खा -पीकर घर से निकलते और फिर रामलीला या जादू का आनंद लेते थे और ज़ब जोकर या हँसाने वाले पात्र आते तो हम सब खूब जोर से हँसते थे. रामलीला तो हर साल आती थी जाड़ो के मौसम में और ठंडी के साथ रामलीला देखते वंही से जाने थे राम जी की कथा को और फिर घर में आकर मै रामायण भी पढ़ती और बुआ जी को सुनाती थी.
हालांकि रोज शाम या रात बाजु के घर से शुक्रनंदन जी आते और रोज रामायण बांचते थे मै उनके ठीक सामने बैठकर रामायण सुनती थी. शुकंनंदन जी बसंता के पति थे और उन्हें रोज रामायण पढ़ने का चाव था. सबकुछ अच्छा चल रहा था पर एक दिन मै ज़ब स्कूल से लौटी तो पता चला शुकंनंदन जी नहीं रहें मै घर में ही रही थी ज़ब शुकंनंदन जी की अर्थी गईं थी. मुझे याद है मृत व्यक्ति को तब गुलाबी कफ़न ओढ़ाते थे ज़ब अर्थी निकलती तो सामने आँगन या सड़क पर एक लोटा पानी लाकर फेंकते थे. सब उदास रहें थे बहुत दिन तक बसंता चुप आकर बैठती थी कुछ नहीं बोलती थी. रात के वक़्त धुंधल्के में बसंता चुप आकर बैठ जाती थी निशब्द तब बुआ भी चुप रहती जैसे दोनों ख़ामोशी से अपना दुख बांटते थे. बुआ ने वैधव्य झेली थी और बहुत कुछ झेलकर अपने मन को समझा ली थी वरना क्या दुख जीने डदेता है बुआ ने तो घर में मौत का तांडव देखी थी फिर मै उनकी गोदी में पनाह लेने आई और बुआ ने मन को रमा ली नए हालात थे जो बेहतर थे.
सभी औरतें जमा होती तो बसंता के दुख पर बात करती पर बसंता हमेशा की तरह चुप थी वो नहीं बोलती थी फिर वो अपने काम में लग गईं धीरे -धीरे मौत का गम कम हुआ यादें तो शाम दिया जलाते ही आ जाती है और मन शोकाकुल हो जाता है अपनी स्मृति में हमें झकझोर देती है.
फिर बसंता रोज की तरह सुबह उठ कर मुंह अँधेरे ही गोबर फेंकने लगी थी ये उसका काम था जिसे उसने नहीं छोडी घर में सभी थे बेटे -बहु और नाती -नतरे पर वो अपने में निपट अकेले रहती थी नहीं बोलती थी कुछ भी. उसके बाल घूँघराले थे तो बिखरे रहते थे बहुत कम कंघी करती थी ऐसा ही जीवन था शांत झील जैसा.
मुझे भी बहुत दिनों तक शुकंनंदन जी याद आती रही खासकर शाम में वो जैसे आकर रामायण पढ़ते थे तो हम सभी बुआ आदि उनकी चर्चा करते. यंही रीत थी कोई चले जाता तो सब उसकी याद और बातें करते थे पर कोई शोर -शराबा नहीं होता था कोई जोर से नहीं बोलते थे. बुआ साँझ में दिया बत्ती लगा कर कुछ देर शांत बैठती फिर हम लोग आरती करके खाना खाते उसके बाद सामने आकर बैठते तो सभी आने जाने वालों का बैठना होता. कई बार बुआ जी खाना खा रही होती और कोई आ जाते तो वो सामने बैठकर राह देखते. दुख -सुख की बातें होती.
कई बार पड़ोस के झोलू भाऊ आकर बैठ जाते तो खेती -बाड़ी की बातें होती. कैसा मौसम है कैसी बारिश है कंहा कितना पानी बरसा इस बरस कैसे फ़सल -पानी होंगी. खेती पर आधारित जीवन था उनका वो खेती की और फ़सल की बातें करते वंही उनकी जीविका थी. बैल कैसे है गाय को बछड़ा हुआ दूध दे रही या नहीं और भी सभी खेती व पशु पालन की बातें होती. पर मुझे बुआ ने इन कामों में नहीं डाला नहीं कराये कोई खेती के काम. वो शायद सोचते रही होंगी कि मै बड़ी होकर कोई अच्छा सा जॉब करूंगी. मै मन लगा कर पढ़ती थी पड़ोस के जगन भाऊ के साथ जाकर किताबें -कॉपी और स्कूल ड्रेस लाती थी स्कूल जाती थी और पढ़ने में मेरा मन लगता था उसी में फिर रम जाती थी. एक बार बुआ ने मुझे कोई किताब पढ़कर बताने बोली और मै नहीं पढ़ पाई अटक अटक कर पढ़ रही थी तो बुआ ने हाथ में छड़ी लेकर मुझे डराई तब मैंने रो रोकर बुआ से कही थी बुआ!मै पढूंगी. और मैंने अपना वादा निभायामै हमेशा मन लगा कर पढ़ती थी और बुआ को इससे संतुष्टि थी कि मेरा मन पढ़ाई में लगता है और मै फालतू बातों में ध्यान नहीं देती.
मन तब शांत था स्थिर चित्त से रहते थे कोई चिंता या दबाव नहीं था धीरोजा बाई को भी ख़ुशी होती थी कि उसकी छोटी बाई पढ़ती है. विद्या की माँ हमारे घर आकर बीड़ी बनाती थी वो अपने बेटे के पोलियो से चिंताग्रस्त थी. फिर वो उधर ममता की मम्मी के पास जाने लगी थी इधर कभी -कभार ही आती थी वरना पहले तो रोज ही आती थी.नहीं आती तो बुआ खबर भेजती थी कि क्यों नहीं आई या वो ही खबर भेजती थी कि आज इसलिए नहीं आ पा रही है. बुआ उसके लिए कुछ बनाती तो रखती थी कुछ पकवान बनाती तो धीरोजा और विद्या के लिए जरूर रखती थी. ज़ब मै गांव यानि हिर्री जाती थी और हिर्री से लौटकर आती तो पता चलते ही विद्या वती दौड़कर आती -छोटी बाई!कब आये जी?
जिस स्नेह से पूछती उसमें उसकी माँ की झलक मिलती थी वंही बोली की मिठास और आत्मीय झलक होती थी जो हमारे गांव और परिवेश की पहचान है. मै आजतक उस बोली की मिठास और आत्मीयता को ढूंढ रही हूँ पर वो कंही नहीं मिलती मुझे.
आज सोचती हूँ बुआ ने कितने स्नेह और साज -संभार से वो संसार बनाई थी अपने आसपास एक माहौल रचा था उन्होंने जिसमें सभी माला में मनके की तरह जुड़े थे. सभी को स्नेह के धागे से पिरोई थी बुआ ने. सभी से बात करना, हाल -चाल पूछना और सभी की परवाह करना ये उन्हें अकेले हो जाने की विभीषिका ने सिखाई थी. महिन रेशम जैसे अपने पन के वो अहसास फिर मुझे कंही नहीं मिले. बुआ का जीवन निष्कटंक नहीं था पर मेरे जाने के बाद कुछ साल उन सभी ने जैसे सुख के चुरा ली थी उन महिलाओं ने जो ज्यादा पढ़ी नहीं थी पर समझदारी में किसी पढ़ी -लिखी से कम नहीं. बोलती भी अच्छा थी ऐसा नहीं कि गंवार जैसा कुछ भी बोल दी हो.मैंने हमेशा खुद को एक पढ़े -लिखे माहौल में ही पाई और गंवारूपन नहीं था. मान -मर्यादा की शिक्षा दी थी बुआ ने इसलिए कंही भी व्यर्थ बोलने की तब आदत नहीं थी शायद अपनों के स्नेह और आदर -सम्मान से ये स्वभाव बना हो.
मेरे स्कूल के दिन और सहेली..
मेरे प्राइमरी स्कूल के दिन अच्छे थे. सिर्फ एक बार पहाड़ा नहीं बोलने पर मुझे गोपिका मैडम ने खड़े रखी और हाथ में छड़ी पड़ी थी ऐसी कि मेरा स्कर्ट गीली हो गईं थी फिर मैने लापरवाही नहीं बरती और अपना..होमवर्क करके जाती थी माँ सरस्वती की कृपा रही थी.
वंही प्रायमरी स्कूल से ही ममता मेरी पक्की सहेली बन गईं कब कैसे हम पक्की सहेली बन गए नहीं मालूम. वो लोग बनिया थे और उनकी बहुत बड़ी किराना दुकान थी जो बहुत चलती थी बहुत बड़े लोग थे वो और उनका घर बहुत बड़ा था मेरी बुआ के घर से भी बड़ा. एक गली से दूसरी गली तक लम्बा घर था बहुत सारे कमरे और बरामदे थे मुख्य घर के अलावा जंहा हम लोग खेलते. हमें कई बार दूसरी सहेलियाँ भी ज्वाइन करती थी. ममता मुझे बहुत चाहती थी उसकी मम्मी बहुत खूबसूरत थी और वो अलाहाबाद की थी उनका पीछे वाला पक्का कमरा था जंहा पूजा गृह था और सामान रहता था ममता की एक गोदरेज की अलमारी थी जिसमें उसकी बहुत प्यारी फ्राक और कपड़े रहते थे. उसके पास बहुत अच्छे स्वेटर थे. ममता के दो भाई भी थे ममता किसी राजकुमारी की तरह रहती थी. हम लोगों की एक स्थिर दुनिया थी जंहा हम खेलते और बेफिक्री से रहते थे. हमारे साझा खिलौने थे. मैंने दुर्गा मेले से खरीदे थे बहुत सारे खिलौने जो मुझे बहुत प्रिय थे. हम दोनों ही साथ में नवरात्रि मेले जाकर खिलौने लाते थे. दौड़ते जाते और दौड़ते आते थे. हमारे खिलौनों में एक धनुष -बाण लिए रामजी थे जो मुझे अभी भी याद है. मै और ममता अपने खिलौने अलग नहीं रखते वरना साथ में रखते थे. ममता के यंहा सामान का एक डाला था उसी में हम दोनों के प्यारे खिलौने रखें होते. कुछ दिन वो डाला इधर मेरे घर तो कुछ दिन ममता के घर रहता था. हमने उसे एक मजबूत रस्सी से बांध रखा था जैसे वो हमारे प्यार का का बंधन हो. और जबतक मै हट्टा से हिर्री नहीं लौटी तब तक ममता और मेरा वो साथ खिलौने का डाला साथ ही रहा.
ममता और मै साथ ही रहते वो मेरे घर आती और मै उसके घर जाती हम खूब खेलते थे. स्कूल में भी साथ ही रहते थे.
एक बार हमारे स्कूल में दीवाल में नीचे डामर की पुताई की जा रही थी मै और ममता दोनों साथ खड़े थे और साथ खड़े -खड़े दीवाल से टिक गए तो ममता की बहुत सुन्दर अलाहाबाद की फ्राक फिर डामर से काली हो गईं. ये फ्राक ममता की पसंदीदा फेवरेट फ्रॉक थी अपनी फ्रॉक में डामर लगा देख ममता के गुस्से का ठिकाना नहीं रहा और उसने सारा दोष मुझपर डाल दी अब तो मेरी शामत आ गईं और मै अंडरग्राउंड हो गईं. मै ममता के पास से भाग गईं तब सीता -गीता बहनों ने मुझे अपने समूह में छिपा ली और मै ममता से डरी -सहमी छिपते -छिपाते जाती आती थी क्योंकि मेरे स्कूल के रास्ते में ममता का घर पड़ता था. ज़ब मै उसके घर के सामने से सीता -गीता बहनों के समूह या दल के बीच छिपकर जा रही होती तो मै देखती थी नज़र बचाकर ममता अपने घर के सामने के दालान में खड़े होकर कहती -मै जागेश्वरी को मारूंगी.
हालांकि उसके कहने की बात ही थी उसने मुझे कभी नहीं मारी और इस तरह दो माह निकल गए अब ज़ब रक्षा -बंधन के साथ भुजलियां का पर्व आया तो मै बुआ जी के साथ घर में सामने बैठी थी. सभी हमें भुजलिया दे रहें थे ये एक स्नेह व भाईचारे का पर्व होता था तब ममता को लेकर उसके छोटे भाई जगदीश भैया आये जो उससे बड़े पर भाइयों में छोटे थे. तब ममता ने मुझे भुजली दी और हम दोनों फिर से बात करने लगे ये देखकर सभी बहुत हँसे. वंही लड़ाई थी मेरी उस बरस ममता से. उसके बाद मै शाम को घिरती साँझ में पुजारी जी आते तब ममता के साथ जाती हमारे मंदिर जो फूफा ने बनवाये थे और बुआ ने एक पुजारी रखें थी जो रोज दोनों वक़्त आकर आरती ले जाते थे. मै शाम को उनके साथ मंदिर जाती तब ममता भी आ जाती थी क्योंकि वो मंदिर ममता के घर के सामने ही था. हम दोनों साथ में आरती करते और थोड़ी बातें कर अगले दिन स्कूल में मिलने के वादे के साथ लौट जाते थे. तब नहीं मालूम था मुझे या ममता या किसी को भी कि वो मेरा हट्टा में आखिरी साल होगा और हम हमेशा के लिए बिछड़ जायेंगे. कैसा प्रारब्ध था. ममता और मै साथ मे होली खेलते थे. उसी बरस गर्मी में मै बाबूजी के गांव गईं थी और ज़ब वंहा से लौटी तो बुआ जी को देख कर रो पड़ी थी. ममता मेरे आने की खबर से बहुत ख़ुश होकर आती और हम ढेर सारी बातें करते थे.
फिर ममता मुझे अपनी फ्राक देती थी इसलिए कि वो जानती थी कि मुझे उसकी फ्रॉक बहुत पसंद है तो हम दोनों अपनी फ्रॉक अदला -बदली करते और हम फिर हमारे मोहल्ले से आगे कलारी मोहल्ले में हो रही शादी को देखते. कैसे वो सभी ललनायें चौक पुरती थी कैसे नेग किये जाते थे कैसे दूल्हा -दुल्हन को नहलाते थे कैसे भेटोनी के गाने होते कैसी बिदाई होती थी ये सब देखकर फिर शाम को लौट जाते थे. मै ममता के घर जाती तो घर के उनके किचन के बाहर ही खड़ी रहती उसकी मम्मी बहुत कहती -आओ!जागेश्वरी भीतर आओ!
पर मै कभी भीतर नहीं जाती और बाहर ही खड़े रहकर इंतजार करती फिर ममता चाय पीकर आती और हम दोनों ही कुंए के तरफ खेलते. खूब खेलते शाम होते तक. ममता कई बार एक लकड़ी लेकर बूढ़ी अम्मा का नाटक करती तो मै बहुत हंसती थी. कितने अच्छे दिन निकल रहें थे.
उन्हीं दिनों बरसात शुरू हुईं तो सुबह ममता मेरे पास आती फिर हम दोनों दौड़ कर पीछे वाले स्कूल जाते और वंहा से क्यारी वाले पौधे लाते थे तब मैंने बहुत सारे पौधे लाकर बुआ के आँगन और तुलसी के चौबारे में लगाई थी और वो पौधे बारिश में पनप रहें थे लेकिन मेरी जड़े उस घर से अब उखड़ रही थी. सब कुछ कितना सामान्य चल रहा था हम सब साथ में कितने ख़ुश थे दिन कितने प्यारे थे. उसी साल मेरी दीदी की शादी हुईं थी. उसी वर्ष गर्मी में नवाड़ीन गईं थी अपनी बड़ी बहन के घर और नहीं लौटी थी. बहुत दिन शायद दो माह रह गईं थी तो सब उसे याद कर बुआ से पूछते थे -छोटी नहीं आई क्या जी?
बुआ गहरी सांस लेकर इतना ही कहती -वो बीमार है.
पर कितनी बीमार है या सीरियस है ये बुआ को भी अंदाज नहीं था एकबार फिर दुर्योग ने अपने दुसचक्र फैला दिया था. इस नियति को कोई नहीं जान सका था. बुआ की किस्मत का अभिशाप धीरे से सक्रिय हो गया था. और नावाड़ीन नहीं आई थी. अपनी प्यारी बड़ी बहन के पास ही उसने प्राण त्याग दिए थे.बुआ को पछतावा हुआ रहा होगा कि काश!पहले जाकर उसे अच्छे डॉ को दिखा देती पर इसके पहले ही वो चली गईं.
नवाड़ीन से ज्यादा नहीं पटती थी वो लड़ती थी पर बुआ को उसका बड़ा सहारा था कभी भी खेत निकल जाती कंही भी जाती तो घर की चिंता नहीं होती थी अब निपट अकेले हो गईं थी. बुआ के मन में कितना बवंडर चला होगा.
ज़ब नवाड़ीन की मौत की खबर लेकर उसके भाई आये तो बुआ मुझे लेकर तुरंत ही गईं थी ज़ब बुआ गईं तो उसे अर्थी पर लेटाने की तैयारी हो रही थी. नवाड़ीन की बहन रोने लगी थी बुआ की आँखों के आंसू यतो सूख गए थे. बुआ से पूछा गया था कि उसे अग्नि दे या दफन करे? बुआ ने अग्नि देने कही थी. ज़ब वो अर्थी पर लेटी थी तब मैंने उसे देखी थी उसके मुंह के दाँत बाहर दिख रहें थे और जब उसने मुझे चुड़ैल बनकर डराई थी तब ऐसे ही बड़े बड़े दाँत भींच रही थी तो क्या वो अर्थी पर भी मुझे डरा रही थी. उसका मुझपर गुस्सा था कि उसे उस घर में कुछ नहीं मिला था पर बुआ मुझे बहुत चाहती और मेरी हर ख्वाहिश पूरी करती थी वंही नवाड़ीन अपनी अधूरी ख्वाहिश लेकर इस दुनिया से असमय भरी जवानी में चली गईं. सब कुछ था बुआ के पास पर नवाड़ीन के लिए कुछ भी नहीं था. वो फ़टी कथड़ी पर सोती और फ़टी साड़ी सिलकर पहनती थी. उसके पास गहने तक नहीं थे जबकि बुआ चार तोले की पटली पहनती थी. कैसे खाक हुए थे नवाड़ीन के अरमान और उसने फिर मरकर भरपूर बदला लिया था. सबसे पहले तो वो मुझे डराने लगी थी. नवाड़ीन के मरने के बाद उस घर में एक मनहूसियत समा गईं थी दरअसल वो कंही भी नहीं गईं थी और उसकी आत्मा वंही बुआ के घर में भटक कर बदला ले रही थी. नवाड़ीन को बहुत गुस्सा था वो बीमार थी दो माह बहन के घर पीलिया से लड़ते रही पर बुआ उसे देखने या उसका हालचाल लेने नहीं गईं थी तब असमय मौत को गले लगाने वाली उस बेबस अबला ने ली थी बुआ से बदला. वो कंही नहीं गईं वंही प्रेत बनकर मंडराने और मुझे डराने लगी थी. तब बुआ ने मेरे डर को देखकर बाजु के ब्लॉक में किराये से एक नवदम्पति को रख ली थी पर नवाड़ीन का उपद्रव जो चालू हुआ तो बुआ की मौत तक नहीं थमा.
एक दिन तो दिन -दहाड़े सुबह नौ -दस बजे वो मुझे पाटन पर दिखी ज़ब मै ममता के साथ उसकी सिरहानी को चिथ कर उससे गुड़िया बनाने पूराने फ़टे कपड़े निकाल रही थी.वो पूरे चुड़ैल रूप में सिर से पाँव तक लम्बे बाल वाली मुझे दिखी पर ममता को नहीं दिखी तो मै रोने लगी और ममता को नहीं दिख रही थी. ममता को हैरत हुईं मै बुआ को बुलाने लगी और बुआ आई तो मै उससे चिपक कर सीढ़ी से नीचे उतरी तो वो फिर दिखी तिजोरी के तरफ. वो फिर मुझे डराने लगी थी. मै अब पहले जैसे नहीं रही डरती थी. बीच के कमरे में डर लगता था मुझे जंहा वो सोती थी इसलिए बुआ जी ने मुझे