मै कई बार मुंबई गईं और हर बार मुझसे नए सिरे से ठगी की गईं चीटिंग हुईं इसी हादसों पर लिखी है ये किताब..
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मुंबई की फिल्मों में वंहा का माहौल बहुत ही अच्छा दिखाते है ऐसा लगता है जैसे कि वंहा क्या है? अभी आज मैंने एक फ़िल्म देखी.. ज़ब तुम मिलो... ऐसा कुछ नाम था फ़िल्म का जिसके सेट को देखकर किसी फॉरेन की कॉफ़ी श
मुंबई को फिल्मों में ऐसे दिखाते है जैसे वंहा कितना अच्छा होता होगा. आज जो मूवी देखी उसमें जो जगह दिखाई वो जाने किस हिस्से में है नहीं पता? मुझे तो मुंबई में रहने का बहुत ही खराब अनुभव मिला है और जो रो
मै जिस आशा और उत्साह से हिम्मत करके मुंबई तक जाती थी वो आकर्षण अब खत्म हो गया है मुझसे कई लोगों ने ठगी की है चीटिंग करके पैसे और स्क्रिप्ट रख लिए है. किसी तरह अपने को बचा कर मै लौटी हूँ और अब ज़ब तक मु
पहले कलकत्ता में फ़िल्में बनती थी तो और वंही फ़िल्म इंडस्ट्री थी किन्तु बाद में मुंबई में हिंदी फ़िल्में बनने लगी. कपूर खानदान से लेकर धर्मेंद्र का परिवार तक यंहा बसा है और फिल्मों के आकर्षण को बढ़ाने में
जो शख्स इस जाल में उलझ जाता है उसका बचकर लौटना नामुमकिन होता है. मुंबई में फ़िल्म की आढ़ में इतने स्त्रोत है जो खुलेआम ठगी कर रहें है पर उनपर किसी का कोई कण्ट्रोल नहीं है सरकार या पुलिस मासूम लोगों को ब
फ़िल्म के आकर्षण वाले पर ग्लैमर का ऐसा जाल फेंकते है कि वो जीते जी तो नहीं ही लौटेगा. पूरी तरह से बर्बाद करने वाली एक टीम या समूह होता है जो फ़िल्मी दुनिया में काम पाने गए लोगों के पीछे लगता है और आपको
आपको कुछ भी सीखना है और सीखने पर काम मिलेगा इसकी ग्यारंटी देते है कई इंस्टिट्यूट लेकिन ये पूरी तरह से दलालों से भरे होते है और आपको लुटते रहते है जबतक आप खत्म न हो जाये या उनकी तरह से आप लुटेरे गैंग क
यदि आपका कोई अपना हो विश्वास -पात्र हो तभी आप मुंबई जाये. क्योंकि वंहा एक गॉड -फादर का होना जरूरी है वर्ना मुंबई किसी की नहीं होती. आपकी जेब पर चील -कौवो की तरह टूट पड़ने वाले लोग वंहा सब तरफ होते है.