(हास्य व्यंग्य)
गली के नुक्कड़ पर गुम्मन मियां का अहाता है, और ‘चिमी’ की मडैया भी उसी में I दरअसल, असली नाम है चिमिरखी लाल, मगर अंग्रेज़ी स्टाइल के चक्कर में नाम बुचड़ कर चिमी रख लिया I डील-डौल भी नाम के ही मुताबिक़ है I उम्र बत्तीस, सिगरेट जैसी टांगें, पोपला चेहरा, हिप्पी बाल और इन सबसे ऊपर उनकी बुलबुल का अड्डा टाइप मूछें I आदमी अपने बीवी-बच्चों से भी उतना प्यार नहीं करता होगा जितना इन महाशय को अपनी घड़ी-घड़ी टेई मूछों से है I
एक बार हाला-डोला आया तो लोग अपनी लाई-पूंजी लेकर भागे; बंदा फ़क़त अपनी मूछों को मुट्ठियों में भींचे मैदान की तरफ भागा I दवाई की फैक्ट्री में शीशियाँ भरते हैं मगर बातों में कहो अच्छे-खासे एम.आर. को भी पछाड़ दें I तीज-त्योहारों के बारे में जानते-वानते कुछ नहीं हैं, मगर मनाने की कोशिश विधि-विधान से करते हैं I अंटी में चाहे डेढ़ सौ रुपल्ली न निकलें लेकिन चंदा काढ़ के भंडारा कराने का दम भरते हैं I अचानक देश के राष्ट्रपति का नाम पूछ दे कोई तो सही-सही बताने में तीन झटके लगाएंगे लेकिन बात चाहे इंडिया की फॉरेन पालिसी की ही क्यों न चल रही हो, टप्प से बीच में ज़रूर कूदेंगे I
बात पिछले बरस की है I धनतेरस के दिन चिमिरखी लाल फैक्ट्री से लौटे ही थे कि छुटभैयों ने फुलझड़ी छोड़ दी, “चिमी भाई, अबकी बार पटाखे कितने के छुड़ाओगे ?”
बंदा कैसे कहे कि ‘एक वो भी दीवाली थी, एक ये भी दीवाली है’...तनख्वाह पिछले दो महीने से नहीं मिली, खाने तक के लाले पड़े हैं, लेकिन इत्ती सी बात पर चिमिरखी लाल की मूछें क्यों नीची हो जाएं I बोले, “यार, तुम लोग अख़बार वगैरह तो पढ़ते नहीं हो और न ही टीवी पर न्यूज़ देखते हो I अबकी बार कितने ही समाजसेवी संगठन पटाख़े-रहित दीवाली मना रहे हैं I पैसा इकठ्ठा किया जाएगा और ग़रीब बच्चों को मिठाई बांटी जाएगी I लेकिन तुम लोगों को क्या, गली-छाप जो ठहरे I छुड़ाओ जाके, जितने के छुड़ाने हों I
इतना सुनते ही, छुटभैये चुप I मानो किसी ने धूप में कड़कड़ाए पटाखों पर पानी फेर दिया हो I खैर, दीवाली का दिन आया I बंदा सबेरे से ही खाली जेब इधर-उधर मंडरा रहा था I शाम हुई तो गली के छोटे-छोटे बच्चों ने चिटपुटिया, लहसुन पुटपुटाने शुरू कर दिए I जैसे-जैसे रात गढ़ियाई, बड़े-बड़े भी शामिल हो गए I बन्दा दूर खड़ा देखता रहा I आखिर दिल नहीं माना I जाने कहाँ से जुगाड़ करके सुतली-बम ले आया I गोले धर के बीच मैदान में बोला, “लाओ माचिस !”
छुटभैयों में जैसे जान आ गई I माचिस, एक लड़का ले आया I बोले बम दागने का मज़ा तो तब है कि इसके ऊपर एक कनस्तर या माटी की भड़िया रख के छुडाया जाए I एक लड़का कनस्तर ले आया I कागज़ फुनगी में जोड़ के बोले, “छुआओ तीली !” लड़के डरते-डरते जलती तीली छुआ के बार-बार पीछे भाग आवें I बार-बार फुनगी फुस्स-फुस्स होके रह जाए I चिमिरखी को ताव आ गया, बोले, “लाओ यार, तुम लोगों से पिद्दी भर का बम नहीं दागा जा रहा; सेना में होते तो जाने क्या करते I” इतना कहते-कहते कनस्तर के नीचे से फुनगी निकालने के लिए झुके ही थे कि सुलगता गोला बोल गया I
धमाका तो चौकस हुआ मगर धुंए में चिमिरखी नदारत थे I दरअसल उनकी मूछें ऐसी झुलसीं कि सफ़ा–चट्ट करानी पड़ीं I दूसरे दिन सुबह भाई लोग दीवाली की मुबारकबाद देने पहुँचे तो देखा, बंदा घर के भीतर मुँह पर मास्क लगाए बैठा था I सबने पूछा, “भाई, ये क्या ?” बोले, “यार तुम लोग अखबार तो पढ़ते नहीं हो, पटाखों की वजह से प्रदूषण देख रहे हो कितना है; मास्क न लगाएँ तो क्या करें ?” भाई बोले, “और दीवाली की मिठाई ?” “यार, आजकल के खोए में कितनी मिलावट है, ये तो जानते ही हो I” ‘यार’ भी समझ गए कि अबकी पटाखे सील गए हैं, अब ये नहीं बोलने वाले I