अपने घर में वैसे तो हर रोज किसी को कुछ न कुछ हुआ करता है, किसी को जुकाम है तो किसी को खाँसी। किसी को घुटने में दर्द रहता है तो किसी को सिर में दर्द। किसी को जुलाब लगे होते हैं तो किसी को कब्ज़ हुई होती है। कई बार तो ये सब देख कर मन करता है कि सरकार से अनुरोध करूँ कि हे सरकार! मुझे कुछ दे या न दे पर मेरे घर में एक सरकारी अस्पताल का पट्टा ही लगा दे। कम से कम दफ्रतर में साहब को भी मुझे बकने की बीमारी से मुक्ति मिले और मुझे भी साहब की किच-किच से मोक्ष मिले। रिटायरमेंट के इन बचे दो महीनों में तो शान से सिर उठा कर समय पर दफ्रतर जा सकूँ।
पर, जिसकी किस्मत में घरवालों ने इज्जत से जीने का एक पल भी शेष न रखा हो वहाँ विधाता भी बेचारा क्या लिखे! उस रोज विधाता मिला था, अचानक। तब मैं खुद से खुद की नजरें बचाता सड़ी सब्जी आधे दाम में ले रहा था। क्या करूँ भाई साहब, मजबूरी है। अब परिवार को कुछ न कुछ तो खिलाना ही है न! आदमी कुछ खाकर बीमार हो तो बीमारी के आगे शर्मिंदा नहीं होना पड़ता। दूसरी ओर घर के सफल मुखिया होने का भ्रम भी बना रहता है।
‘और बंधु, क्या हाल हैं?’ विधाता ने पीछे से मेरा झोला खींचा।
‘कौन?’ मुझे गुस्सा आया। पर फिर शांत हो गया कि यार तू इस वक्त बाजार में है और बाजार में किसी का कुछ भी खींचा जा सकता है। पीछे मुड़ा तो अजीब-सा बंदा देखा। बंदे बड़े-बड़े देखे पर ऐसा न देखा था। मैंने अपना गुस्सा आगे के बंदे पर पान की पीक के साथ पिचकते कहा, ‘आपको मैंने पहले कहीं देखा नहीं, माफ कीजिएगा।’
‘यार मैं वही हूँ जिसके आगे तुम सबेरे उठने से पहले रोज नाक रगड़ते हो कि हे विधाता, आज से तो मेरी किस्मत बदल दे। आज कुछ फुर्सत में था तो मैंने सोचा कि आज क्यों न खुद-ब-खुद चलकर. . .’ कह अपने को विधाता कहने वाला मुस्कुराया।
‘तो यार, कैसी किस्मत लिख तूने मुझे इस लोक में भेजा? जा मैं तुझसे कोई बात नहीं करता। गधे की भी इससे अच्छी किस्मत होती है। और मैं तो आदमी था!’
‘गुस्सा थूको मित्र! कुछ मेरी सुनो तो सच का पता चले।’ कह विधाता ने बड़ी आत्मीयता से मेरे गृहस्थी के भार से टूटे कंधों पर अपने दोनों हाथ रखे तो मेरा गुस्सा कुछ शांत हुआ।
‘तो कहो, क्या कहना चाहते हो? वैसे भी आज तक मैंने सभी को सुना ही है। कहने का मौका तो भगवान ने मेरी किस्मत में लिखा ही नहीं।’ कहते कहते मेरा जुकाम से बंद हुआ गला और रुँध गया।
‘मैं कहना यह चाहता हूँ कि मैंने तो तुम्हें यहाँ भेजते हुए तुम्हारी किस्मत में मौज ही मौज लिखी थी, पर तुमने गृहस्थी बसा चादर से बाहर पाँव निकाल लिए तो मैं भी क्या करूँ? पाँव चादर के अंदर ही रखना किसका धर्म बनता है? मेरा या तुम्हारा? वैसे विश्वास न हो तो ये रिकार्ड देख लो।’ कह वह अपने सूटकेस को वहीं खोलता आगे बोला, ‘आप लोगों के साथ सबसे बड़ी मुश्किल यही है। पंगा खुद लेते हो और दोष मुझे देते हो। अब मैं तो आप लोगों की जानदार किस्मत ही लिख सकता हूँ न। किस्मत की इज्जत बचाए रखने के लिए संभल कर चलना तो आप लोगों को ही पड़ेगा। फिर दोष देते फिरते हो। ये कहाँ का न्याय है बंधु? अब मैं चुप! बंदे ने कुछ कहने लायक छोड़ा ही नहीं। बात उसकी बिलकुल सच थी।
‘तो अब कुछ हो सकता है क्या?’
‘क्यों नहीं, इस देश में हर चीज का इलाज करने वाले संसद से सड़क तक झोला खोल करके बैठे हैं, करवाके तो देखो। नहीं करने, करवाने के बहाने हजारों हैं, सरकार की तरह।’
‘कैसे? यहाँ तो हर दवाई में खोट है। खोट वाली दवाई क्या इलाज करेगी? सरकार महंगाई का इलाज करती है तो वह इलाज से बाहर हो जाती है, सरकार भुखमरी का इलाज करती है तो वह इलाज से बाहर हो जाती है, सरकार बेरोजगारी का इलाज करती है तो वह इलाज से परे हो जाती है, सरकार भ्रष्टाचार का इलाज करती है तो वह इलाज से परे हो जाता है, सरकार भय का इलाज करती है तो वह इलाज से परे हो जाता है, ऐसे में मैं कौन सी दवाई लूँ?’
‘ईमानदार होने की दवाई लो।’ कह वे अंतर्ध्यान हो लिए।
ये दवाई किस स्टोर पर मिलेगी भाई साहब? सारा शहर तो छान चुका हूँ। यहाँ के दवाई वालों के पास तो यह आउट ऑफ़ स्टाक चल रही है। आपके शहर हो तो कृपया भेज दीजिएगा।
─अशोक गौतम