हमारे स्वयंम चित्त के रुपमे होने की निम्न अवस्थाएं है।
१) पहली हम में चित्त स्पष्ट न होने कारण विचारो का कुतर्क जाल पैदा होने की स्थित हैं ।इसमें हम ही चित्त के रूपमे गोला कर घूम रहे है । शरीर की मृत्यु के समय इसी अवस्था से हम अगला जीवन चुनते है ।यही से दर्शन की शुरुवात हो जाती है ।
२) दूसरी चित्त की शून्य होने की स्थिति है ।इसमें हमे शून्यता का बोध होता हैं । ये शून्यता शरीर की शून्यता की स्थिति है । ये मानसिक शून्यता है । ये हमे वापस पहली स्थिति में ले आती है ।पहली अवस्था से दूसरी अवस्था में ही हम शरीर बदलते हैं।
३) तिसरी चित्त के चेतना बनकर ज्योत के रूपमे
जाल जाने की अवस्था है ।यही ध्यान की प्रगाढ़
अवस्था है अर्थात ध्यान दूसरी अवस्था से तिसरी अवस्था तक ही जाता हैं। इस अर्थ में ध्यान सभी विचारो को शून्य करने के कारण ही संभव हो पाता है ।
४) चौथी चित्त के देह के आकर में खिलकर चैतन्य हो जाने की अवस्था है। यही देह में हमारी और चित्त की अलग हो जाने की अवस्था है। यही से बोध की प्रगाढ़ शुरुवात होती है । सभी दर्शन धीरे धीरे इस प्रगाढ़ बोध में स्पष्ट होने लगते है ।
५) पांचवी चित्त की शरीर से बाहर की और ब्रहम के रुपमे खिलने की अवस्था है । इस अवस्था से ही हमे जगत का वास्तविक बोध होता है ।
अंत में आती है चित्त के खो जाने की अवस्था और चित्त के खोने के कारण सब दृश्य और अदृश्य खो जाते है । इस अवस्था मे "मैं" पूरी तरह मिट जाता है और शुद्ध बोध रह जाता है । इसे ही परिपूर्ण बोध कहा जाता है । ये एक अलग ही तरह का "मैं" हैं जिसमे होने का बोध ही नही है । इसका कारण चित्त का न होना है अर्थात चित्त का "मैं" अहंकार है और ये "मै" हमारी अपनी ही बुद्धि है ।