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दिसम्बर

14 दिसम्बर 2018

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दिसम्बर ;१द्ध गुनगुनी किरणों का बिछाकर जाल उतार कुहरीले रजत धुँध के पाश चम्पई पुष्पों की ओढ़ चुनर दिसम्बर मुस्कुराया शीत बयार सिहराये पोर.पोर धरती को छू.छूकर जगाये कलियों में खुमार बेचैन भँवरों की फरियाद सुन दिसम्बर मुस्कुराया चाँदनी शबनमी निशा आँचल में झरती बर्फीला चाँद पूछे रेशमी प्रीत की कहानी मोरपंखी एहसास जगाकर दिसम्बर मुस्कुराया आग की तपिश में मिठास घुली भाने लगी गुड़ की चासनी में पगकर ठंड गुलाब .सी मदमाने लगी लिहाफ़ में सुगबुगाकर हौले से दिसम्बर मुस्कुराया ;


२द्ध भोर धुँँध में लपेटकर फटी चादर ठंड़ी हवा के कंटीले झोंकों से लड़कर थरथराये पैरों को पैडल पर जमाता मंज़िल तक पहुँचाते पेट की आग बुझाने को लाचार पथराई आँखों में जमती सर्दियाँ देखकर सोचती हूँ मन ही मन दिसम्बर तुम यूँ न क़हर बरपाया करो वो भी अपनी माँ की आँखों का तारा होगा अपने पिता का राजदुलारा फटे स्वेटर में कँपकँपाते हुए बर्फीली हवाओं की चुभन करता नज़रअंदाज़ काँच के गिलासों में डालकर खौलती चाय उड़ती भाप की लच्छियों से बुनता गरम ख़्वाब उसके मासूम गाल पर उभरी मौसम की खुरदरी लकीर देखकर सोचती हूँ दिसम्बर तुम यूँ न क़हर बरपाया करो बेदर्द रात के क़हर से सहमे थरथराते सीलेएनम चीथड़ों के ओढ़न.बिछावन में करवट बदलते सूरज का इंतज़ार करते बेरहम चाँद की पहरेदारी में बुझते अलाव की गरमाहट भरकर स्मृतियों में काटते रात के पहर खाँसते बेदम बेबसों को देखकर सोचती हूँ दिसम्बर यूँ न क़हर बरपाया करो .श्वेता सिन्हा

Chandra Kumar

Chandra Kumar

very beautiful. your stories are very realistic,it force us to think a lot. it requires lots of concentration and coolness. Appreciating

18 दिसम्बर 2018

रेणु

रेणु

प्रिय श्वेता -- ये रचना दिसम्बर के सुंदर और वीभत्स दोनों रूपों को बखूबी परिभाषित करती है | प्रकृति के सौन्दर्य के अलावा दिसम्बर साधन हीनों के लिए कयामत से कम नहीं | दयनीयता से घिरे और विपन्नता से जूझ रहे करुण पात्र कैसे इस मौसम का सामना करते होंगे बहुत ही मार्मिकता के साथ लिखा आपने | सस्नेह शुभकामनायें और प्यार |

16 दिसम्बर 2018

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अटल जी ......मुझे कभी इतनी ऊँचाई मत देना देना

17 अगस्त 2018
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ठन गई! मौत से ठन गई! जूझने का मेरा इरादा न था, मोड़ पर मिलेंगे इसका वादा न था, रास्ता रोक कर वह खड़ी हो गई, यों लगा ज़िन्दगी से बड़ी हो गई। मौत की उमर क्या है? दो पल भी नहीं, ज़िन्दगी सिलसिला, आज कल की नहीं। मैं जी भर जिया, मैं मन से मरूँ, लौ

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प्रेम संगीत

20 अगस्त 2018
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जबसे साँसों ने तुम्हारी गंध पहचानानी शुरु की है तुम्हारी खुशबू हर पल महसूस करती हूँ हवा की तरह, ख़ामोश आसमां पर बादलों से बनाती हूँ चेहरा तुम्हारा और घनविहीन नभ पर काढ़ती हूँ तुम्हारी स्मृतियों के बेलबूटे सूरज की लाल,पीली, गुलाबी और सुनहरी किरणों के धागों से, जंगली फूलों पर मँडराती सफेल तितलियों सी

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आस का नन्हा दीप

8 नवम्बर 2018
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दीपों के जगमग त्योहार में नेह लड़ियों के पावन हार में जीवन उजियारा भर जाऊँ मैं आस का नन्हा दीप बनूँ अक्षुण्ण ज्योति बनी रहे मुस्कान अधर पर सजी रहे किसी आँख का आँसू हर पाऊँ मैं आस का नन्हा दीप बनूँ खेतों की माटी उर्वर हो फल-फूलों से नत तरुवर हो समृद्ध धरा को कर पाऊँ मैं आस का नन्हा दीप बनूँ न झोपड़

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नेह की डोर

28 नवम्बर 2018
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मन से मन के बीच बंधी नेह की डोर पर सजग होकर कुशल नट की भाँति एक-एक क़दम जमाकर चलना पड़ता है टूटकर बिखरे ख़्वाहिशों के सितारे जब चुभते है नंगे पाँव में दर्द और कराह से ज़र्द चेहरे पर बनी पनीली रेखाओं को छुपा गुलाबी चुनर की ओट से गालों पर प्रतिबिंबिंत कर कृत्रिमता से मुस्कुराकर टूटने के डर से थरथराती

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चोर

29 नवम्बर 2018
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सुबह के साढ़े आठ बज रहे थे, मैं घर के कामों में व्यस्त थी। चोर! चोर! शोर सुनकर मैं बेडरूम की खिड़की से झाँककर देखने लगी। एक लड़का तेजी से दौड़ता हुआ गली में दाखिल हुआ उसके पीछे तीन लोग थे जिसमें से एक मंदिर का पुजारी था, सब दौड़ते हुये चिल्ला रहे थे, "पकड़ो,पकड़ो चोर है काली माँ का टिकुली(बिंदी) चुर

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स्वप्न

8 दिसम्बर 2018
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तन्हाइयों में गुम ख़ामोशियों की बन के आवाज़ गुनगुनाऊँ ज़िंदगी की थाप पर नाचती साँसें लय टूटने से पहले जी जाऊँ दरबार में ठुमरियाँ हैं सर झुकाये सहमी.सी हवायें शायरी कैसे सुनायें बेहिस क़लम में भरुँ स्याही बेखौफ़ तोड़कर बंदिश लबों कीए गीत गाऊँ गुम फ़िजायें गूँजती बारुदी पायल गुल खिले चुपचाप बुलबुल हैं घ

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दिसम्बर

14 दिसम्बर 2018
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दिसम्बर ;१द्ध गुनगुनी किरणों का बिछाकर जाल उतार कुहरीले रजत धुँध के पाश चम्पई पुष्पों की ओढ़ चुनर दिसम्बर मुस्कुराया शीत बयार सिहराये पोर.पोर धरती को छू.छूकर जगाये कलियों में खुमार बेचैन भँवरों की फरियाद सुन दिसम्बर मुस्कुराया चाँदनी शबनमी निशा आँचल में झरती बर्फीला चाँद पूछे रेशमी प्रीत की कहा

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देहरी

23 दिसम्बर 2018
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तन और मन की देहरी के बीच भावों के उफनते अथाह उद्वेगों के ज्वार सिर पटकते रहते है। देहरी पर खड़ा अपनी मनचाही इच्छाओं को पाने को आतुर चंचल मन, अपनी सहुलियत के हिसाब से तोड़कर देहरी की मर्यादा पर रखी हर ईंट बनाना चाहता है नयी देहरी भूल कर वर्जनाएँ भँवर में उलझ मादक गंध में बौराया अवश छूने को मरीचिका

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