दीपों के जगमग त्योहार में नेह लड़ियों के पावन हार में जीवन उजियारा भर जाऊँ मैं आस का नन्हा दीप बनूँ अक्षुण्ण ज्योति बनी रहे मुस्कान अधर पर सजी रहे किसी आँख का आँसू हर पाऊँ मैं आस का नन्हा दीप बनूँ खेतों की माटी उर्वर हो फल-फूलों से नत तरुवर हो समृद्ध धरा को कर पाऊँ मैं आस का नन्हा दीप बनूँ न झोपड़ी महल में फर्क़ करूँ कण-कण सूरज का अर्क मलूँ तम घिरे तो छन से बिखर पाऊँ मैं आस का नन्हा दीप बनूँ फौजी माँ बेटा खोकर रोती है बेबा दिन-दिनभर कंटक बोती है उस देहरी पर खुशियाँ धर पाऊँ मैं आस का नन्हा दीप बनूँ जग माटी का देह माटी है साँसें जलती-बुझती बाती है अबकी यह तन ना नर पाऊँ मैं आस का नन्हा दीप बनूँ
©श्वेता सिन्हा