मन से मन के बीच बंधी नेह की डोर पर सजग होकर कुशल नट की भाँति एक-एक क़दम जमाकर चलना पड़ता है टूटकर बिखरे ख़्वाहिशों के सितारे जब चुभते है नंगे पाँव में दर्द और कराह से ज़र्द चेहरे पर बनी पनीली रेखाओं को छुपा गुलाबी चुनर की ओट से गालों पर प्रतिबिंबिंत कर कृत्रिमता से मुस्कुराकर टूटने के डर से थरथराती डोर को कस कर पकड़ने में लहलुुहान उंगलियों पर अनायास ही तुम्हारे स्नेहिल स्पर्श के घर्षण से बुझते जीवन की ढेर में लहक उठकर हल्की-हल्की मिटा देती है मन का सारा ठंड़ापन उस पल सारी व्यथाएँ तिरोहित कर मेरे इर्द-गिर्द ऑक्टोपस-सी कसती तुम्हारे सम्मोहन की भुजाओं में बंधकर सुख-दुख,तन-मन, पाप-पुण्य,तर्क-वितर्क भुलाकर अनगिनत उनींदी रातों की नींद लिए ओढ़कर तुम्हारे एहसास का लिहाफ़ मैं सो जाना चाहती हूँ कभी न जागने के लिए। ---श्वेता सिन्हा