हम सब जानते हैं कि इच्छाओं और सपनों में बहुत बारीकी का अंतर है, इच्छाएँ- जो हम जीवन में करना या पाना चाहते हैं ,सपनें- जो हम खुली या बंद आँखों से देखते हैं, जिनकी पहचान ही है अपूर्ण रहना। लोग अक्सर कहते हैं 'मेरे सपने पूरे नहीं हुए' बजाय इसके कि 'मेरी इच्छा या चाहत पूरी नहीं हुई'। जहाँ तक मुझे लगता है अगर हमने अपनी इच्छाओं को सपनों की संज्ञा दे दी तो हमने स्वयं ही उन्हें पूर्ण होने से पहले अपूर्ण कर दिया।इसलिए भावनाओं को प्रकट करते समय जरूरी है कि सही शब्दों का चुनाव करें।
और इन दोनों से इतर होती हैं हमारी 'कल्पनाएँ' जो सोच से जुड़ी होती हैं, जो निराधार होती हैं, जो किसी सीमा के अंतर्गत नहीं बाँधी जा सकतीं, जो वास्तविकता की शर्तों से परे होती हैं।
अगर व्यतिगत कल्पना की बात करुँ तो अक्सर खाली समय में या कमरे में अकेले बैठे खिड़की से बाहर की ओर दिखनेवाले मकानों, पेड़-पौधों, गाड़ी-मोटरों, पक्षियों आदि को देखकर ये सोचती हूँ कि काश ! ऐसी दुनिया भी हो जहाँ जीवन के मध्य में अकेला पड़ा इंसान शुरुआत से ही अकेला हो और इस दर्द का आदि हो चुका हो ताकि अकेले होने की टीस उसे किसी भी मायने में जीवन से विमुख न होने दे, ताकि भीड़ में अकेले छोड़े जाने का कोई डर न हो, ताकि अपने लक्ष्य के प्रति वह पूर्ण रूप से निष्ठित हो और बीच रास्ते में कोई वजह न हो उसके टूटने की या पीछे हटने की।
जहाँ छोटी गलतियों पर बड़ी सज़ाएँ न मिलें, जहाँ जो बात जैसी कही जाए वैसी ही समझी जाए, जहाँ कहने और करने में अंतर न हो, जहाँ कसमों-वादों जैसी कोई चीजें न हो जो इंसान को कमज़ोर बना दें और कभी-कभार सोचने-विचारने तक की क्षमता छीन लें, जहाँ मिलने वाले अधिकार बराबर हों, जहाँ कम-ज्यादा, थोड़ा-बहुत, आगे-पीछे जैसे फ़िज़ूल प्रतियोगी शब्द न हों। जहाँ भाग्य की लड़ाई कर्मों से न हो , और....जहाँ लोगों में 'मैं' न हो ।