कमरे में ऊपर छज्जे पर कुछ किताबें पड़ी है जो पिछले कई सालों की जमापूँजी हैं, जिसे मैंने लगभग 10 -12 साल से जमा कर रखा है, जो अब किसी काम की नहीं है क्योंकि previous course की किताबें थीं इसलिए अब out of syllabus हैं ।माँ कई बार उन किताबो को लेकर बहुत कुछ सुना चुकी है कि इनको रखकर अब क्या करोगी? फिर पढ़ाई पीछे से शुरू करनी है ? वगैरह- वगैरह...पर मैं उन्हें हटाना नहीं चाहती न बेचकर न किसी को देकर। मन नहीं मानता इसलिये नहीं कि वो मेरे किसी काम के हैं या आगे मुझे उनकी जरूरत पड़ेगी पर शायद इसलिए कि उनकी अनुपस्थिति मन को बोझिल कर देगी और जीवन के सैकड़ों अफ़सोसों में एक उन्हें दूर करने का अफसोस भी जुड़ जाएगा जो आमरण चलेगा और घूम-फिर कर बात फिर मेरे दिल और दिमाग की सहनशक्ति पर आएगी......और हो सकता है कि इसका कारण किताबों से मेरा लगाव भी हो जो कि शुरू से रहा है ।
अगर इसे life से relate करके देखूं और इसके context में समझने की कोशिश करूँ तो आजकल ऐसा ही कुछ चल रहा है। कुछ चीजें हैं जो पता है अब मेरे लिए नही हैं,जो अब किसी पड़ाव पर मेरा साथ नहीं देंगी, जिन्हें परिस्थितियों ने दूर कर दिया है या समय ने अपने दायरे में बांध लिया है फिर भी उसकी गठरी संभाले उन्हें साथ लिए रास्ते में चल रही हूँ।
और यही मानकर चल रही हूँ कि 'अतीत कभी बोझ नहीं हो सकता ।' मैं जानती हूँ इन्हें दूर करना जीवन मे कई और नकारात्मक पहलुओं को पास ले आएगा।
खैर, देखते हैं माँ कब तक मेरे साथ मेरी किताबों के दिन मुकर्रर करती हैं ।