मैं जीवन में हमेशा एक ही बात से डरती रही हूँ कि मुझे कभी अपने किसी फैसेले पर या कहने-बोलने पर पछताना न पड़े, जीवन में किसी चीज का पछतावा न रहे और इसी डर से मैं कभी किसी नतीजे पर नहीं पहुँचती, सबकुछ साथ समेटती चलती हूँ और सोचती हूँ कि जो है जैसा है ठीक है मुझे ही संभालना है तो मैं संभाल लूंगी।
पर दुर्भाग्य कहूँ या ग़लती इसी डर का सामना बार-बार करना पड़ा है। मेरे जीवन में पछतावे बहुत रहे हैं।
लोग हमेशा कहते हैं मैं जो हूँ वो दिखती नहीं हूँ ।मेरे रहने,बोलने का ढंग मेरे वास्तविक व्यक्तित्व को नहीं दर्शाता मुझे देखकर कोई नहीं कह सकता कि मुझे कलम चलाना पसंद है,कोरे कागज पर अक्षरों को उतारना पसंद है या संक्षेप में कहूँ तो मुझे लिखना पसंद है। मैं उनसे पूछती हूँ कि ऐसा लगने का कारण क्या है पर जवाब उनके पास भी नहीं है वो कहते हैं बस यूं ही लगता है।
और सच कहूँ तो मुझे भी यही लगता है और यही कारण है कि लोग कभी मुझे समझ नही पाते।में जो करती हूँ वो बोलती नहीं जो बोलती हूँ वो सामनेवाले को लगता नहीं।
जो लगता वैसा मुझमें कुछ दिखता नहीं।
"मुझे समझने का केवल एक ही ज़रिया है - मेरे शब्द
मैं हूबहू वही हूँ जो लिखती हूँ "