हरगिज़ है ये फ़ख़्र से सीना चौड़ा करने वाली बात,
बेटी सौंप दी कन्या-दान अदा करने की खातिर।
खून-पसीना खुद का बेच आया इक मजबूर बाप,
बेटीयों को विवाह के बंधन में बांधने की खातिर।
उस बाप से गरीब कोन है जिसके घर बेटी हुई हो,
और खुद को गिरवी रख दे दहेज़ देने की खातिर।
इससे ज्यादा गिरी हुई बात और क्या हो सकती है,
कि विवाह रोक दिया दहेज़ न मिलने की खातिर।
ये न कहो "बाग़ड़ी" की बेटीयां पराई अमानत है,
बेटीयां होती हैं रिश्तों का स्तंभ बनने की खातिर।