जो शख्स इस जाल में उलझ जाता है उसका बचकर लौटना नामुमकिन होता है. मुंबई में फ़िल्म की आढ़ में इतने स्त्रोत है जो खुलेआम ठगी कर रहें है पर उनपर किसी का कोई कण्ट्रोल नहीं है सरकार या पुलिस मासूम लोगों को बचाने आगे नहीं आती है जो यदि बच जाते है ये उनका कोई पुण्य -प्रताप ही होगा.
पुराने वक़्त में ये होता था कि बहुत से जमींदारों को सीलिंग का पैसा मिला था वो बड़ी माया लेकर मुंबई आते थे तब उन्हें फ़िल्म का बिज़नेस ही अच्छा लगता था. क्योंकि इसमें मज़ा है ऐसा उन्हें प्रतीत होता था तो उनके आगे -पीछे ऐसे कई दलाल लग जाते थे जो तब तक उन्हें किसी परजीवी की तरह चूसते रहते थे ज़ब तक वो पूरी तरह बर्बाद होकर रास्ते पर न आ जाये. ऐसे कई थे जो नष्ट कर दिये गए.
ये लोग प्रोडूसर बनकर ऑफिस खोल लेते थे और उनपर पलने वालों का एक पूरा हुजूम लग जाता था. प्रेस वालों को बुला कर अख़बार व पत्रिका में इस्तेहार और न्यूज़ छापवाते थे. सब तरफ से ऐसे मालदार लोगों का शोषण होता. उन्हें कहते थे कि आप निर्माता हो.
दिन भर फ़िल्म की चर्चा होती फिर रात में बड़ी पार्टी, होटल और मुजरे में ले जाते. इसमें जो दलाल होते वो तो खाते -पीते मजे लेते ही इन निर्माताओं की जेब से अच्छे कपड़े सिलवाना, नाचने वालियों के यंहा निर्माताओं को ले जाना और बाहर के होटलों में रुकवाना इन सबमें उन्हें दलाली का पैसा मिलता.
आखिर में ये होता कि जो पैसा वाला होता वो भिखारी हो जाता और जो दलाल होते वो करोड़पति बन जाते थे. जो जमींदार होता वो यदि बचता तो लूट -पीट कर अपने गांव में लौटकर किसी तरह जिंदगी जीता और यदि मुंबई में होता तो कंही सिग्नल या फुटपाथ पर गुदड़ी में लिपटा भीख मांग कर कुत्तों की जिंदगी जीता.