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ईश्वर सत्य है

Shrut kirti Agrawal

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"इतने मँहगे कपड़े, सामान और खिलौने लेने की क्या जरूरत है माँ जी ? फिर अभी तो इतने पैसे भी नहीं हैं मेरे पास !" मुक्ता ने कहा पर फिर भी शायद वह उसकी मंशा समझ नहीं सकीं । "पैसे नहीं हैं तो क्या फर्क पड़ता है ? सामान अलग कर कुछ एडवांस दे देते हैं । कल आकर ले जाना.... कम से कम दोबारा पसंद करने के झंझट से तो बचेंगें ।" वे सचमुच आज ही ये सब काम समाप्त कर लेना चाहती थीं । दो चार दिनों में उनके बहन, बहनोई और अपनी बेटी-दामाद और बच्चों के साथ आने वाली हैं । इतने सारे लोगों के एक साथ आने से घर में कितनी सारी तैयारियाँ, कितने ही काम हो जाते हैं... ऐसे में, कम से कम सबके लिये ये उपहार इत्यादि खरीद लेने वाला काम ही हो समाप्त कर लेते ! पर मुक्ता थी, कि टाले ही जा रही थी मानों उसे इन चीजों में कोई दिलचस्पी ही न हो । "सारी चीजें तो मुझे याद हैं माँ जी। विकास के साथ स्कूटर से आ कर भी तो ले जा सकती हूँ । वे भी पसंद कर लेंगे तो ज्यादा अच्छा होगा न !" फिर मुक्ता ने हाॅर्लिक्स, उनकी दवाईयां और फल इत्यादि खरीदे और घर लौट आई । घर के कामों में हाथ चलता है इस लड़की का, वे सोंच रही थीं । आते ही चटपट फलों का जूस तैयार करके एक गिलास उन्हें थमा गई और दूसरा अपने नन्हें से बेटे अनिमेष को ! रात के खाने की तैयारी के साथ-साथ बेटे को गिनती याद करा रही थी, उधर वाॅशिंग मशीन में कपड़े भी धुल रहे थे पर इतनी व्यस्तता में भी वह उनके कमरे में आकर खिड़की-दरवाजे बंद कर पर्दे खींचने नहीं भूली .... कि शाम के समय ध्यान न दो तो सारा घर मच्छरों से भर जाता है । जाते जाते यह भी बता गई कि आज रात में वह परवल की उबली सब्जी ही बना लेगी, क्योंकि वह उनके दाँतों को तकलीफ नहीं देगी । तभी विकास का फोन आ गया कि दाँतों के डाॅक्टर का एपाॅइन्टमेंट मिल गया है और वह दस पंद्रह मिनट के अंदर घर पँहुच कर माँ जी को वहाँ ले जाएगा तो मुक्ता ने जल्दी से आकर उनके धुले कपड़े वगैरह निकाल दिये, चश्मा और चप्पलें तक लाकर पास में रख दिया । संतोष से राधिका का दिल भर आया .... क्यों इन बच्चों पर शक करके अपना परलोक बिगाड़ना पड़ रहा है ? जिस कसक को सीने में दबाए जिंदगी बिता दी थी, ये बच्चे तो उन्हें वो सुख दे रहे हैं । आजकल पुरानी बातें कुछ इस तरह याद आने लगती हैं जैसे चित्रपट पर कोई पुरानी फिल्म चल रही हो । इसी घर में एक दिन उनकी डोली उतरी थी, उत्साह और ललक के साथ उनकी सास उनकी आरती उतार कर उन्हें अंदर लाई थीं जहाँ थे एक धीर-गंभीर स्नेहिल श्वसुर, दुलारे देवर और हर समय प्यार छलकाते पति धीरज ! दुनिया का हर सुख मिला था उन्हें पर मुठ्ठी में बंद रेत की तरह धीरे-धीरे छीजने भी लगा वह कि छ-सात साल उनकी कोख भरने का इंतजार किया गया फिर शुरू हुआ डाॅक्टरी जाँच परीक्षण, मनौती -मनौवल और थोड़ा बहुत पीर फकीर ज्योतिष पर एकाएक हर कोशिश का पटाक्षेप हो गया कि रिपोर्ट आई कि उनका गर्भाशय पूरी तरह विकसित ही नहीं है अतः बड़े आपरेशन के बाद भी गर्भधारण की संभावना केवल दो-चार प्रतिशत की ही थी । सास-ससुर के चेहरे उतर गये, उनका अपना आत्मविश्वास भी पूरी तरह डगमगा गया था पर पति धीरज उन क्षणों में अडिग होकर खड़े हो गये थे । दबे स्वरों में फुसफुसाती माँ और आँखों में आँसू भर-भर कर मनुहार करती पत्नी को उन्होंने दृढ़ शब्दों में बता दिया कि वे दूसरी शादी करने को कतई तैयार नहीं हैं । कि किस्मत में अगर बाल-बच्चे होने थे तो वो एक ही शादी से मिल गये रहते और अगर नहीं है तो उनका पुरुषार्थ किस्मत की बैसाखी का मोहताज नहीं है और किसी औलाद के बिना ही खुश रहने का दम खम है उनके अंदर ! वचन निभाया था उन्होंने कि सारी दुनिया का दबाव सह कर भी झुके नहीं । न दूसरी शादी ही की, न दूसरों के बच्चों को देख कर आह ही भरी । अपनी राधिका को हमेशा रानी-महरानी की तरह रखा बस, जीवन के खालीपन या एक शिशु की कमी की शिकायत को कभी ज़बान तक लाने की इजाजत नहीं दी । खुद को अपने कामों और समाज सेवा में इतना व्यस्त कर लिया कि किसी और चीज की याद ही नहीं रही । यूँ ही जाने कितने बरस बीत गये .... साठ साल की उम्र हो गई उनकी । फिर एक दिन पता चला कि उन्हें ब्रेन ट्यूमर है । कहाँ कहाँ नहीं फिरीं राधिका उनको लेकर .... दिल्ली बंबई .. फिर वैल्लोर में आॅपरेशन कराया .... जो भी पड़ा, अकेले झेला । कोई साथ देने वाला नहीं मिला तो क्या, अपने प्रियतम की किसी भी आवश्यकता के लिये जान भी दे देने को तैयार थीं वह तो ..... कि शरीर तक अधूरा था पर जीवन के किसी भी सुख से वंचित नहीं रहीं कभी .... कि इस देवतास्वरूप इंसान ने स्वयं अपने आप से भी बढकर प्यार और मान दे दिया उनको ! पर इसबार का, अपनी राधिका का ये अकेलापन बर्दाश्त नहीं कर सके थे धीरज... शायद उनको अपनी अल्पायु का अंदाज था या जो भी हो, पर इस बार बीमारी में उन्हें देखने जो राधिका के बहन बहनोई आए तो उन्हीं के सामने बिखर पड़े थे वो..... जिंदगी में पहली बार अपने अंदर की शून्यता को किसी के सामने स्वीकार किया था.... " कोई तो होना ही चाहिये अपना नामलेवा ! मुझे पता है कि अब मैं ज्यादा दिन नहीं जिऊँगा पर राधिका को मैं अकेली छोड़कर नहीं जाना चाहता । उनके जिस भोलेपन पर मैं फिदा था, अब वह उनकी बहुत बड़ी कमी साबित होने वाला है कि ये दुनिया तो उनको नोचकर खा जायगी ! केवल अपनी जिद की वजह से देर की मैंने..... काश कि उम्र रहते ही कुछ कर लिया होता पर अब तो एक बच्चे को बड़ा करने भर भी उम्र नहीं बची मेरे पास !" उनके दुःख से दुःखी बहन बहनोई ने अगले ही दिन अपना सत्रह वर्षीय बेटा विकास लाकर उन्हें सौंप दिया था । फिर आनन फानन में गोद लेने की सारी रसमें और कानूनी कार्यवाही भी पूरी कर ली गई थी और जब तक राधिका के देवर आए थे, विकास, धीरज और राधिका का कानूनी बेटा बन चुका था । राधिका की ये बहन और धीरज का ये छोटा भाई, ले-देकर अपना कहने को इस दुनिया में यही दो तो रिश्तेदार हैं राधिका के ! जिंदगी भर धीरज ने इन्हीं दो घरों में जी भर कर प्यार और उपहार बाँटे थे । इन दोनों परिवारों का हर सदस्य उन्हें अपनी जान से ज्यादा प्यारा था फिर भी आज विकास को अपने सीने में भींच कर लगा था कि अपना तो अपना ही होता है । बरसों से अंतर में दबा प्यार किसी उद्दाम बरसाती नदी सा सारे बाँधों को तोड़ उमड़ आने को बेकरार था पर उसी समय देवर ने आकर संबंधों की एक नई ही व्याख्या कर डाली .... "ये सारी चालाकी केवल आपकी संपत्ति हथियाने के लिये है भईया जी ! सत्रह साल उनलोगों को माँ बाप पुकारने के बाद ये छोकरा भला आपका क्या होगा ? अपने भाँजे के लिये भाभी की कमजोरी मैं समझ सकता हूँ पर आपको क्या हुआ था ? दो-चार साल में सबकुछ समेट कर भाग लेगा तो आपके बुढ़ापे का क्या होगा ? और कुछ नहीं तो कम से कम रुपये पैसों का सहारा तो होता ही है, वह भी नहीं रहा तो कहाँ जाइयेगा आप लोग ? " "क्यों , तू नहीं है क्या ? तू नहीं सँभालेगा हमें ?" कहने को कह गये थे धीरज पर शक का कोई छोटा सा कीड़ा तो घुस ही गया था उनके अंदर ! जानते थे राधिका हर किसी की हर बात पर तुरंत विश्वास कर बैठती हैं, किसी में कोई बुराई उन्हें जल्दी नजर ही नहीं आती .... परेशान हो उठे थे वह ! उसी दिन से शुरु कर दिया था अपनी समस्त धन संपत्ति का हिसाब किताब .... मकान राधिका के नाम करके पक्की रजिस्ट्री करवा ली थी । बैंक के लाॅकर की चाभी, रजिस्ट्री के कागजात, बैंक जमा रसीद, पासबुक, शेयर .... सारी चीजों को रोज एक बार दिखाकर उनके बारे में बताते-समझाते थे पर राधिका थीं कि कुछ ठीक से देखती ही नहीं थीं । बस तुनक कर कह देतीं, "देखो जी, मुझे तो तुमसे पहले जाना है सो मैं यह सब सीख कर क्या करूँगी ?" फिर विकास धीरे-धीरे जीवन का हिस्सा बनने लगा । भीगती मसों वाला अजीब सा चुप्पा लड़का ..... सूनी सूनी आँख लिये खिड़की पर बैठा बाहर आसमान निहारता रहता । धीरज उसे पुचकारते, साथ बैठाकर खिलाते-पिलाते, उसका मन समझने का प्रयत्न करते पर उसका वह हँसना-बोलना, शरारतें करना, लौटा नहीं पाए । राधिका समझती थीं कि जड़ से उखाड़ कर एक पौधे को भी दूसरी जगह रोपो तो पनपने में समय लगता है, यह तो फिर भी हाड़ माँस का इन्सान है ! अपने जन्म देने वाले माँ बाप को कोई ऐसे ही तो नहीं भूल जाएगा । सचमुच, धीरे-धीरे फिर वह बदलने लगा .... उसका बचपना समाप्त हो गया था, अब वह धीर-गंभीर, बेहद मितभाषी पुरुष बन गया था और सबसे बड़ी बात, अपने इन नये माँ बाप को अपना लिया था उसने । धीरज के कितने ही काम सँभाल लिये और राधिका को माँ पुकार कर उसके धधकते कलेजे पर ठंढक के लेप लगा दिये थे । देवर के परिवार से इस बीच कुछ दूरी सी हो गई थी । राधिका ने उसे पाटने में अपने भरसक कोई कमी नहीं उठा रखी थी पर कुछ नहीं कर पा रही थी । अलबत्ता बहन बहनोई का परिवार बेहद सगा हो गया था और अक्सर आने लगा था । वे राधिका को देवर की नाराजगी का मतलब समझाते , तुम्हारी संपत्ति का वारिस आ गया है, इसी से नाराज होकर उन्होंने आँखें फेर ली हैं । पहले सोंचा रहा होगा कि बूढे-बुढ़िया का है ही कौन , दोनों के आँखें बंद करते ही सबकुछ अपने आप उन्हें ही मिल जाना था ।अब जो विकास बीच में आ गया तो अपने आप को ठगा सा महसूस कर रहे हैं वह !" पर यह सब राधिका को कभी समझ में नहीं आया । कैसे मान लेतीं कि संबंधो का आधार केवल पैसा होता है ? वह तो कुछ भी लेकर नहीं आईं थीं इस घर में पर कौन सी कमी रही उन्हें ? उन्हीं धीरज के भाई के लिये ऐसी बातें कैसे मान लें वह ? इसके बाद चार-पाँच वर्ष और जीवित रहे धीरज ! उनके अंतिम समय में विकास ने बहुत सेवा की थी उनकी । अपना सगा बेटा होता तो क्या करता, ये तो नहीं मालूम, पर राधिका महसूस करती थीं कि इससे बढकर कोई और क्या करेगा ? अंतिम समय में सँभालने के लिये बहन बहनोई भी आ गये थे पर किसी के सँभालने से क्या कभी वक्त की गति रुकी है ? अपनी बिलखती राधिका को छोड़कर धीरज निष्ठुरता के साथ चले गये । फिर तेरह दिनों तक घर में लोगों का आना जाना कुछ इल तरह चलता रहा मानों शोक का भी कोई उत्सव होता हो । आने वाला हर कोई अपने अपने ढंग से राधिका को सांत्वना-दिलासा देता पर लौटने के पहले उनके कानों में यह मंत्र फूँकना न भूलता कि वह अपनी धन संपत्ति अपने ही हाथ में रखें । भूल कर भी विकास या किसी और के हाथ में न सौंप दें वरना भविष्य में भीख माँगने की नौबत आ जाएगी । ..... पर हाय रे राधिका, हर बार की तरह इस बार भी कोई बात उनकी समझ में नहीं आई । देख नहीं रही थीं क्या कि इन कर्म कांडों में कितना खर्च हो रहा है और ये भी पता था कि इस समय ये सारा खर्च विकास की तनख्वाह मे से ही हो रहा है । नई-नई नौकरी है बेचारे की, अभी से क्या क्या करेगा ? इसी से तो लाॅकर की चाभी और बैंक की पासबुक उसे सौंपने गई थीं । वैसे भी ये सारा हिसाब किताब रखना उनके वश के बाहर था और फिर दब बेटा जवान हो तो उन्हें इन चीजों में सर खपाने की भला क्या जरूरत ? पर उसने लौटा दिया था । कहा, अपने पास ही रखिए, जब जरूरत होगी माँग लूँगा । फिर पता नहीं क्या हुआ, अगले दिन आकर सब माँग भी ले गया, पता नहीं कहाँ कहाँ दस्तखत भी करा लिये थे और राधिका ने सरल मन से सोंचा था, शायद आज ही इसकी जरूरत पड़ गई हो । मन में चोर होता उसके तो कल जब देने गई थी, तब मना क्यों करता ? विकास के कमरे में उसके असली माता पिता देर तक पता नहीं क्या क्या बातें कर रहे थे कि राधिका दो बार चाय के लिये बुलाने गईं पर किसी ने दरवाजा ही नहीं खोला । फिर खुला तो बहन बहनोई का सामान बाँधा जा चुका था । बहुत पूछने पर उखड़े स्वरों में बहन ने बताया कि कुछ जरूरी काम याद आ जाने से उन्हें तुरंत लौटना पड़ रहा है, हो सका तो कुछ समय बाद फिर आने की कोशिश करेंगें । रोकती रह गई थीं राधिका पर कुछ नहीं हुआ .... जाने क्यों लगता था जैसे हाथों से सबकुछ ही छूटा जा रहा हो ! धीरज चले गये, नाते-रिश्तेदार रूठ गए और फिर विकास भी दिन भर के लिये आॅफिस जाने लगा । खाली, निठल्ली सी दिनचर्या और काट खाने को दौड़ता सूना घर.... लगता, अब वह पागल ही हो जाएँगी । पड़ोस की मुक्ता उन्हें पसंद थी । विकास से ब्याह की बाबत पूछा तो शर्मीली सी मुस्कान मुस्कुरा कर चुप रह गया । फिर उन्हें लगा कि इस विवाह के लिये सबसे पहले बहन बहनोई की सहमति लेने की आवश्यकता है अतः दो तीन पत्र डाले, फोटो भी भेजी पर उधर से कोई जवाब नहीं आया । अब क्या करतीं वह ? मजबूरन सारा काम अकेले ही हाथों से निबटाना पड़ा था उन्हें ! बहन के व्यवहार पर आश्चर्य भी बहुत था कि अपने ही बेटे के विवाह में इस तरह दिलचस्पी न लेने का क्या अर्थ ? पर उन लोगों के किसी भी व्यवहार का मतलब आजकल उनकी समझ में नहीं आता था । फिर एकाएक, शादी का कार्ड मिलते ही, हड़बड़ा कर आ गये वे लोग और बहन उलाहना देने लगी .... "विकास को हमसे एकदम ही पराया कर दिया तूने तो ! सबकुछ भूल भी जाऊँ, पर यह कैसे भूल सकती ह़ूँ कि नौ महीने कोख में रखा है उसे मैंने !" भला यह सब भी कोई बात है ? राधिका ने विकास को बुलाकर सामने खड़ा कर दिया । "पूछ इससे, सारी चिठ्ठियाँ इसने अपने हाथों से पोस्ट की हैं ! मैं तो खुद हैरान हूँ कि तू आई क्यों नहीं ।" जाने क्या था विकास की आँखों में कि बहन की अचानक बोलती ही बंद हो गई, सिटपिटा कर चुप रह गईं । देवर तो शादी में भी नहीं आए, बहन-बहनोई भी केवल दो दिनों में ही लौट गए पर राधिका का घर अब भर गया था । पहले पायल रुनझुनाती मुक्ता आई और फिर दुनिया की समस्त खुशियाँ लेकर यह अनिमेष, मानों जाने कब के रूठे बाल-गोबिंद, उनके आँगन में आ, बाल लीलाएँ करने लगे हों । उनका रोना-खिलखिलाना, ठुमक कर चलना.... जाने कब से सूनी पड़ी हृदय की बगिया लहलहा उठी थी । इसके अलावा विकास और मुक्ता हर समय उनके इर्द गिर्द फिरते, उनकी हर इच्छा का सम्मान करते ! सुखों के आधिक्य से झोली भरी थी पर आँखें हमेशा भर आतीं, यह सब देखने को धीरज क्यों नहीं रुके? अनिमेष के साथ खेलने का सुख उनकी किस्मत में क्यों नहीं रहा ? फिर धीरज क्या गये, जीवन भर के दुलारे भाई बहन ने भी मुँह मोड़ लिया । आखिर कौन सी खता हो गई उनसे कि भाई की मृत्यु होते ही देवर ने उनसे कोई संबंध ही नहीं रखना चाहा ? बहन-बहनोई ही अनिमेष के जन्म पर एक दिन के लिये आए थे, बस ! वे दोनों को लंबी लंबी चिठ्ठियाँ लिखतीं, अंजाने अपराधों की माफी भी माँगतीं .... पर किसी को उनका खयाल क्यों नहीं आता था ? फिर एक दिन देवर-देवरानी आ ही गए थे ! खुशी के आँसू आ गये थे राधिका की आँखों में ! वह क्या जानती नहीं अपने देवर को ? यह सब किसी संपत्ति- वंपत्ति का चक्कर नहीं था । शायद उनसे राय लिए बिना विकास को जल्दबाजी में अपना लिया, उससे नाराज हो गए वो ! पर नाराज तो अपनी भाभी की सुरक्षा को लेकर ही थे न ? इसीसे तो भाई की मृत्यु के समय दबी आवाज में उन्हें अपने साथ ले जाने का प्रस्ताव भी रखा था उन्होंने ! अब जो देखेंगे कि कितना सम्मान देता है विकास उनको, तो कितने खुश होंगे । सचमुच, उनकी संतुष्टि के लिये, उनका एक बार यहाँ आना बहुत जरूरी था । पर यह क्या ? उन लोगों के आते ही घर मानों दो खेमों में बँट गया । देवरानी ने राधिका की सुश्रुशा का सारा जिम्मा अपने कंधों पर उठा लिया और मुक्ता के कामों में अनगिनत दोष निकालने शुरु कर दिये तो मुक्ता अपने आप में ही सिमट सी गई । परिणामस्वरूप तेज स्वभाव और तेज आवाज से देवरानी ने दो ही दिनों में घर का पूरा शासन सँभाल लिया । अजीब मनःस्थिति मे आ पड़ी थीं राधिका .... देवर देवरानी का प्यार मन को भिगो जाता पर जब वही लोग मुक्ता और विकास को कुछ कटु बोलते तो तकलीफ भी बहुत मिलती । जिस अनिमेष को वो दिन भर छाती से लगाए घूमती थीं, उसके गालों पर देवरानी का झापड़ भला कैसे बर्दाश्त होता ? ये, उनकी देवरानी , शुरु से ही थोड़े उतावले स्वभाव की है । कितनी ही बार जब अपने बच्चों को पीट देती थी तो राधिका ही उन्हें सीने से लगाकर चुप कराती थीं । यूँ जहाँ बर्तन होते हैं, कभी-कभार खटक ही जाते हैं सो मन में थोड़ी बहुत नाराजगी भले ही हो, अपना समझती है अनिमेष को, तभी तो गलत जिद के लिये सजा दी । कभी सुना है, कोई किसी पराये को सुधारने की कोशिश कर रहा हो ? फिर देवर को अपने बेटे के व्यापार के लिये सत्तर हजार रुपयों की जरूरत पड़ गई थी । चार-छः महीनों में ही जब वह लौटा देंगें तो उनको ये पैसे दे देने में राधिका को भला क्या परेशानी हो सकती थी ? उन्होंने विकास से कहा कि बैंक से पैसे लाकर अपने चाचाजी को दे दे । देवर मानों आसमान से गिरे थे जब उन्हें पता चला कि रुपये पैसों का सारा भार वे विकास को सौंप चुकी हैं । पति-पत्नी के चेहरे उतर गये थे और वह थीं कि विकास की विश्वसनीयता इसी समय साबित कर देना चाहती थीं । वह रुपए लाने की बात को कल-परसों पर टाल रहा था, और वह आज और अभी माँग रही थीं । क्या हो गया है इस लड़के को? कहीं सचमुच जो देवर कह रहे हैं, वही तो सच नहीं ? पर ऐसा संभव नहीं ! आजतक उनके किसी खर्च की तरफ उँगली नहीं उठाई है विकास ने ! जिंदगी भर बागवानी का इतना शौक रहा है उन्हें कि जब जो नायाब पौधा दिखा, किसी भी कीमत पर खरीद लाईं... आज भी वैसे ही ला रही हैं । धीरज की शुरु की हुई विकलांगों और अनाथ बच्चों की संस्थाओं को अभी भी उसी तरह नियमित मदद जा रही है .... पिछले दिनों महरी की बेटी की शादी भी पूरे धूम धाम से कराई थी उन्होंने .... कभी भी तो पैसा उनके किसी काम, किसी चाह के आड़े नहीं आया था ! वाकई, गाज़ ही गिर पड़ी थी उनके सिर पर जब विकास ने पास बुक और पता नहीं कौन कौन से कागज दिखा दिये कि बैंक में एक पैसा भी नहीं बचा है । देवर गाली-गलौज और मार-पीट पर उतारू हो गये कि उतने रूपये कहाँ गए तो विकास ने ठंढी आवाज में बताया, "गृहस्थी पर खर्च हो गये ।" कितने सारे रूपये थे ..... फिक्स्ड डिपाॅजिट, शेयर , म्यूचुअल फंड, सरकारी योजनाएँ .... वे तो ठीक से जानतीं तक नहीं । तो क्या सचमुच सब विकास के हाथ में सौंप देना गलत हो गया ? ये सेवा, प्यार दुलार ..... सब केवल उनसे रूपये पैसे छीनने का उपक्रम मात्र थे ? अब अपनी जिंदगी के आखिरी दिन उन्हें दूसरों के घर के बर्तन माँज कर गुजारने पड़ेंगें ? अफसोस होने लगा कि जब एक दिन धीरज उन्हें सबकुछ बताना सिखाना चाहते थे तो उन्होंने सीखा क्यों नहीं ? दुनिया भर के लोगों की सीखें एक कान से सुन कर दूसरे कान से बाहर क्यों निकाल देती रहीं ? गुस्से में भरे देवर देवरानी अपना सामान समेट कर लौटे जा रहे थे पर उन्हें होश ही नहीं था । वे तो अपने मकान की रजिस्ट्री के उन कागजों को छिपाकर रखने में व्यस्त थीं जो संयोग से अभी तक उन्हीं के हाथों में बचे रह गए थे । मकान बचा रहा तो कम से कम सड़क पर सोने की नौबत तो नहीं आएगी ! उन्होंने विकास और मुक्ता से बात करनी छोड़ दी थी । अनिमेष पास आता तो उमड़ती भावनाओं को दबा कर मुँह फेर लेतीं । स्वयं ही अपने लिये रोटी बनाने लगी थीं वह, और उस समय में बहते मुक्ता के आँसू उन्हें घड़ियाली लगते । आश्चर्य भी था मन में कि विकास को किसी तरह का व्यसन नहीं, कोई गंदी आदत नहीं फिर उतने पैसे किस चीज में खर्च हुए होंगें ? मुक्ता में भी तो ज्यादा जेवर कपड़ों की चाह नहीं दिखाई पड़ती थी पर क्या पता, कहीं मकान जायदाद खरीद ली हो ? सीने और बाहों का दर्द इधर काफी बढा हुआ था, जरा सी थकान होने पर फूलती साँसों को नियंत्रित करना असंभव होने लगता था और उस दिन तो सुबह से सर भी चकरा रहा था पर क्रोध के कारण किसी को बताया ही नहीं । चक्कर खाकर जो गिरीं तो अस्पताल में ही होश आया । आँखें खुलने पर सामने बदहवास से विकास और मुक्ता को देख कर दुःखी मन को संतोष सा मिला कि चलो, कुछ भी हो पर अभी तक वह अकेली नहीं हुई हैं ! काफी दिनों तक अस्पताल में रहना पड़ा .... दर्द , तकलीफ, जाँचों और डाक्टरों का एक लम्बा सिलसिला चला और फिर पूरा परिवार उन्हें लेकर दिल्ली चला आया । यहाँ भी वही अस्पताल, दवाईयां, डाक्टर , नर्सें, पर किसी ने उन्हें ठीक से बताया ही नहीं कि उन्हें हुआ क्या है । पता तो तब चला जब उनके दिल का आपरेशन सफल हो गया और वह भली चंगी हो गईं । लाखों रुपये खर्च कर दिये थे विकास ने उनके ईलाज पर और वह आश्चर्य से भरी पूछ भी न सकीं थीं कि जब बीमारी पर खर्च करने को इतने पैसे थे तो उस दिन थोड़ी सी रकम के लिये देवर को नाराज कर, सारी बिरादरी में नाक क्यों कटवा ली थी ? देवर की चिठ्ठियाँ लगातार आने लगी थीं कि इतनी धोखाधड़ी के बाद विकास को घर से निकाल देना ही उचित है । और अपने मकान के कागज़ वह सँभाल कर रखें और भूलकर भी अपनी बहन के परिवार के हाथ न लगने दें । एक पत्र में मकान को सुरक्षित करने के लिये उसे अपने बेटे के नाम वसीयत कर देने की सलाह भी दी थी उन्होंने पर राधिका इसबार अपने मन में चुभी एक फाँस को नहीं निकाल पा रही थीं कि इतनी बीमार रहीं वह, देवर-देवरानी न मिलने आए, न हाल ही पूछा ..... कहीं सचमुच सारी रिश्तेदारी लालच तले तो नहीं दब गई है ? फिर विकास ने उनके पैसे भले दबा लिये हों, पर सेवा तो कर रहा था न ? इसके अलावा अब अपना ये मकान अपने हाथों में बचा, आखिरी तुरुप का पत्ता लगने लगा था । यदि इसी लालच में विकास का सान्निध्य मिल रहा है तो इसे अपने ही हाथ में बचाए रखने में क्या खराबी है ? मरने के बाद यह किसको मिलेगा, इससे क्या फर्क पड़ता है ? बिरादरी में विकास की इस बेईमानी की खबर फैलाने में कोई कोर कसर नहीं रखी थी देवर ने ! और आश्चर्य की बात तो ये कि राधिका के इतने-इतने बुलावे के बावजूद जो बहन-बहनोई इतने समय से नहीं आए थे, बदनामी की इस कहानी को सुनते ही बेटी-दामाद, सबके साथ आने का कार्यक्रम बना बैठे । बहुत दिनों के बाद घर में कोई आ रहा था .... राधिका उनका जी भर कर स्वागत सत्कार करना चाहती थीं । सबको उपहारों से लाद देना चाहती थीं । यही कुछ तो उन्होंनें जीवन भर किया था, इसी की आदत थी उनको ! यह भी लगता था कि यह सब खर्च तो विकास के अपने परिवार पर हो रहा है अतः इसमें उसके किसी ऐतराज का तो सवाल ही नहीं उठता ! विकास और मुक्ता अगले दिन भी वे उपहार खरीदने बाजार नहीं गए और उसके अगले दिन भी ..... वे रटती ही रह गईं । यहाँ तक कि बहन का परिवार भी आ गया । सबको खिलाते-पिलाते, बातचीत करते, राधिका के मन में अपनी मजबूरी चुभती रही कि आज ऐसा दिन आ गया जब हाथ में कुछ रुपए तक नहीं बचे .... कि उपहार न दे पाने की सूरत में वह विदाई के समय कुछ नगद ही सबके हाथ पर रख सकतीं ! एक बार फिर विकास के कमरे में बहन-बहनोई कमरा अंदर से बंद कर के बैठे थे । इस बार मुक्ता, उसके ननद-ननदोई, विकास .... सब अंदर थे, बस वही एक अनिमेष को सँभाले बाहर बैठी थीं । मन में फिर एक फाँस सी चुभी कि वे सब तो एक ही परिवार के लोग हैं, बस वही एक पराई हैं जो बाहर हैं । फिर एकाएक ही कमरे में से विकास के जोर-जोर से चिल्ला कर बोलने की आवाजें बाहर आने लगीं । हतप्रभ रह गईं थीं वह, धीर-गंभीर, समझदार विकास को तो उन्होंने कभी किसी पर गुस्सा करते भी नहीं देखा था ...... वह भला इतना अधीर हो, चिल्ला कैसे सकता है ? बेचैन सी दौड़ी गई थीं वह, पर कमरा अंदर से बंद था सो उन्हें दरवाजे पर ही रूक जाना पड़ा था । अंदर आवाजें तेज थीं और एक दरवाजे का आवरण उन्हें छिपा नहीं पा रहा था । गुस्से में भरा हुआ विकास चीख-चीख कर कह रहा था .. "कितनी बार कहा है कि जो मुझे उचित लगेगा, वही करूँगा मैं, फिर क्यों चले आते हैं आप लोग बार बार ?" "क्यों ? सारी मलाई अकेले हड़प कर जाना चाहता है ? क्या तेरे भाई-बहन, माँ-बाप का उसपर कोई हक नहीं ?" यह राधिका की बहन की आवाज थी । "कोई मलाई नहीं खा रहा मैं ! जितना कमा सकता हूँ, उतना ही खर्च कर रहा हूँ । फिर कैसे भाई बहन ? आपने मुझे किसका सगा होने दिया ? क्यों मैं इतना भारी हो गया कि दूसरों को दे डाला गया ? मैं बच्चा तो नहीं था, एक बार भी मुझसे पूछने की जरूरत क्यों नहीं समझी कि मैं आपके लालच पर बलिदान होना चाहता हूँ या नहीं ? मैं तो कहीं का नहीं रहा न, कि जिसका था, उसने निकाल दिया और जिनके पास पँहुचा उनको अपनाना आसान नहीं था ।" विकास ने कहा तो बहनोई की तैश भरी आवाज आई "अरे किस साले ने कहा था अपनाने को और ऐसा हितैषी बनने को ? कितनी बार तो समझाया था कि माल-मत्ता समेट कर अपने घर लौट आओ ।" "किसको कहूँ अपना घर ? किसको धोखा दूँ ? उनको, जो मेरे ऊपर स्वयं से बढकर यकीन करते थे या आपको, जिसने मुझे धोखा देने में कोई कसर नहीं रखी ... या फिर अपने आप को ? चोरी के थोड़े से रुपयों के लिये क्या आपने मुझे बेच नहीं दिया ?" विकास की आवाज में दर्द था । "आया बड़ा हरिश्चंद्र ! इतने ही ईमानदार थे तो आज क्या हो गया ? क्यों छीन लिया बुढ़िया से सबकुछ ? सच पूछ तो पूरा हथिया लेने का लालच है तेरे अंदर जो हमें ऐसे ही टरका देना चाहता है । मरेगी, तो मकान अपने आप तेरे ही नाम हो जाना है ।" बहनोई बेहद क्रोध में थे । सच एकदम नंगा होकर राधिका के सामने खड़ा था .... आज वह अपने आँसू रोकने में स्वयं को असमर्थ पा रही थीं । जी चाहता था सबको धक्के देकर अपने घर से बाहर कर दें और दरवाजा अंदर से बंद कर लें । अंदर बहनोई बोलते जा रहे थे " ब्याह किया, हमें खबर तक नहीं लगने दी । हर समय बुढिया की लल्लो-चप्पो में लगा रहता है ..... क्या हम कुछ समझते ही नहीं ?" "आप कुछ भी समझ सकते हैं पर ..." विकास की आवाज अब इतनी सर्द हो आई थी कि राधिका काँप उठीं । ".... सच यही है कि मैंने उनके जो भी पैसे खर्च किये हैं, सिर्फ उनके ही ऊपर किये हैं । उनके बाकी सारे पैसे अलग अलग योजनाओं में सुरक्षित हैं पर मैंने उनके हाथ में कुछ नहीं छोड़ा है तो सिर्फ आपके और अपने तथाकथित चाचाजी के डर से ! मैं नहीं होता तो आप लोग कबका उन्हें रास्ते का भिखारी बना चुके होते । .... अब रही बात उनकी मृत्यु के बाद की ! विश्वास कीजिये, अगर मेरे और मुक्ता के हाथ पैर सलामत रहे तो हमें उनकी संपत्ति की कोई आवश्यकता नहीं रहेगी । हाँ, उनका वारिस उनका पोता होगा तो उसका हक जरूर बनेगा । आपने मुझे तो किसी का अपना नहीं होने दिया पिताजी, पर अनिमेष उनका है, उसे उनका ही रहने दीजिये ।" बहनोई अभी भी गुस्से में थे । अंदर जाने क्या क्या तर्क कुतर्क चल रहे थे पर राधिका को और कुछ भी सुनने की अब कोई चाह नहीं थी । विकास की बातों की सच्चाई को उनकी अंतर्आत्मा ने पहचान लिया था और उनके लिये यही बहुत था । भीगी आँखों को पोंछते हुए उन्होंने अनिमेष को उठाकर सीने में भींच लिया और अपने कमरे में लौट आईं । मौलिक एवं स्वरचित श्रुत कीर्ति अग्रवाल shrutipatna6@gmail.com  

ishwar satya hai

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