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जाति या मानसिकता?

17 सितम्बर 2020

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जाती या मानसिकता © Vimal Kishore; September 2020

जाति या मानसिकता ?

सबसे पहले तो मैं ये साफ कर देना चाहता हूँ कि इस लेख को पढ़ने से पहले जातिगत मानसिकता, वर्गीय विचारधारा या कोई भी जातिसूचक शब्द, अपने मस्तिष्क से अलग निकाल कर रख दें, क्योंकि मेरा इस लेख को लिखने का अभिप्रयाय ही इस भावना से प्रेरित है कि जाति शब्द, मनुष्य-समुदाय हेतु इस्तेमाल करना ही निरर्थक है। मनुष्य अपने बुद्धि उपयोग के एक उच्च स्तर पर खड़ा है और इस स्तर पर जातिगत सोचना या जातिवाचक शब्द किसी अन्य के लिए इस्तेमाल करना मैं एक अतार्किक व अत्यंत मूर्खता का काम समझता हूँ। वही मूर्खता, जिसके बल पर कई विलक्षण बुद्धिजीवी अपनी स्वार्थपूर्ति सदियों से सरेआम करते आए हैं।

जाति-वर्ग व्यवस्था सदियों से भारत-वर्ष में व्याप्त है। इसलिए हमें उस इतिहास को छूना आवश्यक हो जाता है जिस दौरान इस तथाकथित व्यवस्था का श्रीगणेश हुआ। इस तथ्य का शायद ज़िक्र करना भी ज़रूरी नहीं कि राजमहल से जुड़े लोग क्षत्रिय कहलाए, ज्ञानी वर्ग-ब्राह्मण, व्यवसाय से जुड़े लोगों को वैश्य बताया गया और सभी निम्न कौटि के कार्य शूद्र जाति के लोग करते आए। यह हम सभी के लिए हार्दिक सम्मान का विषय है कि प्राचीन भारत में भी आज ही के समान बुद्धिजीवी, कलात्मक व हुनरमंद लोग मौजूद थे। उदाहरण के तौर पर सुरेन्द्र नाथ गुप्त जी द्वारा लिखित किताब सोने की चिड़िया और लुटेरे अंग्रेज़ में यह प्रामाणिकता व विस्तार के साथ बताया है कि किस तरह भारत को सम्पूर्ण विश्व की औद्योगिक कर्मशाला और व्यापारिक धूरी होने का सुयोग्य यश प्राप्त था। इतिहास पढ़ चुके सभी बुद्धिजीवी समझतें हैं कि अंग्रेजों की गुलामी और उनसे पहले आए लुटेरों की लूटों से पहले, भारत को सोने की चिड़िया क्यों कहा जाता था। भारत सुसंस्कृत, सुदृढ़ व धन-धान्य से लबालब था। विदेशी अपने देशों के रत्न व अन्य कीमती सामान के बदले में यहाँ के खूबसूरत मलमल के ख़रीदार बने।

परंतु हम भारतीय आरंभ से ही विभाजित रहे। और इस विभाजन का मुख्य कारण था-अपने छोटे-छोटे स्वार्थों की पूर्ति। हम लोग व्यवसाय में निपुण थे, कला में निपुण थे, व्यवस्था में भी निपुण थे। हमारी सामरिक क्षमता से विश्व कांपता था। हमारी योजना से विदेशी घबराते थे। लेकिन फिर क्यों हमें तुर्क लुटेरों ने लूटा? क्यों हमें मंगोलों ने लूटा? क्यों हम अफगानों का सामना नहीं कर पाये? और क्यों भारतीय विशाल सैन्य-सामर्थ्य के सामने मुट्ठी भर अंग्रेजों ने हमारी ही धरती पर हमें गुलाम बनाया? इन सभी सवालों की तह में जाने पर एक ही जवाब मिलता है कि हम संगठित नहीं थे। हम लोग शुरू से विभाजित हो कर ही रहे और आज भी हमारे देश की यही विडम्बना है कि हम प्रदेश, संस्कृति, धर्म या जाति के आधार पर विभाजित हैं।

अहमद शाह अबदाली ने युद्ध के दौरान रात में अपने मुखबिर मराठा सेना के शिविर में भेजे। मुखबिरों ने देखा कि मराठा शिविरों में अलग-अलग जगहों से धुआँ उठ रहा है। पास जाकर देखने पर पता चला कि अलग-अलग जाति-वर्गों के चलते सैनिक अलग-अलग गुटों में खाना बना-खा रहे थे। मुखबिरों ने वापिस जाकर जब शाह को यह बात बताई तो शाह बोला-“ जो साथ बैठ कर खा नहीं सकते, वो साथ-साथ लड़ेंगे क्या”? शाह बोला अब हमारी जीत पक्की है”। और सच में ही अहमद शाह अबदाली ने सन 1761 में पानीपत के उस युद्ध को जीत लिया। जब भी किसी बाहरी ताक़त ने भारत को लूटने की हिम्मत दिखाई तो उसने अपना सब से बड़ा हथियार हिंदुस्तानियों की फूट को ही बनाया।

हमारे देश में आए हुए हर लुटेरे ने इस फूट को पहली नज़र में ही भांप लिया और इसी के उपयोग के बल पर हमें लूटा, शोषण किया और राज किया। तुर्कों, अफगानों, और मंगोलों ने हमें लूटा। यहाँ तक की पारसियों ने भी व्यावहारिक कमियों के चलते ही हमें परास्त किया। लेकिन अंग्रेजों ने इस फूट का योजनागत तरीके से दीर्घकालिक लाभ उठाया। उन्होने इस कार्य-व्यवस्था को जाति-व्यवस्था में बेहद गहराई तक बदल दिया। उन्होने इस व्यवस्था को सम्मान व अपमान का प्रश्न बना दिया। जो उनके काम का था उसे सम्मानित और जिनका शोषण करना था उनको अपमानित करने का यह एक आधिकारिक तरीका हो गया। अंग्रेजों को मूल-रूप से भारत को औद्योगिक राष्ट्र से एक कृषि राष्ट्र बनाना था। क्योंकि वे खुद एक कृषि राष्ट्र थे और उद्योग-सम्पन्न बन नहीं पा रहे थे। जाति-व्यवस्था स्थापित करना, इस रास्ते में एक मिल का पत्थर साबित हुई। अंग्रेजों ने भारतीयों के जीवन के हर पहलू को अपनी ज़रूरत के हिसाब से बदल दिया। उन्होने हमारे व्यवसाय का हनन किया। हमारी शिक्षा व्यवस्था बदल दी और यहाँ तक कि हमारे रीति-रिवाजों तक को अपने फायदे के लिए गढ़ दिया, जिसमें जाति-प्रथा को बढ़ावा देकर लोगों में फूट को ज्यादा से ज्यादा बढ़ाना मुख्यतः शामिल था। और इस तरह ये भारतीय माहौल में पूरी तरह घुल गया।

दरअसल विदेशी जानते थे कि मनुष्य का वर्गिकरण अतार्किक है। वर्गिकरण जानवरों का होता है। उनके रूप-रंग और क्षमताओं के आधार पर। मनुष्य जाति का वर्गिकरण या तो एक स्वार्थी सोच का परिणाम हो सकता है या फिर अपरिपक्व व्यवस्था का। भारत में वर्ग-व्यवस्था, कार्य-प्रणाली के व्यवस्थिकरण के लिए बनाई गयी या स्वयं ही बन गयी। ताकि अपनी-अपनी निपुणता के गणित पर सामाजिक व्यवस्था काम कर सके और हर कार्य में बेहतर गुणवत्ता मिल सके। यह सामाजिक व्यवस्था किसी के अपमान या सम्मान की परिचायक नहीं थी। बल्कि कार्य-विशेष की परिचायक थी। जैसे कास्तकार, बढ़ई, मोची या दर्जी। भारत धनाढ्य था। कोई गरीब तो था ही नहीं। राजा भी यहाँ पर साधुत्व ग्रहण कर भिक्षा गृहण करते थे। कोई भी अपने कार्य से परेशान नहीं था। तो फिर जातिगत श्रेष्ठता का तो सवाल ही कहाँ था?

किसी भी इंसान का व्यक्तित्व सिर्फ तीन बातों पर निर्भर करता है।


1। उसके माता-पिता का मूल-व्यक्तित्व कैसा रहा।

2। वह कैसे माहौल में पला-बढ़ा।

3। और किन मूल्यों का सम्मान करते हुए वह वयस्क हुआ।

किसी भी जाति-विशेष का होने की वजह से कोई भी इंसान सम्मान या अपमान की दृष्टि का पात्र हो जाता है’, ये विचारधारा स्वार्थ से ओत-प्रोत, अपरिपक्व व हास्यास्पद है। ये पूरी तरह से अतार्किक है। यह वो विक्षिप्त मानसिकता है, जिसने सदियों से हमें स्वयं के हनन के लिए प्रस्तुत किया और आज भी हमारे देश की प्रगति में बाधक है। अगर एक ही परिवार के सदस्य एक-दूसरे के प्रति दुर्भावना रखें, तो क्या उस परिवार का पतन निकट नहीं? इसी तरह हमारा देश आज भी कई समुदायों में बंटा हुआ है, जिसके रहते आज भी हम लोग अपने देशवासियों के प्रति समभाव नहीं रख पाते। बड़ा सवाल ये नहीं कि कौन किसे दोयम दर्जे का महसूस कराता है या कौन अपने पूर्वजों की रीत निभाते हुए, उस व्यवहार को पी जाता है? बड़ा सवाल यह है कि इसमें सारांश रूप में नुकसान किसका है? और जवाब है:- हमारे समाज का, हमारी अर्थव्यवस्था का, हमारी भारतीयता का और हमारे देश का!

आज का समाज बदल चुका है। हमारे जीने और सोचने के माप-दंड बदल चुके है। नयी मान्यताएँ विकसित हो चुकी है। जीने का ढंग बदल चुका है। आज सूचना विज्ञान की दुनिया है। उपभोक्ता-उत्पादक के रिश्ते की दुनिया है। कार्यकुशल मानव-संसाधन की दुनिया है। और देश व विदेशों के अंतर को निरंतर कम करती आविष्कारों की दुनिया है। आज के समाज में राजाओं के वंशज भी शायद उसी पद पर कार्यरत हो सकते हैं जिस पर किसी शूद्र का वंशज या फिर किसी ब्राह्मण का वंशज। या फिर यह भी होता है कि एक निम्न जाति का मनुष्य उच्च पद पर आसीन हो। उस समय हमें जाति-नियम याद नहीं रहते या फिर पैसे और कुर्सी का प्रभाव, हमें सारे नियम भुला देता है!

सम्मान, गुणों और उपलब्धियों के आधार पर दिया जाना चाहिए, जाति के आधार पर नहीं। व्यक्तित्व, मनुष्य की पहचान है, जाति नहीं। गौद लिए हुए बच्चे की जाति किसको पता होती है? और एक सफल इंसान से उसकी जाति कौन पूछता है? आज की दुनिया में अपडेट बने रहने के लिए, आज की दुनिया की तरक्की में भागीदारी के लिए और इस नयी दुनिया का भरपूर आनंद लेने के लिए, हमें अपनी पुरानी कुछ रीतियों के साथ छोडना ही पड़ेगा, जिसमें जाति-पाती के भेद को भुलाकर, संगठित हो जाना बेहद आवश्यक है।

विश्व के विकसित देश, शायद इसलिए इतनी तरक्की कर पाये, क्योंकि वहाँ कुरीतियों की बाधाएँ नहीं। वहाँ जीवन को संकुचितता देने के बजाए स्वतन्त्रता के साथ ज़िम्मेदारी उठाना सिखाया जाता है। वहाँ भेद-भाव नहीं, बल्कि संगठन और सहभागिता पर आधारित व्यवस्थाएँ हैं। ये कहना गलत होगा कि भारतीय संस्कार-पद्यति में खोट है, लेकिन यह स्वीकारना भी ज़रूरी है कि हमारी निकट पीढ़ियों ने कई अर्थपूर्ण रीति-रिवाजो का अपूर्ण या असंगत प्रचलन चला कर, उन वैज्ञानिक पद्यतियों को अंध-विश्वास और कुरीतियों में तब्दील कर दिया है और आज की पीढ़ी के लिए कई रीति-रिवाज एक बोझ या मजबूरी बन चुके हैं। इसका मुख्य कारण लंबे समय तक अंग्रेजों द्वारा भारतीयों का मानसिक शोषण भी हो सकता है या फिर अचानक मिली आज़ादी की अनुभूति में असंतुलित विचारधारा भी।

लेकिन आज हम फिर से संबल हैं। आज भारत-वर्ष ने इतनी तरक़्क़ी कर ली कि हम सुई से लेकर जहाज़ तक बनाते हैं। आज हमारे अभियंता, चिकित्सक आदि पूरे विश्व में मान्यता प्राप्त है। भारतीय कार्यकुशलता का लोहा माना जाता है। हमारे खिलाड़ी विश्व में नाम रोशन कर रहे हैं और हमारी अर्थव्यवस्था निरंतर दुनिया की पाँचवी अर्थव्यवस्था बनने की ओर अग्रसर है। लेकिन जाति-भेद का घुन आज की युवा पीढ़ी में भी कहीं न कहीं व्याप्त है। आज भी राजस्थान के कई ग्रामों में आपकी जात पूछी जाती है और आज भी हम लोग जाति आधारित या समुदाय आधारित सोच रखतें हैं। आज के शिक्षित समाज में भी हम बंटे हुए हैं। कई टुकड़ों में। आज भी हमारे देश में धर्म, समुदाय या जाति को विवाह की पृष्ठभूमि पर प्रथम प्राथमिकता दी जाती है। और आज भी कई राजनैतिक पार्टियां इस अतार्किक विभाजन का लाभ उठा रही हैं, उसे आग दे रही हैं।

निश्चित तौर पर शिक्षा व शहरीकरण ने जाति-भेद के दुष्प्रभाव को काफी हद तक धूमिल किया है लेकिन ये भी देखना ज़रूरी है कि आज हमारा देश विकसित देशों की श्रेणी में शामिल होने जा रहा है। फिर भी आज़ादी के 69 सालों बाद भी हमारी जाति हमारी पहचान बनी हुई है। ये तथ्य बेहद विचारणीय है कि जब हम व्यक्तिगत तौर पर इतनी तरक्की कर सकते हैं तो संगठित तौर पर दुनिया से आगे निकलना कितना सरल हो जायेगा ? कहा भी जाता है कि 86000 अलग-अलग जीवों या वृक्षों के शरीरों से होते हुए मनुष्य-जन्म प्राप्त होता है। शायद इसका अर्थ यह है कि इस जन्म को जीवों या वृक्षों की तुलना में विशेषतः जीने की हममें भरपूर क्षमता है। लेकिन इस जीवन को भी हम ईर्षा या द्वेष जैसी दुर्भावनाओं के साथ व्यर्थ करने को आतुर रहते हैं।

आवश्यकता है कि मनुष्य के व्यक्तित्व को प्राथमिकता दी जाए न कि उसकी जाति को। आज का शिक्षित व्यक्ति कहीं न कहीं यह जानता है कि जाति-भेद महज एक विक्षिप्त मानसिकता है। लेकिन उसकी भारतीय मानसिकता में बोया गया बीज़, उसको यह स्वीकारने नहीं देता। इसलिए आवश्यकता है कि सभी भारतीय जाति-वर्ग को भूल, आपस में व्यवहार बढ़ाने की कोशिश करें और एक-दूसरे को वास्तविक मूल्यों पर परखें। ज़रूरी यह नहीं कि हम कल के इतिहास को जिये, ज़रूरी यह है कि हम आज नया इतिहास बनाए।

विमल किशोर

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