ब्रह्म-बेला की मंद-मंद बयार में शीतलता का आभास है।होली को बीते अभी एक सप्ताह ही हुआ है ।रात्रि की कालिमा के चिन्ह अभी पूर्ण रूप से लुप्त नहीं हो पाए हैं । पूर्व दिशा से हल्के प्रकाश की आभा का प्रस्फुटन होने लगा है ।
घाट के साथ कल - कल करती नर्मदा नदी का बहाव अपने पूर्ण यौवन के संग गतिमान है। नदी के तट से लगे विशाल वृक्षों की शाखाओं से निद्रा को अलविदा करते पक्षियों के गूंजते चहचहाहट के स्वरों के अतिरिक्त तट निर्जन है। दूर तक नर्मदा के विशाल जल का फैलाव, हल्के झीने प्रकाश की रोशनी में, कालिमा युक्त नील- वर्ण की चादर संदर्श फैला है अथाह जल के दूर का किनारा आकाश में कहीं खो सा गया है ।
नर्मदा जी का, जबलपुर के लम्हेटा घाट तक का सफ़र अमरकण्टक से विस्तार पाता है। अमरकण्टक के नर्मदा-कुंड की गोद से निकली जल-धारा, किसी चंचल बाला की भाँति कल्लोल करती ,कपिल-धारा जल प्रपात से उछलती कूदती, पथरीली चट्टानी भूलभुलैया के वक्र-पथ से होती, रामनगर के ध्वस्त क़िले का स्पर्श करती, मंडला तक आ जाती है। लंबे सफ़र के पश्चात यह चंचल बाला थक सी जाती है। प्रवाह कुछ शांत सा हो जाता है। नर्मदा-कुंड की गोद से निकली चंचल बाला अब धीर गंभीर यौवन युक्त पूर्ण युवती में परिवर्तित हो चुकी है। चंचलता के स्थान पर गंभीर गहराई है। बाँगर नदी के रूप में एक सहेली भी इससे आ मिलती है ।यौवन से परिपूर्ण दो सहेलियाँ जबलपुर तक आते-आते शोख़ हो जाती हैं । यौवन का तूफ़ान तटबंधों को तोड़ता, संपरीली चट्टानों को रौंदता, धुँआधार के गर्जन-तर्जन करते विशाल जल-प्रपात के रूप में प्रस्फुटित हो जाता है। प्रपात का वेग इतना तीव्र है कि उसकी टकराहट से उत्पन्न जल की बूँदें, धवल कोहरे की धुँध सी प्रतीत होती हैं।संभवत इसी कारण जबलपुर के इस जल-प्रपात का नाम धुँआधार पड़ा है ।नर्मदा की उच्छृंखल सी होती जल-धारा धवल संगमरमरी चट्टानों के मध्य से गुज़रते हुए, जबलपुर शहर की सीमाओं का स्पर्श करती एक लंबे सफ़र के पश्चात अरब सागर में समर्पित हो जाती है ।
नर्मदा के इसी लम्हेटा घाट पर, प्रतिदिन की दिनचर्या की भाँति सदानंद स्नान हेतु आया है । सदानंद के आश्रम का ही साथी सच्चिदानंद भी उसके साथ है। सदानंद २४ वर्ष के आसपास का युवक है ।सुगठित लंबा क़द, केश विहीन घुटे सिर पर लंबी-मोटी शिखा लहरा रही है। खिलती ताँबई त्वचा युक्त चेहरे पर लंबी नासिका के दोनों ओर घनी भौंहों के नीचे दो काले नेत्र ब्रह्मचर्य के तेज़ से दमक रहे हैं ।गेरुआ कुर्ते के नीचे सफ़ेद धोती और खड़ाऊँ उसके व्यक्तित्व को तपस्वी की गरिमा प्रदान कर रही है।
सच्चिदानंद ५५ वर्ष की आयु के आसपास का मध्यम क़द का तपस्वी है। उसके गर्दन तक के घने काले केशों से युक्त साँवले चेहरे पर धीर-गंभीर परिपक्वता की छाप है। सफ़ेद धोती और खड़ाऊँ के अतिरिक्त कमर से उपर का शरीर नंगा है, जिस पर पीला यज्ञोपवीत लहरा रहा है।
दोनों तपस्वियों के भिन्न व्यक्तित्वों में एक मुख्य समानता है कि दोनों निराकार ब्रह्म को मानने वाले हैं और दोनों कुछ ही दूर स्थित परमानंद आश्रम के साधक हैं।
इस समय जिस घाट पर दोनों स्नान हेतु आये हैं वह जबलपुर शहर से १६ किलोमीटर की दूरी पर नर्मदा नदी के तट पर स्थित लम्हेटा घाट है ।लम्हेटा घाट से ही लगा इन्द्र गया है। इन्द्र गया से ही पिंड-दान की शुरुआत हुई थी। यहाँ आज भी हज़ारों लोग पिंड दान को पहुँचते हैं। कहते हैं कि लम्हेटा घाट पर ही देवताओं के राजा इन्द्र ने स्वयं अपने पूर्वजों के लिए पिंड दान किया था ।गया जी कुंड के निकट देवराज इन्द्र के वाहन ऐरावत हाथी के पदचिह्नों को आज भी देखा जा सकता है
। पुराणों के अनुसार पृथ्वी के प्रथम राजा मनु ने भी यहाँ पर अपने पितरों का श्राद्ध किया था।
इसी लम्हेटा घाट पर कुम्भेश्वर तीर्थ भी स्थित है ।इसी तीर्थ पर श्री राम ,लक्ष्मण एवं हनुमान जी ने ब्रह्म-हत्या दोष से मुक्ति के लिए २४ वर्ष तप-तपस्या व उपासना की थी ।
इतने सबेरे घाट प्रायः निर्जन सा ही रहता है ।दिन निकलने के साथ ही कुछ कर्मकांड पण्डितों के ठिकाने आबाद होने लगे हैं ।सदानंद एवं सच्चिदानंद ने अब तक अपने अपने वस्त्र उतार दिए थे। पूर्व दिशा से लालिमा लिए प्रकाश छितराने सा लगा है । कुम्भेश्वर मंदिर से घटों के स्वर गूंजने लगे हैं। वृक्षों की शाखाओं से पक्षियों की चहचहाहट के स्वर भी मुखर होने लगे हैं ।
दोनों साधकों ने नर्मदा के किनारे खड़े होकर अपना यज्ञोपवीत हाथ में पकड़ कर माँ नर्मदा की स्तुति की और जल में उतर गए ।जल का प्रथम स्पर्श शीतल था किंतु जल में डुबकी लेने के पश्चात शीत का अहसास जाता रहा था। प्रात: काल का नर्मदा-स्नान सदानंद की नियमित दिनचर्या का अंग है ।सदानंद अच्छा तैराक हैं।सदानंद तैरने का आनंद ले रहा था ।नर्मदा का शीतल जल रात की नींद के आलस्य को स्फूर्तिदायक रक्त संचार में परिवर्तित कर रहा था ।सूर्य की लालिमा का प्रकाश नर्मदा के नीले जल पर झिलमिल आभा के साथ अठखेलियाँ सा करता प्रतीत हो रहा था। सदानंद तैरते हुए नदी तट से दूर निकल आया था ।किंतु सच्चिदानंद नदी तट के समीप ही अपनी प्रतिदिन की स्नान नियमावली को संपन्न करने में संलग्न था।सच्चिदानंद स्नान नियम के पालन हेतु आता था किंतु सदानंद जल- क्रीड़ा आनंद को भी इस नियम में शामिल करने का पक्षधर था ।
सूर्य लालिमा की आभा में अब पीत प्रकाश किरणों का समावेश होने लगा था ।सदानंद मुड़ कर तट की ओर जाना ही चाहता था कि अचानक उसकी नज़र दूर जल की सतह पर छितराई कालिमा पर टिक जाती है ।उसने कौतुहल से नज़रें जमाई तो लगा कि यह काला धब्बा छितराए केशों का गुच्छा सा प्रतीत हो रहा है, जो उसके विपरीत दिशा में बहता जा रहा है । सदानंद ने तेज़ी से तैरते हुए उस ओर गति बढ़ाई। उसने देखा कि दूर से जो काला धब्बा प्रतीत हो रहा था वह वास्तव में छितराए काले केश ही थे जो बहते स्त्री-शरीर के सिर से फैले थे। शरीर जीवित है या मृत इस संशय को दरकिनार करते सदानंद ने एक हाथ से स्त्री को पकड़ा और तेज़ी से तट की ओर गति को दिशा दी।
अब तक सच्चिदानंद स्नान समाप्त कर तट की सीड़ियों पर खड़ा शरीर पोंछ रहा था। कर्मकाण्ड पंडितों के ठिये लगने आरंभ हो गए थे। एक-दो विक्रम-लोडर ड्राइवर भी पंडितों का सामान लोडर से उतार रहे थे।
तट के समीप पहुँचते हुए सदानंद ने चीखते हुए सच्चिदानंद को पुकारा ।पहले तो सच्चिदानंद को समझ ही नहीं आया कि सदानंद उसे ऐसे क्यूँ पुकार रहा है ।किंतु जब सदानंद की तीव्र आवाज़ पुनः कानों पर पड़ी तो आशंकित सा सच्चिदानंद घाट की अंतिम सीढ़ी पर उतर आया।अब तक सदानंद भी तट पर आ चुका था ।हाँफते हुए नारी शरीर को कंधे पर लादे वह घाट की सीढ़ियाँ चढ़ रहा था।
इस अप्रत्याशित नज़ारे को देख ,एक बार तो सच्चिदानंद भी चौंक सा गया । किंतु तुरंत नंगे वदन ही उसने नारी-शरीर को घाट पर पहुँचाने में सदानंद की सहायता की।दोनों साधकों ने नारी शरीर को घाट के फ़र्श पर लिटा दिया ।२०-२२ वर्ष की सुडौल भरे वदन वाली युवती का शरीर था। गौर वर्ण का चेहरा विवर्ण, सफ़ेद, निस्तेज पड़ गया था ।लंबी सुडौल नासिका के नीचे भरे-भरे अधर नीले पड़ चुके थे ।शरीर में कितना जीवन शेष है इस सोच से परे उसे प्राथमिक उपचार देना ही प्राथमिकता थी।अब तक कुछ अन्य लोग , फ़र्श पर पड़े शरीर के चारों ओर घेरा बना कर खड़े हो गए थे। शुद्ध वायु में अवरोध बनें लोगों को सच्चिदानंद परे हटा रहे थे।
ब्रह्मचर्य वृत्त का साधक और नारी शरीर ? किंतु विषय यदि किसी के जीवन से जुड़ा हो तो समस्त निषेध नगण्य हो जाते हैं । सदानंद ने युवती के शरीर को उलटा कर उदर में दबाव बनाया ।पर्याप्त मात्रा में मुँह से जल का निष्कासन हुआ ।शरीर की साँस बहुत ही मद्धिम गति से स्पन्दन कर रही थी ।युवती के मुँह से अपना मुँह सटा कर सदानंद श्वास-निष्पादन क्रिया संपन्न कर रहा था ।सच्चिदानंद युवती की हथेलियों एवं तलवों में घर्षण से ताप संचार कर रहा था ।प्राथमिक उपचार क्रिया व्यर्थ नहीं गई ।युवती की क्षीण होती श्वास अब मध्यम गति से आ-जा रही थी। किंतु शरीर को प्राथमिक उपचार के बाद पूर्ण चिकित्सा की आवश्यकता थी ।घाट के आसपास कोई अस्पताल नहीं था और न ही इतनी सुबह युवती को अस्पताल ले जाने की समुचित व्यवस्था ।
अंततः दोनों साधकों ने युवती को आश्रम ले जाने का निर्णय किया ।आश्रम का निजी चिकित्सा-विभाग आचार्य डाक्टर वरुण की संरक्षिका में पूर्ण रूप से सक्षम था ।युवती को आश्रम के चिकित्सा- विभाग में ले जाने के अतिरिक्त उस समय कोई अन्य विकल्प भी नहीं था। इतनी सुबह युवती को ले जाने कोई अन्य उपयुक्त वाहन न होने से उसे विक्रम लोडर में ही ले जाने का निर्णय लिया गया । आगे ड्राइवर के साथ सच्चिदानंद बैठ गए। पीछे लोडर के फ़र्श पर एकमात्र उपलब्ध सच्चिदानंद की पीत चादर को बिछौना बना दिया गया ।चादर पर युवती को लिटा दिया गया, साथ में सदानंद बैठ गया ।लोडर तेज रफ़्तार से आश्रम की ओर गति पकड़ चुका था । घाट से आश्रम तक की पथरीली सड़क के झटकों से युवती को सुरक्षित रखने के प्रयास में युवती का अग्रभाग सदानंद ने अपनी गोद में कर लिया था ।
काला धुँआ छोड़ता, इंजन की घरघरातीं कर्कश ध्वनि के मध्य पथरीली सड़क के झटकों से हिचकोले खाता लोडर दौड़ रहा था ।अब तक की समस्त क्रियायें इतनी हड़बड़ाहट में हुई कि सदानंद को कुछ सोचने का अवसर ही नहीं मिला ।सब कुछ एक यांत्रिक प्रक्रिया के अंतर्गत घटित होता गया।घाट से आश्रम के सफ़र में अब सदानंद ने गोद में लेटी युवती को ध्यान से देखा । गौर वर्ण की हल्की लालिमा युक्त त्वचा वाली मुखाकृति में बाल-सुलभ निर्दोष भोलेपन की झलक थी । भीगे वदन से चिपके वस्त्रों में नारी के गुप्त उभारों और गोलाइयों को सार्वजनिक करता शरीर सदानंद के ब्रह्मचर्य को जैसे चुनौती दे रहा था ।
सदानंद ने बलात् शरीर से नज़रें हटाईं । वह आकाश की ओर देखने लगा।आकाश में हल्के रुई के गोलों के मानिंद तैरते बादल अनेक आकृतियाँ बना रहे थे । उन आकृतियों में भी उसे लगा जैसे कोई शरीर अपनी गोलाइयों में तैर रहा है ।उपर..नीचे…. लहराता….बस …एक शरीर ।सदानंद ने आँखें मींच लीं , किंतु मन जैसे विद्रोही हो रहा था। लोडर के झटकों से उसने आँखें खोल लीं । पथरीली सड़क पर लोडर झटके खा रहा था। सदानंद ने युवती को झटकों से बचाने के प्रयास में उसे दोनों हाथों से थामा। युवती के वस्त्रों से चिपके उरोज लोडर के झटकों से आलोड़ित हो रहे थे। एक ऊर्जा से भरे युवक के हार्मोन्स की स्वभाविक प्रकृति को भले ही ब्रह्मचर्य के कठोर तप से दवा दिया गया हो, किंतु आज जैसे वह हार्मोन्स विद्रोह को आतुर हो रहे थे। जैसे एक ज्वालामुखी जब तक दबा रहता है तब तक वह निश्चेष्ट एवं शांत प्रतीत होता है किंतु जब वह फटता है तो उस विस्फोट का प्रचंड लावा सब कुछ जला देता है ।
लोडर का यह सफ़र उन शांत दबे हार्मोन्स को उत्तेजित सा कर रहा था जिन्हें प्रकृति के विपरीत अब तक कठोरता से दबा कर रखा गया था। ज्वालामुखी सचेष्ट हो रहा था……एक द्वन्द……परीक्षा की घड़ी……..मेनका का नृत्य…विश्वामित्र का तप…वस्त्रों से चिपके,आलोड़न करते दो भरे-भरे दूधिया उरोज ।
सदानंद ने पुनः नेत्र बंद कर लिए…द्वन्द अपनी पराकाष्ठा पर।एक आकर्षण जो नज़रों को न हटाने को उत्तेजित करता और दूसरा वह तप जो आँख चुराने को बाध्य करता ।इसी द्वन्द के बीच, लोडर आश्रम द्वार से निकलकर आश्रम के प्रांगण में रुक जाता है ।