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24 जून 2022

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स्वतंत्रता प्रिय लोगों की स्मृति में २८ अप्रेल १९७६ का दिन कभी न भूलने वाला दिन था। देश के संविधान का वह वचन-पत्र जो व्यक्ति को न्याय के अधिकार के साथ अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का अधिकार देता है, उसी वचन पत्र के घोर उल्लंघन का दिन था।

न्याय के सर्वोच्च सिंहासन पर पदासीन पाँच वरिष्ठ न्यायाधीशों (जिसमें तत्कालीन मुख्य न्यायाधीश भी सम्मिलित थे) ने हमारे संविधान में निहित व्यक्ति की स्वतंत्रता के अधिकार पर ज़बरदस्त हथौड़ा चलाया था। आपातकाल से घिरे इस काले दिन, उच्च न्यायालय पतन की उस सीमा तक गिर गया जब उसने नागरिक अधिकार के मुख्य ‘हावीस कारपस ‘ नियम की धज्जियाँ उड़ाते कहा - ‘राष्ट्रपति जी के पत्र के संदर्भ में किसी भी व्यक्ति को अधिकार नहीं होगा कि वह किसी भी प्रकार की याचिका कोर्ट में मौखिक या लिखित ‘ हावीस कारपस ‘नियम के अंतर्गत दे सके।

‘हावीस कारपस ‘ नियम के अंतर्गत व्यक्ति न्यायालय में अवैध गिरफ़्तारी या बलात् बंधक बनाए जाने को चुनौती दे सकता है । किंतु कोर्ट आर्डर के अंतर्गत २८अप्रेल १९७६ के दिन से आर्टिकल २२६ (हावीस कारपस) के संदर्भ में व्यक्ति किसी भी प्रकार की गिरफ़्तारी, पूछताछ, बंधक बनाने को या सरकारी आदेश के विरुद्ध न्यायालय में चुनौती नहीं दे सकेगा।

निरंकुश शासन की हथकड़ीयाँ न्याय की लड़ाई लड़ने वालों को भयातुर कर रही थीं। और फिर आरंभ हुआ संपूर्ण देश में गिरफ़्तारियों का बड़ा अभियान। मीका के अंतर्गत ही क़रीब छत्तीस हज़ार गिरफ़्तारियाँ की गई। हर उस आवाज़ को पंगु करने का प्रयास किया गया जिस आवाज़ में आपातकाल की भर्त्सना के स्वर थे।

और आज योग-साधना के मंदिर आनंद आश्रम परिसर के बाहर ख़ाकी वर्दी वालों की गतिविधियाँ सशंकित सी कर रही हैं।किंतु इन गतिविधियों से अनभिज्ञ आनंद आश्रम के क्रियाकलाप सामान्य दिनों की भाँति ही गतिशील थे। सत्संग भवन में गिरिजा महाराज द्वारा कल के प्रवचन राम-राज्य का समापन सत्र संपन्न किया जा रहा है।

श्रोता मर्यादा पुरुषोत्तम राम और राम-राज्य की कीर्ति से अभिभूत हैं। गिरिजा महाराज ने श्रोताओं को संबोधित करते प्रवचन आरंभ किया-“ लोक सेवा ही सत्ता का मूल मंत्र है। राजा की निजी आकांक्षाओं और संबंधों से ऊपर हैं प्रजा की आकांक्षाएँ और अपेक्षाएँ। इसके अतिरिक्त सर्वोपरि है अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता ।

लंका विजय एवं सीता जी कि मुक्ति के पश्चात राम अयोध्या के सिंहासन पर पदासीन हुए। अग्नि-परीक्षा के पश्चात जानकी जी राज-सम्राज्ञी की गरिमा से युक्त सिंहासन की वाम-स्वामिनी बनीं।राज्य की स्वामिनी को प्रजा में राज-माता के रूप में मान्यता प्राप्त होती है। किंतु राज्य के कुछ कोनों में जानकी जी को राज-माता की स्वीकार्यता में संशय के बीज थे। राज दरबार में एक धोबी द्वारा इस संशय पर प्रश्न उठाना इसका उदाहरण था। धोबी तो मात्र एक प्रतीक था प्रजा में व्याप्त असंतोष का।

एक निम्न तबके के नागरिक का भरे दरबार में राज-माता पर आक्षेप, राम राज्य में अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का उत्कृष्ट उदाहरण है। इस अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता को आज के परिप्रेक्ष्य में सोचने पर ही भय लगता है।”

गिरिजा महाराज ने प्रवचन को अल्प-विराम सा देते हुए नेत्र मूँदे और आकाश की ओर हाथ उठाकर नमन किया। श्रोताओं के कंठ से, सत्संग भवन में राजा राम की जय का  नारा गूँज उठा। महाराज ने प्रवचन का सूत्र पकड़ते हुए पुनः कहा -“ प्रजा में व्याप्त संशय का निर्णायक परिणाम बना जानकी जी का राज्य निर्वासन। राम के लिए व्यक्तिगत रूप से यह निर्णय सहज नहीं था।राम के ह्रदय में सीता जी का असीम प्रेम ही था जिसके लिए विपरीत परिस्थितियों में उन्होंने लंका युद्ध लड़ा ।सब से महत्वपूर्ण तथ्य यहाँ यह था कि उन्होंने उस स्थिति में पत्नी का त्याग किया जब वह गर्भवती थीं।राज्य सत्ता में गर्भ, मात्र एक गर्भ ही नहीं होता वरन एक भावी उत्तराधिकारी के उदय की संभावना रखता है । राम के लिए इन सब का त्याग क्या स्वयं के प्रति अत्यंत कठोर निर्णय नहीं था ?

राम के पास यहाँ दो ही विकल्प थे। प्रथम-अयोध्या की सत्ता से स्वयं का त्याग, द्वितीय-लोक मर्यादा हेतु पत्नी सीता का निर्वासन। राम ने लोक-हित में दूसरा विकल्प चुना। स्वयं की इच्छा-अनिच्छा के ऊपर लोक हित को वरीयता दी।

श्रोता राम-राज्य की लोकतांत्रिक परंपरा से मन्त्रमुग्ध थे कि एक युवक ने खड़े होकर प्रश्न किया-“ महाराज सुना है कि इंग्लैंड में किसी राजा ने स्त्री के लिए गद्दी त्याग दी थी ,तो राम ऐसा क्यूँ नहीं कर सके ?”

प्रश्न से महाराज हँसे, पुनः गंभीर होते हुए कहा-“ हाँ यह सत्य है ,इंग्लैंड के किंग एडवर्ड-६ ने सन १९३१ में एक तलाक़ शुदा स्त्री सिम्सन के मोह में सत्ता का त्याग किया था। किंतु एक तलाक़-शुदा स्त्री के लिए सत्ता त्याग की तुलना राम द्वारा लोक-हित में स्त्री त्याग से करना असंगत है। किंग एडवर्ड ने अपनी आकांक्षाओं को सर्वोपरि रखा किंतु राम ने अपनी आकांक्षाओं की अपेक्षा राज्य भावनाओं को सर्वोपरि रखा । राम पर यह आक्षेप भी लगता है कि उन्होंने सीता जी के प्रति अन्याय किया। किंतु सच तो यह है कि सीता त्याग से राम ने अपनी आकांक्षाओं का त्याग कर स्वयं के लिए वेदना को आत्मसात् किया। राम अयोध्या के राजा थे, उनके पास दूसरा विवाह करने का विकल्प खुला था। उनके स्वयं के पिता ने भी पुत्र चाहना में तीन विवाह किए थे। किंतु सीता जी के प्रति उनके ह्रदय का प्रेम ही था जिसके कारण उन्होंने कभी किसी स्थित में दूसरी पत्नी का विकल्प नहीं चुना।

अश्वमेध यज्ञ में भी पत्नी के स्थान पर सीता की मूर्ति को ही रखा किसी अन्य को नहीं । राम-राज्य की परिकल्पना देश में ही नहीं संपूर्ण संसार में सत्ता (राजा ) और प्रजा के मध्य की शासन-व्यवस्था का अनुकरणीय उदाहरण है।

आज देश सत्ता के मोह के चलते……………गिरिजा महाराज का वाक्य पूरा भी नहीं हुआ था कि सत्संग भवन के बाहर बूटों की ठक-ठक की अप्रत्याशित आवाज़ों ने सभा में हलचल सी मचा दी।इससे पहले कि महाराज कुछ समझ पाते एक पुलिस अधिकारी और पाँच-छ: पुलिस वालों ने सभा मंच को घेर लिया। श्रोता किंकर्तव्यविमूढ़ से स्थित को समझने का प्रयास ही कर रहे थे कि पुलिस अधिकारी ने आदेशात्मक स्वर में कहा-“ कोई अपने स्थान से नहीं हिलेगा ।”

आश्रम में अचानक पुलिस को देखकर गिरिजा महाराज भी आश्चर्यचकित से अपने स्थान से खड़े ही हुए थे कि पुलिस अधिकारी ने महाराज को संबोधित करते कहा-“ महाराज आपको मीसा के अंतर्गत गिरफ़्तार करने का आदेश है। आप की मर्यादा का ख़्याल रखते हम हथकड़ी का प्रयोग नहीं कर रहे हैं। भलाई इसी में है कि आप चुपचाप हमारे साथ चलें।”

“क्या राम-राज्य की कथा का प्रवचन भी देश में अब अपराध हो गया ?”-महाराज ने पुलिस अधिकारी से पूछा।

“राम-राज्य की कथा कहना अपराध नहीं है किंतु राम राज्य की आपातकाल से तुलना करके जनता को भड़काना अपराध ज़रूर है ।”-अधिकारी ने रौब जमाते हुए कहा।

यह वाद-विवाद चल ही रहा था कि आश्रम प्रमुख सिद्धेश्वर महाराज, सच्चिदानन्द, डाक्टर वरुण एवं कुछ आश्रम साधक भवन में प्रवेश कर चुके थे। साधकों के हाथों में लाठियाँ थीं तथा वह उत्तेजित से लग रहे थे। माहौल गर्म हो चुका था। पुलसिया सिपाही भी आक्रामक मुद्रा में सतर्क हो गए थे। सिद्धेश्वर महाराज ने विस्फोट होती जा रही स्थित के अंतर्गत पुलिस अधिकारी से शांत मुद्रा में कहा-“ देखिये यह आश्रम ईश्वर साधना का स्थान है। आश्रम का राजनीति से कुछ लेना-देना नहीं है। आप लोग संयम रखिए, मैं डी॰आई॰जी से फ़ोन पर बात करता हूँ।” इस पर पुलिस अधिकारी ने व्यंग्यात्मक हँसी के साथ कहा-“ डी॰आई जी के आदेश से ही हम यह गिरफ़्तारी करने आए हैं।”

इस वार्ता के मध्य श्रोताओं में से कुछ युवक उत्तेजित से उठ खड़े हुए थे। आश्रम साधकों ने भी लाठियों पर पकड़ मज़बूत कर ली थी। पुलिस वाले भी सचेत हो गए थे। माहौल विस्फोटक होने लगा था कि अचानक गिरिजा महाराज ने संयत वाणी में लोगों को संबोधित करते हुए कहा-“ भाइयों आप सब शांत हो जाइए। मुझे जो गिरफ़्तार करने आए हैं इसमें दोष इनका नहीं है। यह लोग उपर से मिले आदेश का पालन भर कर रहे हैं। और फिर एक साधु के लिए क्या महल, क्या जंगल और क्या जेल, सब समान हैं। ईश्वर ध्यान कहीं भी करें, फल तो समान है। कृष्ण जन्म ने जब जेल-भूमि को पवित्र कर दिया तो जेल से परहेज़ क्यों । किंतु मैं प्रार्थना करूँगा कि हे ईश्वर उन्हें सुबुद्धि दे जो राम राज की पवित्र भूमि को जंगल राज बनाने पर तुले हैं ।”

इतना कह कर गिरिजा महाराज पुलिस घेरे में आश्रम के फाटक से निकलकर सड़क पर आ गए। पीछे-पीछे आक्रोशित लोगों की भीड़ चल रही थी। कुछ ही क्षणों में भय और आशंकाओं को गहराती, पुलिस जीप धूल उड़ाती आँखों से ओझल हो गई। आश्रम का सत्संग भवन जो कुछ समय पूर्व तक राम जी के जय घोषों से गूंज रहा था अब पुलिस बूटों से मसले पूजा के फूलों से वीरान नज़र आ रहा था।

इस घटना से विक्षुब्ध एवं अनमना सा सच्चिदानंद चिकित्सा कक्ष के समीप से होता हुआ पुस्तकालय की ओर जा रहा था कि अचानक आती नारी कंठ की आवाज़ से ठहर गया ।

सुनिए ऽऽ…सुनिए…. कोई पीछे से पुकार रहा था। सच्चिदानंद ने पीछे मुड़ कर देखा, जिस लड़की को सदानंद ने नर्मदा से बचाया था , वही लड़की चिकित्सा कक्ष के द्वार पर खड़ी उन्हें पुकार रही थी ।

सच्चिदानंद रुक गये किंतु वह संशय में थे कि क्या यह ‘ सुनिए ‘ संबोधन उनके लिए है। इसी बीच लड़की ने समीप आते कहा -“ यह आश्रम में इतना शोर-गुल क्यों हो रहा था ? यह पुलिस किसे पकड़ कर ले जा रही थी ?”

लड़की को खड़े देख कर सच्चिदानंद सोच रहा था कि दो-तीन दिन पूर्व जो लड़की मृत्यु के द्वार से वापिस आई, वह कैसे इतने सहज भाव से खड़ी है जैसे कुछ हुआ ही न हो।

सफ़ेद चिकित्सा गाउन में भी लड़की का शरीर यौवन की तरुणाई से गमक रहा था। मृत्यु-छाया के अवसाद की हल्की छाप के बावजूद गौर वर्ण चेहरे में एक आकर्षक सम्मोहन था।

सच्चिदानंद सोच ही रहे थे कि लड़की के प्रश्न का क्या उत्तर दें कि इसी बीच लड़की ने पुनः कहा-“क्या आप ही सदानंद हैं ?”

सच्चिदानंद ने सपाट सा उत्तर दिया-“ नहीं ! मैं सदानंद नहीं सच्चिदानंद हूँ।”

“ओहऽऽ ! तो वह आप ही थे जो सदानंद जी के साथ घाट से मुझे यहाँ तक लाए थे। किंतु सदानंद जी कहाँ हैं ?”- लड़की ने उत्सुकता से पूछा ।

“समय आने पर आपके सब प्रश्नों का उत्तर मिल जाएगा। अभी बेहतर होगा कि आप जाकर विश्राम करें।”

“नहीं, मैं अब ठीक हूँ , किंतु आश्चर्यचकित हूँ कि जिसने मुझ जीवन दिया या कहूँ कि जिसने मुझसे मेरा मरने का अधिकार छीना , वह एक बार भी देखने नहीं आया कि उसके द्वारा किए उपकार का क्या अंजाम हुआ ?”

“किंतु आप को पूर्ण चिकित्सा तो मिल रही है।” - सच्चिदानंद ने सहज भाव से कहा।

“बात चिकित्सा की नहीं है, बात उसकी है जिसने मुझे मरने से बचाया ।क्या मैं हाड़-मांस का एक शरीर भर हूँ कि उस पर उपकार करो और भूल जाओ। मुझे आश्चर्य है कि कोई कैसे भला किसी के प्रति इतना उदासीन हो सकता है ।”

“एक संन्यासी के मन में क्या है ,इस विषय में मैं क्या टिप्पणी कर सकता हूँ। ”-लड़की की उत्तेजना से निर्विकार, सच्चिदानंद ने शांत भाव से तर्क दिया। तत्पश्चात् वह तेज़ी से पुस्तकालय की ओर प्रस्थान कर गया।

लड़की ऐसे ही असमंजस की मुद्रा में खड़ी सच्चिदानंद को जाते देखती रही।उसका मन अधीर है अपने उस प्राण-रक्षक से मिलने को जो आश्रम के संसार में कहीं खो गया है।

उधर अपने ऑफिस में सिद्धेश्वर महाराज चिंतातुर से बैठे हैं। योग-साधना के इस केन्द्र में आज पहली बार पुलिस के पैर पड़े थे। एक सम्मानित ज्ञानी साधक का यूँ गिरफ़्तार होना आश्रम के लिए साधारण घटना नहीं थी। गिरिजा महाराज को कितने अमानुषिक तरीक़े से पुलिस ले गई और वह असहाय से कुछ न कर सके।

उनकी चिंता का दूसरा कारण वह लड़की थी जिसे सदानंद ने बचाया था।लड़की का आश्रम में आना चिंता का विषय नहीं था, चिंता का विषय है लड़की का गर्भवती होना। एक अनब्याही गर्भवती लड़की आश्रम की मर्यादा के लिए प्रश्न-चिन्ह बन सकती है। देश में व्याप्त तनावपूर्ण माहौल में कोई भी बखेड़ा खड़ा हो सकता है। उन्हें जल्द ही कोई कठोर निर्णय लेना होगा ।

इंसानों की यह धरती बहुत कुछ सह रही है, किंतु फिर भी अपनी धुरी पर निरंतर घूमती दिन-रात के चक्र की निरंतरता बनाए हैं। चिंताओं के अनेक प्रश्नों को समेटे आश्रम का यह दिन भी अपने अवसान पर है।

रात्रि के अँधियारे में पहाड़ी के किसी वृक्ष के नीचे सदानंद अपने अंतर में उपजे वासना के ज्वार से मुक्ति की प्रक्रिया में समाधिस्थ बैठा है।

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रचनाएँ
उद्बोधिता
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उगते सूर्य की किरणों से झिलमिल करती माँ नर्मदा की लहरों पर बहता मृत प्रायः युवा नारी शरीर…..क्या उसमें जीवन शेष था ? …….. सदानंद बाल-ब्रह्मचारी है।सांसारिक बंधनों से मुक्त होते हुए भी वह एक ऐसी परीक्षा से गुजरता है जो ब्रह्मचर्य के निषेधों पर प्रश्न चिन्ह खड़े करता है ।…… प्रेम जीवन का शाश्वत सत्य है ।प्रेम ह्रदय से उपजता है किंतु ह्रदय शरीर का एक अंग ही है ।प्रकृति ने शरीर में ही वह हार्मोंस भी दिए हैं जो युवा होते शरीर में विपरीत लिंग के प्रति आकर्षण उत्पन्न करते हैं ।क्या प्रकृति गत आवेगों को बलात् दबाना उचित है ? यह ऐसा ही है जैसे वर्षा में शांत नदी का जल उफान लेने लगता है ।बाढ़ आ जाती है ।बाढ़ के जल से सुरक्षा हेतु ,बाँध बाँधने पड़ते हैं ।समाज को मर्यादित करने के लिए ही प्रकृति गत हार्मोन को नियंत्रित करने को ब्रह्मचर्य रूपी बाँध की कल्पना की गई। नारी ,प्रेम और ब्रह्मचर्य के त्रिकोण में उलझी कहानी हर पल एक नये मोड़ से गुजरती है ।बियाबान जंगल में जीर्ण-शीर्ण से खंडहर मंदिर का वह अघोरी क्या प्रश्नों के उलझे धागों को खोल पाया ? यौवन की सीड़ियों पर कदम रखती मानसी ने पहले भी प्रेम किया था ।किंतु यौवन की उम्र का प्रेम, मन की गहराइयों से न होकर शरीर के उथले धरातल से उठा आवेग भर था ।यौवन की बेल प्रायः उस वृक्ष पर लिपट जाती है जिसे नज़दीकियों का संयोग मिल जाये।इसी भूल की सजा मानसी ने पाई थी।जिसे उसने प्रेम समझा था वो यौवन का उद्दीपन भर था ।आज समाज से तिरस्कृत, दीन-हीन स्त्रियों की सेवा में उसने प्रेम को जान लिया है ।प्रेम और उद्दीपन का अंतर पहचान लिया है । डूबती किश्ती को उबारा क्यूँ था ? लहरों में समाई , तो सहारा क्यूँ था ? दिया ग़र सहारा ,तो बेसहारा क्यूँ था? मन की माटी में रोपे उम्मीदों के बीज , जमीं का वह टुकड़ा,बंजर क्यूँ था ?
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समर्पण

25 जून 2022
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पुस्तक का प्रथम समर्पण मेरे आराध्य श्री राम एवं बजरंग बली जी को। द्वितीय समर्पण उन मनीषियों एवं पाठकों को जिनके प्रोत्साहन से हिन्दी भाषा की लौ निरंतर प्रकाशमान हो रही है । मैं आभारी हूँ श्रीमती कमले

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हम क्यों लिखते हैं ? मैं लिखता हूँ, क्योंकि कहने को बहुत कुछ है । जीवन की लंबी मैराथन दौड़ से हासिल अनुभवों का पिटारा भर गया है मेरे दिल और दिमाग़ में । मन करता है कि अपनी भावनाओं को अपने अनुभवों को ल

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उगते सूर्य की किरणों से झिलमिल करती माँ नर्मदा की लहरों पर बहता मृत प्रायः युवा नारी शरीर…..क्या उसमें जीवन शेष था  ? …….. सदानंद बाल-ब्रह्मचारी है। सांसारिक बंधनों से मुक्त होते हुए भी वह एक ऐसी परीक

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ब्रह्म-बेला की मंद-मंद बयार में शीतलता का आभास है।होली को बीते अभी एक सप्ताह ही हुआ है ।रात्रि की कालिमा के चिन्ह अभी पूर्ण रूप से लुप्त नहीं हो पाए हैं । पूर्व दिशा से हल्के प्रकाश की आभा का प्रस्फुट

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मुख्य शहर से १६-१७ किलोमीटर दूर ,नर्मदा के लमहेटा घाट से २ किलोमीटर दूर स्थित परमानंद आश्रम एक बड़े भू-भाग में फैला है। साधकों के लिए साधना का उपयुक्त वातावरण प्रदान करने वाली, प्रदेश की प्रमुख आध्यात

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राइट-टाउन का सुनीता-विला नाम का वह मकान जो कपिल अवस्थी के सच्चिदानंद बनने के पश्चात से वीरानी का दंश झेल रहा था, आज पुनः आबाद हो गया है । दिन के १२ बजे सुनीता-विला के आगे टैक्सी रुकी।कपिल अवस्थी के लि

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“ऐकला चलो रे“ की लीक पर चलते सदानंद की मुहिम का परिणाम कोई ख़ास उत्साह वर्धक नहीं रहा था । मोहल्लों, गलियों एवं बाज़ारों की धूल फाँकने के पश्चात भी लोगों की जेब से चंदा-उगाही की कोशिशें कुछ फलीभूत नही

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जबलपुर का फुहारा चौक । त्रिपुरा कांग्रेस अधिवेशन का स्मृति-द्वार  (सुभाष चन्द्र बोस ने 1939 में कांग्रेस से इस अधिवेशन में त्याग पत्र दिया था) सिर उठाये खड़ा है । इसी फुहारा चौक में १०-१२ साइकिलों पर

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समारोह में जाने से पूर्व मानसी प्रसन्न एवं उल्लासित थी । मन के किसी कोने में उसे यह अहसास था कि वह सदानंद के लिए विशिष्ट है । वरना कोई क्यों किसी अनजान लड़की के लिए परमानंद आश्रम व्यवस्था के विरुद्ध व

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