मुख्य शहर से १६-१७ किलोमीटर दूर ,नर्मदा के लमहेटा घाट से २ किलोमीटर दूर स्थित परमानंद आश्रम एक बड़े भू-भाग में फैला है। साधकों के लिए साधना का उपयुक्त वातावरण प्रदान करने वाली, प्रदेश की प्रमुख आध्यात्मिक संस्थानों में से एक है यह परमानंद आश्रम। आश्रम में साधकों के लिए ध्यान-कक्ष ,यज्ञशाला,सत्संग-भवन, चिकित्सा-कक्ष, पुस्तकालय, बड़ा सभागार एवं आवास की समुचित व्यवस्था है ।
यह आश्रम अतीत में अनेक सिद्ध साधकों की साधना स्थली रहा है। आश्रम दो भागों में विभक्त है। विशाल भू-भाग पर फैला मुख्य भाग है जिसमें कार्यशाला, पाकशाला, गोशाला, एवं जन-साधारण के लिए सत्संग सभागार आदि स्थित हैं। आश्रम का द्वितीय-भाग, मुख्य भाग के अंदर सड़क-भाग से जुड़ा पहाड़ी पर स्थित निर्जन भू-भाग है। यहाँ चारों ओर हरियाली एवं ऊँचे घने वृक्षों का वातावरण है। शहरी बस्तियों के कोलाहल, प्रदूषण एवं यातायात की ध्वनियों से मुक्त यह पूर्ण रूप से शांत भू-भाग है। मुख्य साधना स्थलियाँ इसी भाग में स्थित हैं। यहाँ साधकों के रहने के लिए कुटियाओं की तथा अन्य सुविधाओं की व्यवस्था है। नीचे का मुख्य भाग भी दो भागों में विभक्त है। मुख्य भाग के अंदर ही दीवारों से घिरा एक छोटा भाग है जो स्त्री-कक्ष कहलाता है। यहाँ साधिकाओं के निवास आदि की समुचित व्यवस्था है ।
आश्रम प्रमुख पद पर गुरुदेव सिद्धेश्वर महाराज पदासीन हैं। महाराज जी ७० वर्ष की आयु के लंबे छरहरे गौर वर्ण के साधक हैं । विगत दस वर्षों से आश्रम-प्रमुख के पद पर पदासीन है । आजन्म ब्रह्मचारी सिद्धेश्वर महाराज ज्ञान के भंडार हैं। हिन्दी-अंग्रेज़ी के अतिरिक्त कई प्रादेशिकी भाषाओं पर भी उनकी अच्छी पकड़ है । चेहरे पर की सौम्य मुस्कान का भाव उनके व्यक्तित्व के दया, क्षमा एवं सेवा भाव को दिखलाता है। किंतु जहाँ उनका सरल व्यक्तित्व प्रत्येक के लिए उदार है वहीं वह प्रशासनिक नियम क़ायदों को कठोरता से निभाने के पक्षधर हैं।
आश्रम की समस्त व्यवस्थाओं को सुचारू रूप से चलाने के लिए ज्योति स्वरूप आश्रम के मंत्री हैं । ज्योति स्वरूप ६५ वर्ष के आस-पास की आयु के धीर-गंभीर व्यक्ति हैं। इससे पूर्व वह मध्यप्रदेश के अनेक विभागों में प्रशासनिक अधिकारी के पदों पर रहे हैं । रिटायरमेंट के बाद वह आश्रम से जुड़ गए । आप सरल स्वभाव के कर्मठ कार्यकर्ता हैं ।
चिकित्सा विभाग प्रमुख डाक्टर आचार्य वरुण जी है। आप गवर्नमेंट अस्पताल के मेडिकल आफ़िसर पद से सेवानिवृत्त हैं। इन सब के अतिरिक्त भी आश्रम के अन्य विभागों के प्रमुखों एवं कार्यकर्ताओं की बड़ी संख्या आश्रम की गतिविधियों को सुचारू रूप से चलाने में सक्रिय रहती है।
प्रातः चार बजे से आश्रम की गतिविधियों का सूत्रपात हो जाता है ।सिद्धेश्वर महाराज एवं डाक्टर वरुण आश्रम में ही निवास करते हैं ,किंतु मंत्री ज्योति स्वरूप आश्रम के बाहर अपने परिवार के साथ रहते हैं । ज्योति स्वरूप भी प्रात: आठ बजे तक आश्रम आ जाते हैं।
आज भी आश्रम की दैनिक दिनचर्या अन्य दिनों की भाँति सामान्य रूप से संचालित हो रही है। भजनों की स्वर-लहरी के मध्ययोग ध्यान कक्ष से ओंकार की ध्वनियाँ गूंज रही हैं। इसी बीच सच्चिदानंद ने आश्रम में प्रवेश किया। चिंतातुर चेहरे और हड़बड़ी में उसने सिद्धेश्वर महाराज से संपर्क किया । कुछ देर तक दोनों में वार्ता होती है। सिद्धेश्वर महाराज स्थितियों से अवगत होते हैं। किसी अनजान युवती के नर्मदा में डूबने और सदानंद द्वारा उसे बचाने की घटना से वह अवगत होते हैं। किंतु अचेतावस्था में बाहर विक्रम लोडर में पड़ी युवती के आश्रम प्रवेश को लेकर उनके माथे पर चिंता की लकीरें खिंच जाती हैं। महाराज जी के मत में इसे पुलिस केस होना चाहिए, उपर से देश में इन दिनों इमरजेंसी लगी है। किंतु यहाँ प्रश्न किसी के जीवन से जुड़ा था। ऐसी परिस्थिति में, आश्रम चिकित्सा कक्ष में युवती के प्रवेश के अतिरिक्त कोई विकल्प भी नहीं सूझ रहा था । अंततः उन्होंने युवती को आश्रम में लाने का आदेश दे दिया । इसके तुरंत बाद उन्होंने एक कार्यकर्ता को डाक्टर वरुण को सूचना देने को भेज दिया ।
आदेश मिलने के तुरंत बाद सदानंद ने कुछ लोगों की सहायता से युवती को लोडर से लाकर चिकित्सा कक्ष के बाहर रखी बेंच पर लिटा दिया। युवती के शरीर में हल्का कंपन था तथा वह मध्यम स्तर में कराह रही थी। डाक्टर वरुण ने अपनी सहायिका की मदद से युवती को चिकित्सा कक्ष के अंदर लिया ।सिद्धेश्वर महाराज भी स्थिति के अवलोकन हेतु कक्ष में उपस्थित रहे। कक्ष का द्वार बंद कर दिया जाता है।
प्राथमिक उपचार एवं कुछ औषधियों के पश्चात युवती धीरे-धीरे चेतन होने लगी है ।चिकित्सा कक्ष के अंदर लड़की की चेतना में निरंतर सुधार परिलक्षित हो रहा है ,किंतु कक्ष के बाहर सदानंद आत्मग्लानि से त्रस्त इधर-उधर टहल रहा था। उसकी ग्लानि युवती को लेकर नहीं, स्वयं को लेकर थी। आज जीवन में प्रथम बार उसके ब्रह्मचर्य की दीवार में दरार आ गई थी अपने जिस मर्यादित संकल्प पर उसे नाज़ था वह कहीं खंडित हुआ सा प्रतीत हो रहा था। संभवत अब तक वह किसी ऐसी परीक्षा से गुज़रा ही नहीं था जो संकल्पों का वास्तविक मूल्यांकन कर पाती।
हम क्या हैं ? इसका मूल्यांकन तो परीक्षा से गुजरने के पश्चात ही हो पाता है। हम सज्जन हैं या दुर्जन, पापी हैं या पुण्यात्मा, सदाचारी हैं या कामुक, निष्कपट हैं या लोभी -इनका वास्तविक आँकलन मनुष्य को नहीं होता। बस ऐसा ही कुछ होने का भ्रम हम पाल लेते हैं। जब किसी ऐसे धन का जो हमारा नहीं, कोई ऐसी वस्तु जो पराई हैं या फिर पराई नारी, हमें यदि सहज सुलभ प्रलोभन का अवसर प्रदान करती है ,तो यही है वो परीक्षा की घड़ी जिसमें हमारा सही आँकलन होना है ।परीक्षा से गुजरने के पश्चात ही हम कह सकते हैं कि हम क्या हैं और क्या नहीं ।
सदानंद भ्रमित है। स्त्री के मांसल शरीर के अंगों का स्पर्श उसकी चेतना में छाया है। किंतु साथ ही आत्मग्लानि उसे प्रताड़ित कर रही है।
सदानंद को याद है जब इस आश्रम में प्रवेश पाए उसे मात्र छ: महीने हुए थे ।उस समय सदानंद की आयु १२ वर्ष के आस-पास थी।वयोवृद्ध स्वामी श्रद्धानंद महाराज उन दिनों आश्रम प्रमुख थे।उन दिनों यह आश्रम पहाड़ी पर स्थित एक छोटा आश्रम था। घने वृक्षों के साये में स्थित साधकों की चंद कुटियाओं एवं एक सीमेन्ट की इमारत के अतिरिक्त कुछ नहीं था। सदानंद स्वामी जी के सानिध्य में तप और योग की शिक्षा के साथ विद्या अध्ययन भी कर रहा था ।स्वामी जी प्रेम की प्रतिमूर्ति थे किंतु नियम-क़ायदों में अत्यन्त कठोर।
घटना उन्हीं दिनों की है। सदानंद को खाने में गुड़ बहुत प्रिय था। भोजन के पश्चात वह प्रायः रसोइये महाराज से गुड़ माँग कर खा लेता था। रसोई बनाने वाले महाराज को भी उसकी इस आदत का पता था। छोटा बच्चा जानकर महाराज स्वयं ही भोजन के बाद उसे गुड़ दे देते थे।यद्यपि ऐसा कोई भी व्यसन पालना साधकों की आचार संहिता के विपरीत था ।जिसका गुरू जी अपने प्रवचनों में प्रायः उल्लेख भी किया करते थे ।
किंतु बात सिर्फ़ इतनी भर नहीं थी। उस दिन आश्रम में एकादशी का व्रत था ।रसोई घर का चूल्हा ठंडा था । रसोइया महाराज नीचे शहर की ओर कार्य वश गए थे। ऐसे समय सदानंद के बाल-सुलभ चंचल मन में गुड़ खाने की उमंग उठी।सदानंद ने इधर-उधर देखा…भंडार घर सूना था सदानंद को ज्ञात था कि महाराज जी रसोई घर में गुड़ कहाँ रखते हैं।सदानंद ने चोरी से चुपचाप एक गुड़ की डली उठाई और निर्जन वन में एक वृक्ष के नीचे अपनी जीभ के स्वाद को तृप्त किया ।
किंतु समय गुजरने के साथ चोरी से प्राप्त किया गया स्वाद-आनंद , सदानंद के मन को कचोटने लगा।बार-बार उसका मन उसे इस चोरी के लिए धिक्कार रहा था । आत्मग्लानि इतनी बढ़ी कि अगले दिन वह सिर झुकाए श्रद्धानंद महाराज के सम्मुख जा खड़ा हुआ ।
महाराज जी ने उसे इस मुद्रा में खड़े देखा तो पूछा-“ पुत्र कुछ कहना है ?”
१२ वर्षीय बालक सदानंद बिलख-बिलख कर रो पड़ा था ।
“शांत हो जाओ पुत्र । जो भी कहना है बेख़ौफ़ कहो ।”-महाराज जी ने शांत मुद्रा में सदानंद के सिर पर हाथ रखते उसे आश्वस्त करते कहा।
सदानंद ने चोरी से खाए गुड़ की कथा सुबकते हुए सुनायी और सिर झुकाए खड़ा रहा।
स्वामी जी बालक की निश्छलता से की गई इस अपराध स्वीकारोक्ति से अभिभूत हो गए ।उन्हें लगा यह बालक साधारण नहीं है ।जिस निडरता से इसने अपने कृत्य को स्वीकारा है वह प्रायः वयस्कों से भी अपेक्षित नहीं होता ।
लोग जीवन भर अपने अपराध कृत्यों को मन में दबाये अपराध भावना से त्रस्त रहते हैं। यही अपराध भावना आगे चल कर डिप्रेशन का रूप ले लेती है । संभवत इसी विचार को ध्यान में रखते चर्चों में कन्फ़ेशन की पद्धति का चलन है ।स्वीकारोक्ति से मन निर्मल हो जाता है ।
स्वामी श्रद्धा नंद ने बालक सदानंद को पास बैठाया, तत्पश्चात् उन्होंने कहा- “गुड़ खाने में बुराई नहीं है, बुराई है मन का किसी व्यसन का दास बन जाना। योग -साधना मन के नियंत्रण की प्रथम सीढ़ी है। आयु में तुम अभी छोटे हो। आगे चलकर मन नियंत्रण साधना का लंबा रास्ता तुम्हें तय करना है । इस पर भी यदि तुम्हारा ह्रदय चोरी-पाप से पीड़ित हैं तो जाकर उपवास करो।
आज इतने वर्षों बाद अपने अंदर की आत्मग्लानि उसे कठघरे में खड़ा कर रही है ।मन एक बार पुनः चंचल हो उठा था ।सदानंद क्या करे ? आज प्रेम की प्रतिमूर्ति स्वामी श्रद्धा नंद महाराज भी नहीं हैं जिनसे मार्गदर्शन प्राप्त किया जा सके।सदानंद ने मन में स्वामी जी का स्मरण किया…. कहीं जैसे कोई उसे निर्देश दे रहा था….एकांतवास…ध्यान ….उपवास…।
आश्रम के मंत्री ज्योति स्वरूप के ऑफिस का दरवाज़ा बंद है।अंदर सिद्धेश्वर महाराज ,आचार्य डाक्टर वरुण एवं मंत्री ज्योति स्वरूप के मध्य मंत्रणा हो रही है । ऑफिस के द्वार बंद होने का अर्थ है कि किसी गंभीर समस्या पर मंत्रणा चल रही है ।
आश्रम के सत्संग भवन में आज हरिद्वार से पधारे स्वामी गिरिजा महाराज का सत्संग प्रवचन चल रहा है ।सौ-डेढ़ सौ श्रद्धालु जिसमें शहर के जन साधारण एवं आश्रम में रह रहे साधक सम्मिलित है ।
आज प्रवचन का विषय राम-राज्य से संबंधित है -“ राम यों ही मर्यादा पुरुषोत्तम नहीं कहे जाते।राम अपने ह्रदय की समस्त वेदनाओं को आत्मसात् किये सदैव मर्यादाओं में बँधे रहे।उन्होंने स्वयं की विपदाओं की अभिव्यक्ति कभी नहीं की ।सदैव मुस्कुराते हुए जीवन की आपदाओं को झेला।यदि राम के संपूर्ण जीवन की विवेचना करें तो उनका जीवन हर पल संकटों से घिरा रहा ।
“एक राजकुमार जिसके राज्याभिषेक की उद्घोषणा की जा चुकी थी । किंतु अचानक उसे राज्य निर्वासन एवं १४ वर्षों के लिए वन गमन का आदेश मिले तो कैसी प्रतिक्रिया की अपेक्षा की जा सकती है ?“
गिरिजा महाराज ने श्रोताओं की ओर प्रश्न उछाला ।श्रद्धालु श्रोताओं की फुसफुसाहट के मध्य उन्होंने पुनः प्रवचन को धार दी-“ राम के ह्रदय में भी आकांक्षाएँ और भावनाएँ रही होंगी ।किंतु उन्होंने किसी भी स्तर पर माँ केकई की भर्त्सना नहीं की ।बिना किसी को कटघरे में खड़ा किए पिता के आदेश का पालन किया ।
सजि वन साजु समाजु सबु बनिता बंधु समेत ।
बंदि बिप्र गुर चरन प्रभु चले करि सबहि सचेत ।।
चढ़ि रथ सीय सहित दोउ भाई ।
चले ह्रदय अवधहि सिरू नाई ।।
राम ने पिता के आदेश की मर्यादा रखते हुए एक झटके में राज्य सत्ता का मोह त्याग दिया। किंतु आज देश में क्या हो रहा है ? देश में लगा आपातकाल क्या सत्ता के मोह का उदाहरण नहीं है। इस सत्ता के मोह के चलते कितने निर्दोष लोगों को प्रताड़ित करके जेलों में ठूँसा जा रहा है। जनता की आवाज़-प्रेस को पंगु कर दिया गया है ।
यह कैसा सत्ता का मोह ? एक दिन जो सब कुछ यहीं रह जाना है, उसके लिए यह मोह ?
हे राम उन सब को सदबुद्धी दो जो आपके दर्शाए मार्ग से भटक गए हैं ।”
गिरिजा महाराज ने आकाश की ओर देखा, पुनः प्रवचन की डोर थामते हुए कहा-
“आये हैं तो जाएँगे, राजा, रंक, फ़क़ीर ।
एक सिंहासन चढ़ि चले एक बंध जाए ज़ंजीर ।।
किंतु प्रारब्ध के वशीभूत राम को अभी अनेक कठिन परिस्थितियों से गुजरना होगा । वन की कठिन परिस्थितियों में उनकी पत्नी का हरण हो जाता है। किंतु राम ने इस विकट समय में भी अपना धीरज एवं संयम नहीं खोया। मनुष्य के संयम की पहचान कठिन परिस्थितियों में ही होती है। साधनहीन दो भाई वन के रास्ते सीता को खोजते ३००० किलोमीटर दुर श्रीलंका तक जा पहुँचे । रावण वध के बाद लंका विजय की। सोने की लंका किसी भी विजयी राजा को वहाँ की सत्ता के मोह में बांध सकती थी । किंतु यहाँ भी उन्होंने स्वयं सत्ता का लोभ न कर रावण के छोटे भाई को सत्ता सौंप दी ।
कहीं भी सत्ता का लेशमात्र भी मोह नहीं । राज्य की सत्ता प्रजा की भलाई के लिए होती है। किंतु आज सत्ता के मोह का नंगा नाच प्रजा को भयाक्रांत कर रहा है। इतना कह कर गिरिजा महाराज ने नेत्र मूँद लिए। निकट ही बैठे आश्रम के साधक ने घोषणा की-“ आज का प्रवचन यहीं समाप्त होता है, प्रवचन के शेष भाग का समापन स्वामी जी कल करेंगे।
आश्रम की गतिविधियाँ सामान्य दिनों की भाँति ही गतिशील हैं। किंतु अंदर ही अंदर सब कुछ सामान्य नहीं है ।
सच्चिदानंद के ह्रदय में उस युवती के लिए चिंता है जिसे लमहेटा घाट से आश्रम तक लाने में वह सहयोगी रहा। वह स्थितियों को जानने को आकुल है किंतु कोई कुछ नहीं कह रहा। सदानंद इस संपूर्ण परिदृश्य से अचानक कहीं अंतर्ध्यान सा हो गया है । जिसने युवती को नर्मदा की लहरों से खींचकर जीवन दान दिया उसका अचानक यों लोप हो जाना सच्चिदानंद को आश्चर्यचकित कर रहा है।
सिद्धेश्वर महाराज अपने ऑफिस में चिंतातुर से बैठे हैं । कमरे की मीटिंग में मंत्री ज्योति स्वरूप का एक-एक शब्द उन्हें चिंता में डालने को पर्याप्त था। डाक्टर वरुण ने कहा था कि लड़की ख़तरे से बाहर है, जल्दी ही पूर्ण स्वस्थ हो जाएगी। किंतु इसके बाद जो रहस्योद्घाटन उन्होंने किया उससे कमरे में जैसे विस्फोट सा हो गया था। डाक्टर वरूण ने कहा था कि उन्हें संदेह है कि लड़की के उदर में गर्भ पल रहा है । लड़की के विवाहित होने का कोई चिन्ह उसके शरीर पर उन्हें नज़र नहीं आता।
एक क्वाँरी गर्भवती लड़की का आश्रम में होना, आश्रम की मर्यादा का घोर उल्लंघन था। किंतु तीर तो कमान से छूट चुका था।इस स्थिति में लड़की को आश्रम से निकालने पर और भी बड़ा हंगामा हो सकता था। मंत्री ज्योति स्वरूप का सुझाव था कि हमें पुलिस को सूचित कर देना चाहिए । इस पर डाक्टर वरुण हँसे थे, उन्होंने कहा-“कौनसी पुलिस ? वह पुलिस जो आपातकाल की आड़ में निरंकुश हो चुकी है। देश में न कोई क़ानून और न कोई कचहरी। आजकल जिसको चाहे पकड़ कर जेल में ठूँस रहे हैं। क्या पता आश्रम पर ही कोई चार्ज लगा दें। ऐसी स्थिति में लड़की को अमानुष बन चुकी पुलिस को सौंपना क्या ह्रदय हीनता नहीं होगी।”
सर्वसम्मति से निर्णय हुआ कि हमें प्रतीक्षा करनी चाहिए। लड़की के पूरी तरह से होश में आने के बाद उससे बातचीत करके कोई हल निकालने का प्रयास करना होगा।
गौशाला से गायों के रंभाने कि आवाज़ें सूचक हैं कि संध्या का दूध दुआ जा रहा है ।आश्रम की बाउंड्री-बॉल के पास लगे विशाल पीपल वृक्ष पर पक्षियों के कलरव की मिली जुली आवाज़ों के साथ ही आश्रम की बत्तियाँ जल उठी हैं। संध्या-आरती समापन के स्वर, घंटे घड़ियालों के शोर में दब से गए हैं।
इन सब से निर्लिप्त, उपर पहाड़ी पर, घने वृक्षों के साये में, एक साया समाधिस्थ की मुद्रा में मौन निश्चल बैठा साधना में लीन है। उपवास और योग की निर्मल धारा में, मन के मैल को धोने में प्रयासरत एक साधक।