कभी धूप मे चलना पैरों का जलना छालों का पड़ना
छाया मे चलना कुछ देर सुहाना लगना फिर सर्दी से ठिठुरना
वसंत का आना फ़ूलो का खिलना हरियाना पतझड मे फिर से उजड़जाना
क्या यही जिंदगी है?
जो पूछा जिंदगी से क्यों देती हो इतने दर्द
क्यों बिछाती हो राह मे काँटे
क्यों बनाती हो दीवारेँ
हर तरफ विघ्न ही विघ्न
ऐसा संजाल जिससे निकालना न हो आसान
इसे कुछ कम नही कर सकती
वो बोली -
गर मौत होती आँचल मे छुपा लेती तेरे सारे गम
सुला लेती तुझे सदा के लिए एक माँ की तरह अपने आगोश मे
पर क्या करूँ पगले जिंदगी हूँ जीना सीखा रही हूँ तुझे एक गुरू की तरह